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‘साहित्य की पगडंडी’ पर सार्थक यात्रा की नसीहत बृजरतन की ‘अनुभव ओर उत्कर्ष’ : मधु आचार्य ‘आशावादी’

  • पुस्तक – अनुभव और उत्कर्ष
  • लेखक – ब्रजरतन जोशी
  • विधा – निबंध संग्रह
  • प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
  • पृष्ठ – 106
मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘

हिंदी साहित्य में सबसे दुर्गम विधा निबंध को माना जाता है। क्योंकि भाषा को पोषित करने के साथ साथ उसकी प्रतिस्थापना का काम निबंध ही करते हैं। निबंध किसी भी भाषा की असली पहचान ‘ ओळखाण ‘ होते हैं। निबंधों से ही भाषा की सहजता, सरलता, सौम्यता, सरसता का भान होता है। किसी भी भाषा को जानना हो तो हम उस भाषा की कविता, कहानी या उपन्यास से नहीं जान सकते। इनसे तो हमें केवल रचनाकार के बारे में जानने को मिलता है। यदि भाषा व उस भाषा के साहित्य को पूरा जानना है तो हमें उस भाषा के निबंध साहित्य से ही गुजरना पड़ता है। निबंध जानेंगे तभी उस भाषा के अन्य विधाओं के साहित्य की गहराई को पकड़ पायेंगे।
कवि, नाटककार व आलोचक डॉ नंदकिशोर आचार्य का कथन इस बात को प्रमाणित भी करता है। उनका कहना है कि गद्य नये नये शब्द गढ़ता है, मगर पद्य उन शब्दों की भाषा में प्रतिस्थापना करता है। आचार्य का ये कथन इस बात को पुष्ट करता है कि भाषा को रिच करने का काम पद्य करता है और पद्य की पहचान निबंध है। इसी वजह से निबंध को हर भाषा का आईना समझा जाता है।


राजस्थानी के कवि, नाटककार व आलोचक डॉ अर्जुन देव चारण का भी कथन इस विषय में उल्लेखनीय है। उनका कहना है कि भारतीय भाषाओं में वही भाषा समृद्ध और लोकचावी हुई है जिसका निबंध साहित्य समृद्ध है। अनेक क्षेत्रीय भाषाओं को सर्वमान्यता इसी वजह से नहीं मिली कि उनका निबंध साहित्य कमजोर है। भाषा को समृद्ध करने के लिए जितना कविता, कहानी को लिखा जाना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक निबंध का लिखा जाना जरूरी है। डॉ चारण की ये बातें भी इस बात को ही पुष्ट करती है कि किसी भी भाषा के साहित्य की असल पहचान उसके निबंध साहित्य से ही होती है।
हिंदी साहित्य में निबंध विधा की एक समृद्ध परंपरा रही है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल से शुरू होकर ये वर्तमान तक पहुची है। मगर ये भी पिछले तीन दशक का कड़वा सच है कि हिंदी साहित्य में निबंध पर बहुत कम उल्लेखनीय काम हुआ है। सस्ती लोकप्रियता, सम्मान व इनाम पाने के लिए अधिकतर रचनाकारों ने कविता, कहानी व उपन्यास को ही अंगीकार कर आसान रास्ता चुना है। निबंध की तरफ जाने ये ये रचनाकार बचते हैं। कई बड़े लेखक हैं जो गाहे बगाहे निबंध लिखते हैं। मगर तीन दशक में हिंदी साहित्य में निबंध की मुक्कमिल पुस्तकें बहुत कम आयी है। जितनी आयी है उनको अंगुलियों पर गिना जा सकता है। उससे कई गुना तो कविता और कथा की पुस्तकें आयी है। नये लेखक जो आते हैं वो तो निबंध विधा की तरफ जाना तो दूर उससे गुजरने से भी बचते हैं। जबकि साहित्य समालोचकों का मानना है कि निबंध विधा से गुजरे रचनाकार की कविता, कहानी अधिक प्रभावी, सार्थक व सहज अभिव्यक्ति को प्राप्त करती है।


