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प्रेमचंद जयंती : कालजयी बनने सत्ताओं से बेखौफ हो वर्तमान उकेरना होगा

मधु आचार्य ‘आशावादी’

RNE, Bikaner.  

साहित्य सदैव सत्य का प्रतिनिधित्व करता है और वो भी अपने समय का। तभी तो साहित्य को सत्य का संवेदनात्मक अन्वेषण डॉ नंदकिशोर आचार्य कहते हैं। सत्य को केवल रखना या उसे सपाट रूप में लिखना साहित्य नहीं हो सकता, उसका अन्वेषण करना और संवेदनात्मक मूल्यों पर परखना, उससे निकलने वाले निष्कर्ष को लिखना साहित्य है।

इस बात से स्पष्ट है कि साहित्यकार को तीन स्तर पर रचने से पहले गुजरना होता है। पहला सत्य को पहचानना, दूसरा उससे संवेदनात्मक जुड़ाव और तीसरा उसका अन्वेषण। इन स्तरों के बाद ही रचने की प्रक्रिया शुरू होती है। सारे बड़े साहित्यकार इस प्रक्रिया के जीवंत उदाहरण है।

डॉ अर्जुन देव चारण का कहना है कि साहित्य कर्म ऋषि कर्म है, क्योंकि तटस्थ भाव बिना कोई सृजन किया ही नहीं जा सकता। डॉ चारण और आचार्य की कही बातों के आधार पर देखें तो साफ है कि मुंशी प्रेमचंद इन पर पूरे के पूरे खरे उतरते हैं। शायद इसीलिए प्रेमचंद के उल्लेख के बिना हिंदी साहित्य की बात अधूरी रहती है। उपन्यास और कथा, इन दोनों में प्रेमचंद की कृतियां आज भी अपने समय का सशक्त प्रतिनिधित्व करती है। उनकी रचनाओं को यदि कालजयी रचनाएं कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्य में कालजयी रचनाओं के बारे में बहुत कुछ कहा गया है मगर असल में कालजयी रचना वो होती है जो अपने समय के सच का प्रतिनिधित्व करे।

इस पर भी प्रेमचंद की रचनाएं खरी उतरती है। बहस के लिए भले ही कुछ विद्वान कालजयी रचना को अलग अलग तरीके से व्याख्यायित कर दें, मगर कालजयी रचना का सच तो यही है। सच सदा सच रहता है, काल बदलने से वो झूठ नहीं हो जाता। या पुराना नहीं हो जाता। सदा सत्य की लौ प्रज्ज्वलित रहती है, ये शाश्वत सत्य है। कालजयी रचना की इस धारणा को न मानने वाले केवल बौद्धिक जुगाली करते हैं, ये कहने में भी संकोच नहीं होना चाहिए।

हिंदी साहित्य के सामने अनेक बार संक्रमण की स्थितियां आयी है, इनसे उबर कर ही उसने अपनी आब को बचाये रखा है। इस समय भी हिंदी साहित्य की स्थिति खास अच्छी नहीं है। इस तरह के समय में ही प्रेमचंद व अन्य रचनाकारों का सृजन एक राह दिखा उबरने की शक्ति देता है। आज भी साहित्य को सत्ता, समाज की तरफ से हाशिये पर फेंकने की कोशिशें हो रही है। सत्ताओं का चरित्र सदा से ही सृजन को नियंत्रित करने का रहता है, हर काल मे ये होता आया है। जब अभिव्यक्ति के सभी रास्ते सत्ताओं के सामने बंद हो जाते हैं तब केवल शब्द व साहित्य ही तो बचते हैं, जो प्रतिकार के स्वर मुखरित करते हैं। चेतना का विकास करते हैं, जिससे एक बार फिर मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापन होती है। तभी सृजन भी सार्थक होता है।

