Skip to main content

बादल का कबीराना : जिन “नई खोजा, तिन नहीं पाया” और रह गई “जल में मीन पियासी !”

“जिस दिन भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा उस दिन दुनिया भर का अधिकांश साहित्य निरर्थक हो जायेगा…”
(डॉ.मंगत बादल के इसी व्यंग्य से)


कबीर को पढ़ता हूँ तो लगता है कि कबीर के जमाने और आज के जमाने में विशेष अन्तर नहीं है। कबीर की जिन उक्तियों केा हम ‘उलट बंसी’’ का नाम देते हैं वास्तव में वे उनके सामाजिक अनुभव हैं जिन्हें उन्होंने रूपकों के माध्यम से चित्रित किया है, ये उक्तियाँ आज भी उतनी ही सच हैं जितनी स्वयं कबीर के युग में। बहरहाल इसी उक्ति को लें..

"जल में मीन पियासी,
मोहे सुन-सुन आवत हाँसी।"

जल में रहकर भी मछली प्यासी है। बात तो हँसने की है। मूर्ख मछली जल पी नहीं रही और कह रही है प्यासी मर रही हूँ, तो ऐसी बात पर हँसे न तो क्या करें ? रोयें ?

सम्पत लाल के बेटे जैसे “मीन पियासी” : 

सेठ सम्पत लाल अपने इकलौते पुत्र को किसी भी कीमत पर इन्जीनियर बनाना चाहते हैं। उनका विचार है कि गेहूँ, चावलों आदि में मिलावट करने से सीमेंट में रेत मिलाकर सरकारी बिल्डिंग बनवाना अधिक फायदेमंद है किन्तु पुत्र है कि इंजीनियरिंग की परीक्षा में ही उत्तीर्ण नहीं हो रहा। लगातार तीसरा वर्ष है। सेठ जी बडे़ दुःखी हैं। कबीर कहते हैं कौन समझाये सम्पत लाल को ! मूर्ख भारत में बहुत से ऐसे इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जो लाख दो लाख रुपए लेकर उत्तीर्ण कर देंगे।

सेठ है कि लड़के को बार-बार परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। लड़का हर वर्ष पिछले वर्ष से पिछड़ जाता है। जबकि सेठ यदि पहले साल ही कोशिश करता तो लड़का पाँच वर्ष के प्रशिक्षण समय में से अब तक तीन वर्ष पूर्ण कर चुका होता। इसीलिए कबीर कहते हैं- जल में मीन पियासी !

बजरंगलाल ने “खोजा और पाइया” : 

अनूप लाल जी ने तृतीय श्रेणी के अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की थी। अब वे तरक्की पाते-पाते वरिष्ठ अध्यापक बन गए हैं किन्तु उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनका पुत्र कॉलेज का प्रवक्ता बने। पुत्र ने भी अच्छे अंक लेकर एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में पीएच.डी‐ भी कर ली। दो बार लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार दे चुका है लेकिन नहीं चुना गया।

जबकि अनूपलाल के साथी अध्यापक बजरंग लाल ने केवल एम.ए‐ पास अपने एक सुपुत्र और सुपुत्री को राजकीय महाविद्यालय का प्रवक्ता बनवा भी दिया। उन्होंने केवल यही किया था कि उचित माध्यम द्वारा आयोग के एक सदस्य को निधर््ाारित शुल्क पहुँचा दिया। नियुक्ति मिल गई। कबीर सिवाय इसके क्या कहते-जल में मीन पियासी। बेकारों की बढ़ती भीड़ को देख-देख कर मुझे हँसी आती है। क्यों नहीं ये लोग मास्टर बजरंगलाल की भाँति उचित माध्यम ढूँढ़ते ! कौन कहता है इस देश में नौकरियों की कमी है ? कमी है तो खोजने वालों की -जिन खोजा तिन पाइया! कबीर पहले कह ही चुके हैं।