हिंदी साहित्य के इन्हीं सब मूल सिद्धांतों को समझकर ही ब्रजरतन जोशी ने निबंध संग्रह ‘ अनुभव और उत्कर्ष ‘ लिखा है। कवि, आलोचक जोशी भी सहज होकर कवि के रूप में पहचान बनाने का आसन रास्ता अपना सकते थे मगर उन्होंने हिंदी साहित्य की दुर्गम विधा में खुद को परखने का साहस दिखाया। उसी साहस की परिणीति ये अनूठा निबंध संग्रह है जो हिंदी साहित्य को जानने, समझने व पहचानने का अवसर पाठक को भरपूर देता है।
जोशी के ‘ अनुभव और उत्कर्ष ‘ पुस्तक में दो खंड है। पहला अनुभव, जिसमें 11 निबंध है और अलग अलग विषयों पर। दूसरा खंड है उत्कर्ष, जिसमें भी 11 निबंध है। ये 22 निबंध साहित्य के अनुभव को हमें समझाते हैं तो साथ ही हिंदी साहित्य के उत्कर्ष के चरणों से भी हमें परिचित कराते हैं। एक ही निबंध संग्रह हिंदी साहित्य के उत्कर्ष और अनुभव का विस्तृत ब्यौरा हमें दे देता है। जो टुकड़ों टुकड़ों में कई पुस्तकों से जुटाना पड़ता, वो एक पुस्तक से मिल जाता है। इस वजह से ये निबंध संग्रह बहुत ज्यादा उपयोगी व महत्ती है। पठनीय है।
अनुभव खंड में पहला निबंध ‘ संस्कृति का स्वभाव ‘ में जोशी कहते हैं ‘ जब जब भी कोई समाज देश – काल एवं वातावरण के साथ जीवन संघर्ष करता है, तो उसी संघर्ष की प्रक्रिया से संस्कृति का स्वभाव आविर्भूत होता है। ‘ जोशी ये कहना चाहते हैं कि जीवन संघर्ष से संस्कृति का उद्भव होता है, जो अपना परिवेश अपने में समेटे होता है। एक नई दृष्टि है ये संस्कृति पर। सामान्य रूप से सांस्कृतिक उपादानों को संस्कृति समझा जाता है, ये निबंध उसे जीवन संघर्ष की यात्रा बताता है। जीवन संघर्ष से जो हम परिवर्तन लाते हैं, उसके औचित्य का बोध ही स्वभाव का मूल्यांकन कराता है। इस निबंध में संस्कृति के विवेकशील होने, उसकी प्रासंगिकता, आदि पर भी गहरी विवेचना करता है और वो भी नवीन सोच के साथ। निबंधकार ने गांधी की ग्रहणशीलता को भी इसमें रेखांकित किया है।
‘ सृजन और भाषा बोध ‘ निबंध में निबंधकार ने माना है कि कला विवेक का निर्माण भाषाबोध पर निर्भर करता है। किसी भी कलाकार का भाषाबोध जितना गहरा और संवेदनशील होगा, उसका अपनी भाषा और संवेदना के साथ उतना ही परिपक्व एवं सर्जनात्मक रिश्ता होगा। सृजन, संवेदना, भाषा और भाव पर सटीक विवेचन है ब्रजरतन जोशी का। कविता में वाचालता के वर्चस्व के खतरे को भी निबंधकार ने रेखांकित करते हुए सही कहा है कि आज की कविताएं बोलती बहुत है, पर कहती कुछ नहीं। कविता के संक्रमण के दौर में ये निबंध बहुत सार्थक है। ‘ संसार और साहित्य ‘ निबंध में निबंधकार जोशी ने बहुत सुंदर कहा