‘ ओपीएस ‘ पर सरकार की चुप्पी, कर्मचारी हो रहा लामबंद, कभी भी फूट सकता है गुस्सा
राज्य में लोकसभा चुनाव में मतदान की प्रक्रिया पूरी हो गई। मतदान हो गया, अब केवल 4 जून को परिणाम आने शेष है। चुनाव के दौरान कई मुद्दे उछले। राम मंदिर की बात हुई, धारा 370 भी छाई रही। अबकी बार, 400 पार का नारा भी रहा। पीएम मोदी की गारंटियों का बोलबाला रहा। कांग्रेस का अपना न्याय पत्र था। महंगाई व बेरोजगारी पर हमला था। अग्निवीर योजना पर प्रहार था। कांग्रेस गाहे बगाहे अपनी पिछली राज्य सरकार की योजनाओं को भी भुना रही थी।
मगर ये बात पूरी तरह सही है कि मुद्दे अधिकतर राष्ट्रीय ही हावी रहे। नारों के बीच राज्य के मुद्दे तो काफी फीके पड़ गये। उन पर कोई माहौल ही नहीं बन सका। जिस जिस लोकसभा क्षेत्र में स्थानीय मुद्दे गति पकड़े, वहां वहां कड़ा मुकाबला है, ये साफ अब दिखने भी लगा है। लोगों ने स्थानीय मुद्धों को ज्यादा तरजीह दी। प्रथम चरण के मतदान के बाद ये बात भाजपा को समझ आ गई। तभी तो उसने मुद्दे बदलने आरम्भ कर दिए। दूसरे चरण के बाद तो मुद्दे बदल ही गये। बात सनातन, मंगलसूत्र, आदि तक आ गई। ध्रुवीकरण की स्थितियां बनाई जाने लगी।
राज्य का एक मुद्दा इस चुनाव में उभर ही नहीं पाया। ये राज्य कर्मचारियों और उनके परिवारों से जुड़ा था। बड़ी जनता का इस मुद्दे से सीधा जुड़ाव था। ये मुद्दा था ओल्ड पेंशन स्कीम यानी ‘ ओपीएस ‘ का। राज्य की पिछली गहलोत सरकार ने ये सुविधा कर्मचारियों को दी थी। इसे कांग्रेस ने राष्ट्रीय मुद्दा भी बनाया। हिमाचल में सरकार बदलने में जिन मुद्दो की मुख्य भूमिका थी उसमें ओपीएस भी एक था। राज्य की नई सरकार ने लोकसभा चुनाव आने थे इसलिये इस पर कोई निर्णय नहीं किया और न कुछ बोला। चुप्पी साध ली। सरकार की चुप्पी पर कर्मचारी भी ध्यान नहीं दे पाये। जबकि हर कर्मचारी सरकार की आंखे, कान और नाक होते हैं। मगर वे भी चूक गये।
दिक्कत ये है कि कांग्रेस ने भी विधानसभा चुनाव के समय तो इस मुद्दे को जोर शोर से उठाया मगर लोकसभा चुनाव में उस तरीके से उठा ही नहीं पाई। न कर्मचारियों ने दोनों दलों को इस मुद्दे पर बोलने के लिए बाध्य किया, उनकी भी कमी रही। बहुत कम लोगों को इस बात का पता होगा कि नई सरकार के पहले विधानसभा सत्र में कांग्रेस और भाजपा के 8 विधायकों ने प्रश्न लगाकर सरकार से इस मुद्दे पर जवाब मांगा। मगर उनके सवाल का जवाब ही तीन महीने में नहीं दिया गया। विधानसभा का सत्रावसान हो गया मगर जवाब नहीं आया। सरकार की चुप्पी पर कोई कुछ भी नहीं बोला।
मगर अब कर्मचारी चेता है। वो ओपीएस पर सोचने लगा है और सभी संगठन मिलकर इस पर मंथन भी कर रहे हैं। एक सामूहिक रणनीति भी बन रही है। यदि सरकार ने समय रहते इस मसले पर कुछ निर्णय नहीं किया तो उसे कर्मचारियों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। ओपीएस राज्य का आने वाले समय में एक मुद्दा बनेगा।
मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