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मायड़ भासा बिना क्यांरो राजस्थान– ये भाव माननीयों के मन में क्यों नहीं, हम भाव जबरिया ही सही, पैदा तो करें

आरएनई,स्टेट ब्यूरो। 

सिर न हो केवल धड़ सामने आये तो उसकी पहचान सम्भव ही नहीं। ठीक इसी तरह किसी भी राज्य की पहचान उसकी भाषा, उसकी संस्कृति से होती है। ये आदमी होने की भी पहचान है। जिस तरह दिमाग, आंख, कान, मुंह मनुष्य के लिए जरूरी है ठीक इसी तरह किसी राज्य, किसी व्यक्ति की पहचान का आधार उसकी भाषा व संस्कृति ही होते हैं। भाषा न हो तो आदमी गूंगा होता है और उसके पास अभिव्यक्ति का कोई साधन भी नहीं बचता। मगर राजस्थान के 25 लोकसभा सदस्य, 10 राज्यसभा सदस्य व 200 विधायक जो राज्य के माननीय है, कभी इस बारे में सोचते भी नहीं। इससे ज्यादा दुखद राज्य व राज्यवासियों के लिए कुछ भी नहीं हो सकता।मुझे एक बार पंजाब की यात्रा पर जाना पड़ा। वहां मुझे एक संस्थान में किसी से मिलने जाना था। पता मेरे पास था तो गाड़ी लेकर रवाना हो गया। पता मेरे पास था मगर मुझे मिल ही नहीं रहा था। क्योंकि उस मुख्य बाजार की हर दुकान पर उसका नाम पंजाबी में लिखा था। बाजार, चौक, मोहल्ले, रोड़ आदि का नाम भी जिन संकेतों पर था वो भी पंजाबी में लिखा था। हार गया पता ढूंढते हुए।फिर नये जमाने के युवाओं की तरह गूगल मैप में पता डाला तो उसने संकेत दिए मगर जिस आफिस में जाना था उसके इर्द गिर्द कार चक्कर लगा रही मगर पता नहीं मिल रहा। सब कुछ पंजाबी में लिखा हुआ। हारकर आफिस के उस मित्र को फोन किया और बताया कहां खड़ा हूं। उसने एक आदमी को भेजा वो हमको उस ऑफिस तक लेकर गया। देखकर आश्चर्य हुआ कि इसके आगे से तो पांच बार निकला था। मैंने उस ऑफिस के चपरासी से पूछा कि यहां कहीं भी हिंदी में बोर्ड नहीं, अंग्रेजी तक मे भी नहीं। तब उसने बताया कि हमारे यहां हर दुकानदार अपनी दुकान का नाम पंजाबी में लिखता है ताकि वहां पहुंचने के लिए हर पंजाबी को पंजाबी भाषा आनी जरूरी है। ताकि वो पढ़ सके बोर्ड और पहुंच जाये। अपनी भाषा के प्रति इस तरह का लगाव देखकर मैं चकित था।राजस्थान में फिर ऐसा क्यों नहीं। यहां तो भूले भटके ही कोई बोर्ड राजस्थानी में लिखा पूरे राज्य में दिखता है। यदि राजस्थानियों को ही अपनी भाषा पर गर्व नही होगा तो कम्बोडिया वालों को तो होने से रहा। ये बात हमारे माननीय क्यों नहीं समझ रहे। क्या राजस्थानी उनके लिए वोट मांगते समय ही बोलने की भाषा है। क्या वे अपनी दादी, नानी, मां की जुबान को मान नहीं देते।यदि हम अपनी मां की भाषा की कद्र ही नहीं जानते तो माँ की कद्र कैसे करेंगे। मायड़ भाषा ने ही इन माननीयों को गढ़ा है। इन पदों पर पहुंचाया है। फिर वो कैसे अपनी भाषा के प्रति कृतज्ञ नहीं, ये तो विडंबना है। अगर अपनी राजस्थानी संस्कृति को वे अनूठा बता वे पूरे देश मे सम्मान पाते है, तो ये क्यों भूल जाते हैं कि भाषा ही इस संस्कृति की रक्षा करेगी। भाषा नहीं बचेगी तो संस्कृति कैसे बचेगी। जब ये दोनों ही नहीं बचेंगे तो राजस्थानी कैसे बचेगा, क्या ये माननीय नहीं समझ रहे।अब तक तो लगता है कि माननीय नहीं समझ रहे। तब हम राजस्थानियों के पास एक ही रास्ता बचा है कि हम इनको समझाएं। केवल कहने भर से ये समझेंगे नहीं, ये तो इतना कहने के बाद तय हो ही गया। इनको जब तक इनकी भाषा में नहीं समझाया जाये, इनके बंद कान नहीं खुलेंगे। कुंभकर्णी नींद नहीं टूटेगी। अब समय है इन माननीयों को इनकी भाषा मे ये बात समझाने का। इसमें चूक गये तो चौरासी ही होंगे हम।

— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