है कि जीवन को पढ़ने के दो ही रास्ते हैं- संसार और साहित्य। तभी तो साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा गया है। संसार और साहित्य मूलतः अन्योन्याश्रित है, दोनों ही सदा सदा गतिमान है। जो लेखक जीवन, अस्तित्त्व व मानवीयता की सोच रखकर जितना संवाद करता है, उतना ही श्रेष्ठता की तरफ बढ़ता है। आधुनिक कवियों में से अधिकतर ने इसको छोड़ा तो नुकसान कविता, साहित्य व संसार, तीनों का हुआ। हमें सिखाने का काम संसार यानी समाज ही करता है, उसी का लेखक अन्वेषण करता है। निबंधकार ने अंत मे बहुत सुंदर कहा कि लेखक को संसार से जो जो मिलता है, वो विवेक से तय करता है कि उसे क्या रखना है और क्या छोड़ना है। अच्छा लेखक वही है जो पहले ये तय करे कि क्या छोड़ना है। निर्मल वर्मा के एक कथन का तात्त्विक अन्वेषण कर ब्रजरतन जोशी ने ‘ विधा और रचनाकार ‘ निबंध लिखा है। उन्होंने सही कहा है कि लेखन अपनी भाषा, विधा और अनुभव के साथ लेखक का आत्मसाक्षात्कार है। इस निबंध में उन्होंने आलोचना के भी कई मिथकों को तोड़ते हुए आलोचना के मूल सिद्धांतों पर बात कही है। इतनी साफगोई से आलोचना पर बोलने का साहस कम में ही होता है। ‘ कविता और गद्य ‘ निबंध में निबंधकार ने इन दोनों के बीच के बारीक मगर महत्ती अंतर को खोलकर रख दिया है।
‘ साहित्य पगडंडी है मार्ग नहीं ‘ निबंध बहुत ही व्यावहारिक सवाल खड़े करता है जो हर रचनाकार से पूछे गए हैं। निबंधकार ने कितने सरल तरीके से बताया है कि मार्ग तो पूर्वाग्रहों, अभ्यासों और निर्धारित धारणाओं का वरण है, जबकि पगडंडी हमारा वर्तमान है। सत्य कहा है, सारी कलाएं अहसास व अनुभूति की तरफ ले जाती है, अर्थ की तरफ नहीं। आज यही बात रचनाकार भूलता जा रहा है, जिसे सचेत करने का काम निबंध में हुआ है।
‘ कला पढ़ने की नहीं देखने की विधि है ‘ निबंध बहुत बड़ा और कड़वा सच है। मुझे याद है जब सुरजीत पातर, डॉ अर्जुन देव चारण, रवैल सिंह, गौरहरी दास आदि के साथ एक अनोपचारिक चर्चा में बैठा था तो डॉ चारण ने कहा था, कविता सुनने की चीज है मगर उसे पढ़ने की चीज बना दिया। इसी कारण इसके श्रोता व पाठक कम हुवै। ये निबंध पढ़कर वो बात याद आ गई। जोशी ने अपने निबंध में इस बात को प्रतिस्थापित किया है कि कलाओं को निकट से जीवन से जोड़कर देखना चाहिए जबकि आजकल केवल पढ़ने व कुछ हासिल करने में ही कलाओं को देखना छोड़ दिया। जोशी ने शिक्षा पद्धति को भी इसके लिए जिम्मेवार माना है। पलायनवादी सोच पर बड़ी गहरी बात निबंध में है। ‘ मौलिकता : जीवन का आश्वासन ‘ निबंध साहित्य व जीवन के मूलभूत सवालों को उठाता है और उनके उत्तर पाने का संकेत भी करता है। मौलिक जीवन हो या साहित्य, सहज ही सबको आकर्षित करता है। निबंधकार ने स्पष्ट किया है कि सामान्यतः समझा जाता है कि मौलिकता का सम्बंध मन से है, जबकि वास्तव में इसका संबंध हमारी चित्त भूमि से है। ‘ विवेक : इतिहासबोध