रंग निष्ठा का मोल ही रंगमंच की प्रतिस्थापना का आधार है, उसकी उपेक्षा न हो
आरएनई,बीकानेर।
बीकानेर रंगमंच का दरख़्त जिन कलाकारों, निर्देशकों व रंग संस्थाओं से पल्लवित व पोषित हुआ उससे कहीं अधिक उन लोगों से हुआ जिन्होंने मंच के पीछे रहकर अपनी पूरी रंग निष्ठा का समर्पित भाव से परिचय दिया। उनको सामने आकर तालियां सुनने का कोई शौक नहीं था। न अखबारों की खबर का हिस्सा बनने की चाह थी। उनको तो अपने काम से मतलब था। समर्पित रहकर काम करना ताकि कलाकार व निर्देशक पूरी तरह तनाव मुक्त होकर नाटक खेल सकें। साथ ही नाटक देखने के लिए आने वाले दर्शक भी आराम से प्रस्तुति का लुत्फ ले सकें। नाटक आखिरकार किया तो दर्शक के लिए ही जाता है, इसलिए उसकी सुविधा का ख्याल रखना भी पहली प्राथमिकता है। ये काम कलाकार नहीं कर सकते, न निर्देशक कर सकता है, ये काम तो रंग सहयोगी ही कर सकते हैं।
रंग सहयोगियों के कई रूप होते हैं। पहला रूप वो जो कलाकारों व निर्देशक को रिहर्सल के लिए स्थान उपलब्ध कराता है। दूसरा वो जो आपके नाटक के लिए टिकट बेचकर दर्शक जुटाता है। तीसरा वो जो आपके नाटक के प्रचार के लिए पोस्टर बनाता है। तीसरा वो जो ग्रांड रिहर्सल में आपके लिए चाय, पानी की व्यवस्था करता है और इस बात का ध्यान रखता है कि उस रिहर्सल में किसी तरह का व्यवधान न पड़े। चौथा वो होता है जो आपके प्रदर्शन का प्रभार संभालता है। गेट पर खड़ा होता है। दर्शक को कुर्सी तक लाकर बिठाता है। शोरगुल न हो ताकि कलाकार की एकाग्रता न टूटे, उसका ध्यान रखता है।
ये सब काम वही कर सकता है जो नाटक के मंचन से पूरी तरह जुड़ा रहे। सामने आकर वाहवाही लूटने की कोशिश न करे। बस, निष्ठा से नाटक के मंचन के लिए समर्पित रहे। ये यात्रा बहुत कठिन है मगर होते हैं ऐसे कई लोग, जिनको सदा याद रखना चाहिए। उनका बीकानेर रंगमंच की प्रतिस्थापना में बड़ा रोल रहा है। हमें सेल्यूट करना चाहिए विष्णुकांत जी, जगदीश जी, प्रदीप भटनागर जी, हनुमान पारीक जी, एल एन सोनी ‘मामाजी’ जैसे रंगकर्मियों को, जिन्होंने उस समय इस तरह की रंग निष्ठा रखने वालों को भी अधिक सम्मान दिया और कलाकारों से अधिक मान दिया। इनके महत्त्व को वे जानते थे।
इसी तरह की रंग निष्ठा वाले 3 लोग उस समय मंगल सक्सेना के नाट्य प्रशिक्षण शिविर के लिए आरम्भ से ही उनसे जुड़ गये थे। सम्मानीय कामेश्वर सहल, ज्ञान शर्मा व मोहन शर्मा जी। ये तीन लोग ऐसे थे जिनकी रंग निष्ठा को आज के रंगकर्मियों को भी याद रखना चाहिए। इन लोगों की बदौलत ही तो उस समय रंगकर्म की नींव पड़ी। जिसकी सुंदर इमारत पर आज के रंगकर्मी इतराते हैं। ये वे लोग थे जिनकी शिविर के लिए लगन कलाकारों से लेश मात्र भी कम नहीं थी, उनसे अधिक ही थी। इसी वजह से विष्णुकांत जी, प्रदीप जी, जगदीश जी इनका आरम्भ से ही बहुत सम्मान करते थे। मनोहर पुरोहित कलांश, छलिया भावनखेल का भी वे इसीलिए सम्मान करते थे क्योंकि वे रंग पार्श्व के अलावा प्रचार के पोस्टर भी तैयार करते थे। आज के रंगकर्मियों को समझना चाहिए ऐसे काम करने वाले उन व्यक्तियों का जिनकी रंग निष्ठा अप्रतिम है। वे जिस दिन ये सीख जायेंगे उस दिन बीकानेर रंगमंच के स्वर्णिम दिन फिर से लौट आयेंगे।
वर्जन :
बात कटु है मगर सत्य है, रंग निष्ठा रखने वालों को आज के दौर में उतना सम्मान नहीं मिलता। जबकि वे नाटक के लिए अनमोल है। उनके बिना मंचन के सफल होने की संभावना ही नहीं। कलाकार तो दर्शकों के सामने आकर उनकी तालियों से संतुष्टि हासिल कर लेते हैं। मगर ये तो मुस्कुराते दर्शकों को देखकर ही खुश होते हैं। रंग निष्ठा के साथ पीछे रहकर कलाकारों व निर्देशक का मार्ग सुगम करने वालों को सर्वाधिक सम्मान देना चाहिए। ये आज से ही प्रक्रिया शुरू हो, सच मे बीकानेर फिर से उत्तर भारत की नाट्य राजधानी बन जायेगा।