बाबू राम भरोसे तीन महीने बाद मिले। अब की बार उनका स्वास्थ्य भी कुछ गिर गया था। मैंने उनसे पूछा कि क्या बात है बरखुदार ! दिखाई नहीं दे रहे पिछले दिनों से! उन्होंने बतलाया कि उनका तबादला बहुत दूर हो गया है। बड़ी कोशिश की, किसी नजदीक जगह के लिए; किन्तु कुछ नहीं हुआ। बच्चे यहाँ हैं, वे वहाँ हैं ! बडे़ निराश और उदास थे! मुझे उन पर दया आ गई। मैंने उन्हें एक उचित ‘‘सोर्स’’ का पता और फीस बताते हुए कहा कि यदि वे तबादला चाहते हैं तो उनसे मिल लें। चार दिन बाद राम भरोसे जी हमारे घर मिठाई का डिब्बा लेकर आए और गद्-गद् भाव से बोले- बचा लिया यार! दो हजार ज्यादा तो लगे पर रुका हुआ प्रमोशन भी हो गया। अब आप सिवाय कबीर के शब्दों के और क्या कहेंगे!

हमारे देश में अध्ािकतर लोग पिछडे़ हुए, अशिक्षित और निधर््ान हैं। पिछडे़पन और अशिक्षा का मूल कारण निर्धनता ही है। कभी आपने सोचा है कि लोग गरीब क्यों हैं ? सरकार की तरफ से तो ‘‘गरीबी हटाओ’’ के अनेक प्रयास अनेक वर्षों से हो रहे हैं।

इतने बैंक हैं कि किसी से भी सुविधापूर्वक ऋण लिया जा सकता है। एक सरकार ऋण देगी। दूसरी माफ कर देगी। बैंको को ऋण देकर अपना लक्ष्य पूरा करना है! तो गरीब क्यों नहीं लेते ऋण? लेकिन नहीं लेते! शायद उन्हें भय है कि ऋण न लौटाये जाने की सूरत में कुर्की वारंट, पुलिस, कचहरी ! ऐसे लोगों को कौन समझा सकता है! यदि वे निर्धन ही बने रहना चाहते हैं तो! अभाव है नही,ं कृत्रिम रूप से पैदा किया जा रहा है। जल में मीन पियासी !

एक ओर बाढ़ की तबाही मची हुई है देश में, दूसरी ओर सूखे से फसलें जली जा रही हैं। पीड़ित व्यक्तियों के लिए सरकार राहत कार्यक्रम तो प्रतिवर्ष खोल सकती है किन्तु ऐसा कोई प्रावधान नहीं कर सकती जिससे बाढ़ के जल का लाभ सूखाग्रस्त क्षेत्रों को मिल जाये। क्योंकि जिस दिन सिंचाई के ऐसे साधन हो गए कि बाढ़ का जल सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पहुँचने लग जायेगा, कैसे कह सेकेंगे कबीर-जल में मीन पियासी ! जिस दिन भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा उस दिन दुनिया भर का अधिकांश साहित्य निरर्थक हो जायेगा। मानवीय सम्बन्धों के बीच में जब पारस्परिक स्वार्थ की बू नहीं रहेगी। एक व्यक्ति दूसरे का सहयोग करेगा। दूसरे के सुख-दुःख को व्यक्ति अपना सुख-दुःख मानने लगेगा उसी दिन मैं समझूँगा कि कबीर की इस शब्दावली का अर्थ कोई आध्यात्मिक भी है। भूखे पेट वालों के लिए आध्यात्मिकता कोई माने भी नहीं रखती तथा न मैं इस बात पर सहमत होता कि कबीर भूखे पेट भक्ति करने वालों में थे। वे भी इतना तो चाहते ही थे जिसमें कुटुम्ब ‘‘समा’’ जाये और ‘‘साधु’’ भी भूखा न जाये।



शास्त्री कॉलोनी,रायसिेहनगर-335051

मो. 94149 89707