और साहित्य ‘ एक अलहदा मगर जरुरी निबंध है। इस निबंध में जोशी ने साफ कहा है कि हमारे विवेक की वयस्कता में इतिहासबोध व साहित्य ही महत्त्वपूर्ण साबित होते हैं। कहा भी जाता है कि हम वर्तमान में रचते हैं मगर हमारे कांधे पर अतीत होता है और नजर भविष्य पर रहती है। बहुत जरूरी निबंध है ये। ‘ आयोजन का मर्म ‘ निबंध में जोशी साफ करते हैं कि आयोजन जीवन के आकार का व्याकरण तय करते हैं। आयोजन स्वस्थ समाज की ऊर्जा के स्त्रोत हैं, मगर वे विवेक से किये हुए आयोजन हो। पहले खंड का अंतिम निबंध है ‘ ग्रंथमालाएँ और साहित्य ‘। इसमें ब्रजरतन जोशी का मानना है कि ग्रंथमलाएं पाठक के विकास में महत्ती भूमिका निभाती है। इनको उन्होंने ज्ञान झरोखे की संज्ञा दी है। कुछ चर्चित ग्रंथमालाओं का विस्तार से इस निबंध में जिक्र भी हुआ है। बस, पाठक को विवेकशील बने रहने की आवश्यकता जरूर जताई है।
दूसरा खंड – उत्कर्ष
इस खंड में निबंधकार ब्रजरतन जोशी ने उन महान शख्सियत पर निबंध लिखे हैं जिन्होंने जीवन दर्शन के कई सूत्र दिए, जो आज भी आदमी का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उन महान व्यक्तियों के कर्म को और उससे प्रतिपादित हुए सिद्धांतो पर दृष्टिपात किया है। इस खंड के सभी 11 निबंधों की विशेषता ये है कि इन महान लोगों के अनछुए पहलुओं को उठाया गया है। जिस पर बहुत लिखा जा चुका हो, उस पर लिखना जोखिम का काम है। क्योंकि नया दृष्टिकोण न हो तो पढ़ेगा कौन? मगर निबंधकार इन निबंधों को भी पढ़वाने में सफल रहे हैं।
इस खंड का पहला निबंध है ‘ स्वामी विवेकानन्द : अभेद की संस्कृति ‘। जोशी ने उनके जीवन प्रसंग से ये साबित किया है कि विवेकानन्द यानी वर्तमान का बोध। वे न तो आदर्शवादी है और न रूखे दार्शनिक। नवीन मार्ग तलाशने वाले साधक हैं। वर्तमान दौर भी विषमताओं का है, उसमें वे ज्यादा प्रासंगिक है मगर हम उनकी पूजा कर रहे हैं उनके विचारों को आत्मसात नहीं कर रहे। बहुत अलहदा पहलू उनके निबंध में उठे हैं। ‘ प्रसाद का प्रासादन ‘ निबंध में प्रसाद के कवि रूप को नये तरीके से समझाने की कोशिश है। इस निबंध में उनकी रचना प्रक्रिया पर बात है, जो गहराई लिए हुए है। पहली बार ये पड़ताल हुई है। जोशी ने इसमें साबित किया है कि उनका कवि- कवित्व दोनों समाज सापेक्ष है और कला सापेक्ष भी।


गांधी पर बहुत लिखा गया है मगर जोशी ने ‘ गांधी : साधारण का सौंदर्य ‘ निबंध में गांधी और गांधीवाद को नये तरीके से परिभाषित किया है। आज के युग मे भी साधारण होना सबसे असाधारण काम है, उस दौर में गांधी ने यही किया। जिससे ही देश को आजादी मिली। गांधी ने भारतीय संस्कृति को जानकर ही आंदोलन किये, सफल भी रहे। दूसरों की जय से पहले खुद की जय, आज भी जरूरी है। ‘ विनोबा : अनूठे अनुभव का आनन्द ‘ निबंध में विनोबा को गांधी का सच्चा उत्तराधिकारी बताते हुए निबंधकार ने कहा है कि उन्होंने गाँधीजी