अदब की बातें : सदीक के गीत, हिंदी की रीत, दुकानें साहित्य की
“उनसे एक बार जब पूछा कि आप उर्दू जुबान के आदमी हैं और राजस्थानी में इतनी शिद्दत से लिखते हैं, उसकी वजह। तो उन्होंने बताया कि मेरी माँ को राजस्थानी ही आती है और वही मुझे इस भाषा की कहावतें, लोकोक्तियां सिखाती है…”
जरा देखो इधर क्या हो रहा है…
11 सितम्बर का दिन बीकानेर की अदब की दुनिया के लिए बहुत मायने रखता है। ये दिन बीकानेर के लाडले कवि स्व मोहम्मद सदीक के जन्म का दिन है। उनकी जयंती पर हर जिंदा अदबी आदमी ने उनको याद किया और अपनी तरफ से सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लिखा। राजस्थानी के इस कवि को बीकानेर का बच्चा बच्चा जानता था और कवि के रूप में देश जानता था। देश के कई कवि सम्मेलनों में इस कवि ने बीकानेर व राजस्थानी का मान बढ़ाया।
मधुर कंठ तो था ही, साथ ही गीतों का कंटेंट भी आम आदमी से जुड़ा। उसकी अभिव्यक्ति में माटी की रची बसी लोकोक्तियां होती थी। उनसे एक बार जब पूछा कि आप उर्दू जुबान के आदमी हैं और राजस्थानी में इतनी शिद्दत से लिखते हैं, उसकी वजह। तो उन्होंने बताया कि मेरी माँ को राजस्थानी ही आती है और वही मुझे इस भाषा की कहावतें, लोकोक्तियां सिखाती है।
कमाल है, सच में राजस्थानी मां बोली है, ये सदीक साहब ने साबित किया। उनके गीत उनके जाने के बाद भी लोग गुनगुना रहे हैं, ये उनके मायड़ की अनमोल सेवा का नतीजा है। जो बात मायड़ भाषा में सम्भव है, वो दूसरी किसी भाषा में नहीं। इस भाषा की ताकत से कोई इंकार नहीं कर सकता। अफसोस तो इस बात का है कि 12 करोड़ लोगों की इस भाषा को न तो केंद्र सरकार संवैधानिक मान्यता दे रही है और न राज्य सरकार इसे दूसरी राजभाषा बना रही है। सदीक साब के बहाने फिर राजस्थानी मान्यता की बात याद आई। वे भी मान्यता आंदोलन के हरावल थे। उनकी स्मृति भाषा की गरिमा को सदा याद दिलाती रहेगी।
हिंदी की फिर रस्म अदायगी :
आज हिंदी दिवस है। इसे राजभाषा बनाया गया ताकि संपर्क में सहूलियत रहे। हर प्रदेश अपनी मातृभाषा को तो पोषित करता रहे, साथ ही इस संपर्क भाषा का उपयोग सरकारी कामकाज में करे। देश भर में आज के दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़ा मनाया जाता है। अखबारों में फोटू छपते हैं, बड़ी बड़ी खबरें छपती है।
अन्य जगहों की तो मालूम नहीं मगर बीकानेर में भी हिंदी दिवस की रस्म निभाई जा रही है। सरकारी स्तर पर ही सही, रस्म पूरी हो रही है। मजा तो तब आया जब हिंदी दिवस में एक जगह वो व्यक्ति हिंदी की महानता पर बोल रहा था, जिसकी हिंदी ही शुद्ध नहीं।
हिंदी का छोटा ही है मगर वो इतिहास भी पता नहीं। सुनने वाला कोई नागरिक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी नहीं। कार्मिकों को तो सुनने की बाध्यता है। उनका भी भला तब होता जब बोला शुद्ध जाता, भाषा की बारीकियां बताई जाती। मगर रस्म निभाने की बात हो तो इन सबका कौन ध्यान रखे। प्लीज, हिंदी भले ही संपर्क भाषा है, मगर उसके दिन को तो उत्सव बनाओ, रस्म मत निभाओ। इन आयोजनों से सरकारी अमला क्यों बड़े हिंदी लेखकों को नहीं जोड़ पाता, क्या वजह है, इस पर क्या आला अफसर सोचते भी नहीं। उनको तो ध्यान देना चाहिए। नहीं तो हिंदी दिवस की रस्म इसी तरह निभाई जाती रहेगी। लोग यूं ही इससे विमुख रहेंगे।
म्हनैं घड़गी अर बाड़ मांय बड़गी
साहित्य में स्वयंभू लेखकों की बाढ़ तो पहले से ही थी। पहले तो लोग स्वतः ही कवि, लेखक, कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, आलोचक बनते थे और बन रहे हैं। अब तो बात इन स्वयंभू लोगों की काफी आगे बढ़ गई है। वे तो भाषा के ठेकेदार, आयोजन के कर्णधार, कौन लेखक इसका सर्टिफिकेट देने वाले विवि के वीसी तक भी बन गए हैं।
ये चाहे जिसे लेखक से खारिज कर देते हैं, चाहे जिस पर गुटबाजी का आरोप मढ़ देते हैं, चाहे जिसको शेक्सपियर से बड़ा लेखक बता देते हैं। मन को जो जचे और जिसमें उनका फायदा हो, वो फतवा जारी करने में देर भी नहीं लगाते। सोशल मीडिया तो बेचारा है, जो लिखे उसे कैसे रोके, इसलिए उसी पर अपने फतवे जारी करते हैं। भले ही खुद को बड़ा लेखक बताने की बात हो। जब बात बिगड़े या इनके अहम की तुष्टि हो जाये तो उस पोस्ट को हटा भी लेते हैं। भगवान बचाये स्वयंभू लेखकों, आलोचकों वीसीयों से। अदब का कुछ तो ख्याल रखो है महापुरुषों। अपनी डफली बजाओ, प्रसाद पाओ।