यह आम रास्ता नहीं है : खास रास्ते पर चलने की कोशिश मेंआम आदमी की पतली हालात
“मैं जब बेकारों की भीड़ देखता हूँ तो सोचता हूँ कि अवश्य ही इन लोगों ने खास रास्तों पर चलने का संकल्प किया है अन्यथा पढ़ाई पर इतना व्यय करने के बजाय क्यों नहीं कोई काम-धंधा किया ? कम से कम भूखों मरने की नौबत तो न आती। लेकिन वे नौकरी को आम रास्ता समझने की भूल कर बैठे।” (डॉ.मंगत बादल के इसी व्यंग्य से)
डॉ. मंगत बादल
जब मैं किसी मार्ग पर “आम रास्ता नहीं है” का पट्ट लगे देखता हूँ तो भारतीय प्रजातंत्र के सामने श्रद्धावनत हो जाता हूँ, क्योंकि खास रास्ते तो खास लोगों के लिये ही बने होते हैं। मंत्री के बेटे मंत्री और अफसर के बेटे अफसर नहीं बनेंगे तो क्या हमारे तुम्हारे बनेंगे जो दो जून रोटी के लिये सारी जिन्दगी का भट्ठा बिठा देते हैं। कुछ लोगों की आदत होती है कि वे मुँह उठाकर जिधर इच्छा हुई चल देते हैं। यह भी विचार नहीं करते कि आखिर उनकी वहाँ जरूरत ही क्या है। इसलिये यह जरूरी है कि ऐसे मार्गों पर स्पष्ट रूप लिख दिया जाये, “यह आम रास्ता नहीं है।”
आपने देखा होगा कई “नत्थू खैरा” किस्म के लोग विधान सभा या संसदीय चुनावों में खड़े हो जाते हैं। ऐसे लोगों के दो मकसद होते हैं। पहला यह कि कोई न कोई उन्हें पैसे-वैसे दे दिलाकर बैठने के लिये कह देगा तो बैठे ठाले, कमाई हो जायेगी। दूसरा यदि किसी ने घास नहीं डाली तो खुद का प्रचार तो होगा ही। मत पत्र पर छपे नाम को कितने लोग पढ़ेंगे। बाद में ऐसे लोगों की जमानत भी जब्त हो जाती है किन्तु भारतीय नौकरशाही के चरित्र को देखते हुए ऐसे लोग हारने पर उसमें अपना पैर धंसाकर अफसरों की दलाली करते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में कई बार ऐसे लोग खड़े हो जाते थे जिन्होंने कभी विधान सभा या संसद की शक्ल भी नहीं देखी होती थी। शायद इसीलिये राष्ट्रापति चुनाव प्रणाली में संशोधन करने पड़े। आखिर राष्ट्रपति का पद है, कोई आम रास्ता नहीं कि मुँह उठाया और चल पड़े।
आप देखते हैं कि बड़ी-बड़ी नौकरियों की प्रतियोगिताएँ होती हैं। लगने वाले बड़े लोगों के ही बेटी, बेटे, साले, जंवाई होते हैं। कहाँ आ पाते हैं इनमें सामान्य लोग ! फिर यह ढोंग क्यों ? उन्हें पहले ही वहाँ यह पट्टी लगा देनी चाहिए “यह आम रास्ता नहीं है। मजबूरन आप कोई दूसरा रास्ता तलाशेंगे। इस रास्ते पर चलने के लिये आपका खास आदमी होना जरूरी है। प्रजातंत्र है तो सिर पर बिठालें ! खास पदों लिये खास आदमियों की ही जरूरत होती है, अन्यथा आप में और खास लोगों में क्या फर्क रह जायेगा ।
जब भी कोई खास आदमी कहीं जाता है तो उनके लिये खास मार्ग का निर्माण किया जाता है अथवा उस वक्त आम रास्तों को खास रास्तों में बदल दिया जाता है। (यह आम रास्तों के लिये गौरव की बात है) आगन्तुक चाहकर भी आम रास्तों पर नहीं जा सकता वहाँ उन्हें खतरा अधिक होता है। फिर यदि विशिष्ट व्यक्ति आम रास्ते पर चलने की हठ करता है तो सारा अमला उसके साथ जाता है। वैसे क्या यह कम अचम्भे की बात नहीं है कि आम रास्तों पर खास आदमियों को खतरा है। शायद यह अधिकारों के अतिक्रमण जैसी ही कोई बात होगी।
जब कभी प्रधान मंत्री राष्ट्रपति या अन्य कोई विशिष्ट व्यक्ति किसी खास कारण से दौरा करता है तो दौरा कार्यक्रम तैयार करने वाले सर्वप्रथम यह कोशिश करते हैं कि आगन्तुक वही कुछ देखे जिसे नौकरशाह दिखाना चाहते हैं। जब प्रधानमंत्री अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने जाते हैं तो राज्य सरकारों द्वारा रातों-रात राहत कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिये जाते हैं। अभाव ग्रस्त लोग जानते हैं कि दौरा कार्यक्रम खत्म होते ही राहत कार्यक्रम भी खत्म हो जायेंगे। इस बात को वे लोग प्रधानमंत्री को लाख समझाने की कोशिश करें किन्तु उनकी सुने कौन ! क्योंकि प्रधानमंत्री भी यदि खास लोगों की खास बातें न सुने तो उन्हें भी आम आदमी बनने में देर नहीं लगती !