की रखी नींव पर न केवल नवनिर्माण किया अपितु अपने मौलिक चिंतन से उसे नया रूप भी दिया। जोशी ने कहा है कि अहिंसा उनकी नीति थी और समन्वय उनका मार्ग। ‘ कवि प्रदीप : सहजता का सौंदर्य ‘ निबंध में प्रदीप को गीत काव्य का बड़ा हस्ताक्षर बताया है। उनके फिल्मी गीतों की गूढ़ता को भी निबंधकार ने उभारा है। ‘ जवाहर लाल नेहरू : अनन्य राजनेता ‘ निबंध में निबंधकार ने नेहरू के बारे में एक बड़ी बात कही है कि उन्होंने इतिहास व संस्कृति की गहरी समझ से ही नव निर्माण किया। संस्कृति के विकास में राजनीति की भी बड़ी भूमिका होती है, निबंध ये भी प्रमाणित करता है। आज के दौर पर चिंता भी निबंधकार ने जताई है।
निबंध ‘ रेणु : विद्रोही संत ‘ में निबंधकार ने रेणु को संत कहा है क्योंकि वे नगरीय व ग्राम्य संस्कृति के बीच के फर्क को अपने साहित्य से पाठक के सामने रखते रहे हैं। रेणु की पूरी रचना प्रक्रिया को जोशी ने नये नजरिये से व्याख्यायित किया है। उनको लोकमन का रचनाकार बताया है। उनके जीवन के राजनीतिक रूप, किसान के रूप आदि को इसमें जगह दी है, जिससे ये निबंध बहुत प्रभावी बना है। ‘ कपिला वात्स्यायन : परंपरा की मौलिक व्याख्याकार ‘ निबंध में निबंधकार ने ये स्थापित किया है कि परंपरा के बिना हम नया नहीं कर सकते। क्योंकि परंपरा जड़ नहीं होती, वो परिवेश व समय के अनुसार रूप बदलती है। कपिला जी के सांस्कृतिक कर्म पर पहली बार शायद इतना गम्भीर अध्ययन हुआ है। ‘ साहित्य का निर्मल अध्यात्म ‘ में लेखक निर्मल वर्मा के साहित्य को विश्लेषित करते हुए जोशी ने लिखा है कि वे अपनी कलम आत्मा में डुबोकर लिखते थे। उनके साहित्य का ये विश्लेषण जानदार है– निर्मल वर्मा के चरित्र दोहरी अर्थवत्ता लिए होते हैं, एक रागात्मक व दूसरी भावात्मक। अर्थात वे इस स्थापना पर आगे बढ़ते हैं कि ज्ञान और भाव मानव चेतना के अनिवार्य अंग है। ‘ साहित्य के अनन्य वैद्य : कृष्ण बलदेव वैद ‘ में निबंधकार को इस बात का मलाल है कि हिंदी आलोचना सर्वाधिक प्रयोगशील लेखक के लेखन पर उदासीनता के पथ पर है। हिंदी गद्यकारों के इतिहास में वे अकेले ऐसे शिल्पी हैं जो इस काम को बखूबी न केवल अंजाम ही देते हैं बल्कि नये आयाम भी रचते चलते है, जोशी ने महत्ती निबंध लिखा है। ‘ अशोक वाजपेयी : काँपती रोशनी में खिलता मैत्री संसार ‘ निबंध अशोक वाजपेयी के साहित्य कर्म के साथ उनके रचनाकार पर एक विहंगम दृष्टि है। उनके पत्र, उनके मित्र, सब कुछ सीखने समझने का अवसर देते हैं। आधुनिक कविता या पूरा साहित्य वाजपेयी पर बात किये बिना पूरा ही नहीं होता। ये अंतिम निबंध समकालीन साहित्य के बारे में पाठक को पूरी जानकारी देता है।
कुल मिलाकर ये निबंध संग्रह अपनी नवीनता, नवाचार व नई दृष्टि के कारण हिंदी साहित्य की अनमोल पुस्तक है। जो पठनीय होने के साथ संग्रहणीय भी है।

– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