ये बेरुखी भारी पड़ेगी ! साहित्य, संस्कृति, भाषा, बजट का हिस्सा ही नहीं क्या ?,
- मधु आचार्य “आशावादी”
बजट का सांस्कृतिक विवेचन :
“देश कई सामाजिक समस्याओं से घिरा है। आतंकवाद, सांप्रदायिकता, तनाव, अपराध, अशिक्षा आदि की समस्याएं पूरे देश के ढांचे को झकझोर रही है। इन समस्याओं का निदान तो केवल साहित्य, संस्कृति, भाषा से ही सम्भव है, ये दुनिया का हर समझदार इंसान जानता है। फिर राज्य व देश के बजट में कहीं भी ये विषय प्रमुखता से क्यों नहीं आये ?”
15 दिन की अवधि में दो बजट आये। पहले राजस्थान सरकार का 10 जुलाई को और फिर 23 जुलाई को देश की सरकार का बजट आया। दोनों बार दो दिन तक टीवी चैनल पर व अखबारों में बजट की बातें छाई रही। स्थानीय, प्रदेश स्तरीय व राष्ट्रीय नेताओं की बजट पर प्रतिक्रिया आई, दिखी और छपी। कर्मचारियों, अर्थशास्त्र के जानकारों, चिकित्सकों, रक्षा विशेषज्ञों, किसानों व कृषि जानकारों आदि की राय भी दोनों बजट पर आई। अखबारों के कई पन्ने बजट पर रंगे हुए थे। कोई बजट के किसी हिस्से के पक्ष में बोला तो कोई किसी के विपक्ष में। कुछ ने कुछ पर बजट में कुछ न होने पर भी बात की।
मगर दुःख इस बात का है कि न तो राजस्थान के बजट में व न देश के बजट में, एक बार भी साहित्य – संस्कृति – भाषा का नाम सुनाई नहीं पड़ा। बजट की विगत, चर्चा में किसी भी चेनल पर इन पर कोई बात नहीं सुनाई दी। न दोनों बार किसी अखबार के अधिकाधिक पन्नों में से किसी कोने में इससे जुड़े शब्द पढ़ने को मिले। न इस क्षेत्र के किसी व्यक्ति की बजट पर प्रतिक्रिया टीवी या अखबार में देखने को मिली। क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है ?
क्या साहित्य, संस्कृति व भाषा देश की इतनी भी जरूरत नहीं कि बजट का हिस्सा बने। उस पर भी बात हो। इस क्षेत्र को भी महत्त्व मिले। इनकी उपेक्षा क्या हमारे सभ्य होने, समाज के सभ्य होने पर सवालिया निशान नहीं है ?? इनकी उपेक्षा करके हम किस समाज की रचना करना चाहते हैं। हमारे सम्मानीय ग्रंथ तो इनके अभाव वाले व्यक्ति को व्यक्ति नहीं पशु मानते आये हैं, क्या उस बात को हम भूल गये।
कितना दुःखद समय है ये। देश कई सामाजिक समस्याओं से घिरा है। आतंकवाद, सांप्रदायिकता, तनाव, अपराध, अशिक्षा आदि की समस्याएं पूरे देश के ढांचे को झकझोर रही है। इन समस्याओं का निदान तो केवल साहित्य, संस्कृति, भाषा से ही सम्भव है, ये दुनिया का हर समझदार इंसान जानता है। फिर राज्य व देश के बजट में कहीं भी ये विषय प्रमुखता से क्यों नहीं आये ? इस पर चुप्पी उचित तो मानी नहीं जा सकती। वो भी उस समय जब राज्य व केंद्र में संस्कृति को समर्पित दल की सरकारें है। न सत्ता, न विपक्ष, दोनों का इस तरफ ध्यान क्यों नहीं। चकित करने वाली बात है।
बात देश की करें या राज्य की, इन क्षेत्रों के लिए सरकारी बजट से चलने वाले संस्थान तो बनाए हुए हैं, मगर वे चल रहे हैं या नहीं, इसकी कोई सुध नहीं ले रहा। बहुत विडंबना की स्थिति है।
सत्ता और विपक्ष की साहित्य, संस्कृति व भाषा पर सूरत दिख गयी। एक बार इन्होंने अपने सोच को दिखा दिया। क्या अब भी इन पर भरोसा करना चाहिए या फिर अपने बूते रास्ता तलाशना चाहिए। लोकतंत्र है, हरेक को बराबर का अधिकार है। अब तो लगता है साहित्य, संस्कृति व भाषा के लिए जीने वालों को खुद की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी। नहीं तो बुरा हश्र होगा। लड़ाई भी उनको छोड़कर लड़नी होगी जो राज की स्तुति कर कुछ पाने की जुगत में ही लगे रहते हैं। उनकी बातों, झांसों से बचकर हक़ के लिए खड़ा होना पड़ेगा। नहीं तो सत्ता का मीठा जहर बचे हुए साहित्य सेवियों, संस्कृति कर्मियों व भाषा के लिए जीने वालों को लील लेगा।
- मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