सुना है कि पुराने जमाने में राजा-महाराजा अपनी रियाया का दुःख दर्द जानने के लिये अपने चाटुकारों और दरबारियों पर आश्रित न रह कर आम आदमी का वेश बनाकर आम आदमी से आम रास्तों पर मिलते-जुलते थे और तब वह स्वयं झूठ का पर्दा फाश कर सत्य का साक्षात्कार लोगों से करवाते थे किन्तु अब स्थिति ठीक उसके विपरीत है। सच्चाई मिटाने के लिये साक्ष्य समाप्त कर दिये जाते हैं। आम आदमी तो सच्चाई जानते हैं किन्तु सरकारी तंत्र उसे नकारता है। लगता है आम आदमी का हित सोचना आज की राजनीति का आम रास्ता नहीं है। धन्य है प्रजातंत्र !
“यह आम रास्ता नहीं है” का सूचनापट्ट पढ़कर मैं इसे लगाने वाले लोगों की सत्यनिष्ठा के प्रति कायल हो जाता हूँ। खास रास्तों पर जाकर आम आदमी की दुर्गति अधिक होती है। कोई एकाध सिरफिरा या भाग्यवान उस मार्ग से निकल भी जाये तो दूसरों को उनके पीछे चलने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। वरना स्थिति कोलम्बस जैसी हो जायेगी जो खोजने तो निकला था भारत का “आम रास्ता” और भटक कर खोज निकाली नई दुनिया’। वही नई दुनिया’ जिसे आजकल अमरीका कहते हैं जो गरीब और अविकसित तथा विकासशील देशों को हथियार सप्लाई करके अथवा आर्थिक सहायता कर के युद्ध द्वारा आम रास्ता खोजने को प्रेरित करता है।
मैं जब बेकारों की भीड़ देखता हूँ तो सोचता हूँ कि अवश्य ही इन लोगों ने खास रास्तों पर चलने का संकल्प किया है अन्यथा पढ़ाई पर इतना व्यय करने के बजाय क्यों नहीं कोई काम-धंधा किया ? कम से कम भूखों मरने की नौबत तो न आती। लेकिन वे नौकरी को आम रास्ता समझने की भूल कर बैठे।
आम रास्तों पर खास आदमी चाहे अकेले चलें अथवा अपने सुरक्षाकर्मियों सहित आम आदमी तो उन्हें कौतुक की दृष्टि से ही देखता है। खास आदमी जब आम रास्तों पर चलता है तो अपने दाँये बाँये जुड़ी दर्शनार्थी भीड़ को देखकर पुलकित होता है गर्व से फूल उठता है। जबकि आम आदमी खास राहों पर चलता है तो वह भयभीत भी रहता है तथा हीनता का बोध उसे लगातार कुरेदता रहता है। मजे की बात तो यह भी है कि वे खास रास्ते आम रास्तों से छोटे हैं।
आम आदमी जितनी मेहनत और कोशिश आम रास्ते पर चलते हुए करता है उससे आधी भी खास रास्तों पर चलने वालों को नहीं करनी पड़ती। वैसे तरक्की करने के लिये आजकल आम रास्ता घटिया और संदिग्ध है। वहाँ भीड़ में चलते हुए कोई भी आपके आगे टांग अड़ा सकता है। जब तक आप संभलें और उसे ‘घोबी पाट’ से चित करें तब तक वह खास मार्गों द्वारा यथास्थान तक पहुँच चुका होता है। वैसे भी यह विडम्बना कही जायेगी कि अधिकाधिक “अवरोधक भी आम रास्तों पर ही बने होते हैं जबकि खास रास्ते सीधे, सपाट और निरापद होते हैं। (खास लोगों के लिए लेकिन आम आदमी की पहुँच से दूर) उनके किनारों पर मोटे-मोटे अक्षरों में सूचना पट्ट लगा होता है, “यह आम रास्ता नहीं है”
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