शब्द व साहित्य, सदा विपक्ष की भूमिका निभाते हैं। सत्ताओं के विपक्ष में रहना इसका धर्म है। तभी तो वे मानवीय मूल्यों, संस्कारों व मानव की रक्षा कर सकते हैं। साहित्य का ये सर्वमान्य धर्म है। मुंशी प्रेमचंद ने अपने पूरे जीवन व रचनाकर्म में इन्हीं मूल्यों की रक्षा की है और इस तरह की सत्ताओं का विरोध किया है। सत्ता का अर्थ केवल राजनीतिक सत्ता से लेना भी संकीर्णता होगी। मानव सभ्यता के आरम्भ से चार सत्ताएं सदा व्यक्ति व मानवीय मूल्यों के विरोध में रही है और उनको अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश करती रही है।

भले ही शब्द व साहित्य कभी इन सत्ताओं के चंगुल में नहीं आये और उसके विरोध में खड़े रहे। ये चार सत्ताएं है- धर्म सत्ता, अर्थ सत्ता, समाज सत्ता और राज सत्ता। इनके और व्यक्ति के बीच के संघर्ष में साहित्य सदा व्यक्ति के साथ खड़ा रहा है। जो व्यक्ति के बजाय किसी भी एक सत्ता या सत्ताओं के साथ खड़ा हो जाता है, फिर वो जो भी लिखता है वो साहित्य नहीं। भले ही कुछ और हो।

मुंशी प्रेमचंद का पूरा साहित्य मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापन का प्रयास है और व्यक्ति की पैरवी है। प्रेमचंद के समय में उन्होंने अपने समय की सत्ता का कड़ा प्रतिकार किया। नमक का दरोगा और ठाकुर का कुआं कहानियां इसी का उदाहरण है। छुआछूत, जातिवाद व शोषण की सत्ताओं का इन कहानियों में कड़ा प्रतिकार है।

आज भी ऐसी स्थितियां बन रही है, इसीलिए उनकी कहानियां प्रासंगिक है। इस दौर में भी प्रेमचंद की तरह बेबाकी से रचने की जरूरत है। व्यक्ति के संघर्ष को यदि स्वर नहीं दिया गया तो फिर वो टूट जायेगा। व्यक्ति का टूटना समाज का टूटना है, संस्कारों का टूटना है और कलाओं का टूटना है।

 

धर्म के नाम पर दूरी व विद्वेष आज की नहीं पुरानी समस्या है। जबकि हर धर्म इंसान को एक मानता है, इंसानियत से बड़ा धर्म कोई नहीं ये कहता है। उसके बाद भी ये समस्या हर काल में रही है और आज भी है। तभी तो प्रेमचंद की कहानियां ईदगाह, कफ़न, पूस की रात आज भी याद आती है। कालजयी कहानियां है। राज सत्ता से पीड़ित व्यक्ति के पक्ष में भी प्रेमचंद का साहित्य पूरी मजबूती के साथ खड़ा दिखता है।

पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, दो बैलों की कथा कहानियां सदा जीवंत रहेगी और हिंदी कथा साहित्य की पहचान बनी रहेगी। प्रेमचंद का पूरा साहित्य व्यक्ति के संघर्ष व मानवीय मूल्यों का दस्तावेज है, इस कारण आज भी प्रासंगिक है और सदा रहेगा। प्रेमचंद ने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल साहित्य की पुस्तकें व अनगिनत आलेख लिखे। ये सब साहित्य की धरोहर है और सदा अपना महत्त्व बनाये रखेगी।

साहित्य के हर विद्यार्थी, हर लेखक का ज्ञान प्रेमचंद को पढ़े बिना अधूरा है। उसका रचनाकर्म अधूरा है। क्योंकि रचनाकार को लिखने की प्रक्रिया में अतीत को अपने कांधे पर रखना चाहिए, वर्तमान का अन्वेषण करना चाहिए और नजर भविष्य पर रखनी चाहिये। प्रेमचंद की जयंती तो यही सीख देती है।