कोई लौटा दे वो बीते हुए दिन..आ फिर उलझें बेलाग बहस में, हँसे ठठाकर इक-दूजे पर..
RNE, BIKANER.
साहित्य व संस्कृति से जुड़ी कोई संस्था लंबा सफर तय कर ले, ये कम ही होता है। वो भी जीवंत रहकर जीये, ये तो असंभव बात होती है। बीकानेर इस मामले में धनवान समझा जाना चाहिए। यहां उत्तर भारत की सबसे चर्चित ऐसी संस्था है ‘ श्री जुबिली नागरी भंडार ‘। सरस्वती का मंदिर और समृद्ध पुस्तकालय। रोज आने वालों की संख्या भी सैकड़ों।
वो संस्था जिसमें नामवर सिंह, अज्ञेय, केदारनाथ सिंह जैसी देश की बड़ी साहित्यिक विभूतियां आई हो और मान बढ़ाया हो। इस संस्था की साहित्यिक पहचान हिंदी, राजस्थानी व उर्दू साहित्य जगत में है। पूरे देश के रचनाकार इसे जानते हैं, पहचानते हैं।
एक समय था जब शाम के वक्त यहां हरीश भादानी, मोहम्मद सदीक, डॉ नंदकिशोर आचार्य, बुलाकी दास बावरा, अजीज आजाद, भवानी शंकर व्यास ‘ विनोद ‘, धनंजय वर्मा, मस्तान, शमीम साहब जैसे नामचीन लोग बैठते थे। उच्च साहित्यिक चर्चाएं किया करते थे। गिरधारी लाल व्यास, हरप्रसाद बगरहट्टा, विद्यासागर आचार्य, दिवाकर शर्मा, नंदकिशोर सोलंकी जैसे व्यवस्थापक इनकी सहूलियत का ध्यान रखते थे। ये साहित्यकार यहां बैठकर समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर बिना लाग लपेट चर्चा करते थे।
उत्तेजक व गर्मागर्म बहस होती थी, मगर मनभेद कभी नहीं होता था। इस परिसर में पुस्तकालय के अलावा कला दीर्घा, ऑडिटोरियम भी है। जहां आयोजन करना हर कोई अपने लिए गर्व की बात मानता है। देश, प्रदेश व शहर की हर छोटी बड़ी घटना पर यहां पूर्वाग्रह रहित बात होती थी। साहित्य की नव पौध का सम्मान होता और उस पर चर्चा होती थी। यूं कहना चाहिए कि यहां हर समय सरस्वती कलकल बहती साफ नजर आती थी।
अब भी वो प्रयास नंदकिशोर सोलंकी करते थकते नहीं। संस्था की तरफ से हर बसंत पंचमी पर साहित्यिक, सांस्कृतिक आयोजन करते हैं। यहां आने वाले हर भाषा के साहित्यकार, कलाकार का आदर करते हैं। मगर अब पहले जैसी बहस नहीं होती, जो शहर के साहित्य को ऊंचाई देती थी। जिसके बारे में लोग जानने को उत्सुक रहते थे कि नागरी भंडार में इस पर क्या कहा गया।
साहित्य में खरपतवार बढ़ी है, उसका एक कारण ये भी है कि नागरी भंडार जैसी साहित्यिक चर्चाएं अब बंद हो गई। ऐरा गैरा भी अब तो साहित्यकार बनकर अकड़ता फिरता है, क्योंकि उसे कोई बताने वाला नहीं है कि तुम्हें कुछ नहीं आता।
नंदकिशोर सोलंकी कई बार दर्द जताते हुए कहते भी हैं कि कवि तो पहले के थे, जिनको सुनने लोग बड़ी संख्या में चलकर आते थे। आज तो अपनी दुकान खोल आयोजन लोग कर लेते हैं और 10-20 लोग भी नहीं आते। बस, खबर छपवा लेते हैं। उनका दर्द वाजिब है। उन्होंने नागरी भंडार में वो दौर देखा है जब लोग चलकर अपनी पसंद के साहित्यकार, कवि से मिलने आते थे। अब तो वो स्थिति नहीं। जैसे नागरी भंडार व उससे जुड़े लोगों का मौन गा रहा हो….…
कवयित्री चंचला ने बढ़ाया मान
पं रमाविलास सेवा संस्थान व मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इसी महीनें ‘ विंध्य मैकल साहित्य उत्सव 2024 ‘ का आयोजन किया। इस राष्ट्रीय आयोजन की अपने मे खास पहचान है। राष्ट्रीय स्तर का आयोजन हो और उसमें बीकानेर की भागीदारी न हो, ये तो असंभव है। इस बार बीकानेर का मान बढ़ाया लाडली बहन डॉ चंचला पाठक ने।
इस बड़े आयोजन में डॉ चंचला ने रचनाकार के रूप में भगोदारी की और हम सबको गौरवांवित किया। डॉ चंचला हिंदी की गम्भीर कवयित्री है। उनकी कविताओं में एक दर्शन होता है जिसके कारण वे कवियों की भीड़ में अपना अलग और विशिष्ट स्थान बनाती है। उनकी कविताओं की खासियत ये होती है कि हम लाख कोशिश कर लें मगर किसी भी रचना में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं दिखता। मतलब वे शब्द का उपयोग मितव्ययता से करती हैं। व्यर्थ में शब्दों का आडंबर खड़ा नहीं करती। यही तो एक सफल कवि की पहचान होती है। अकूत शब्द भंडार होने के बाद भी उनका सही उपयोग, डॉ चंचला की कवि के रूप में विशिष्टता है। बीकानेर का गौरव बढ़ाने पर डॉ चंचला पाठक को बधाई। पूरे बीकानेर के साहित्यिक जगत को उन्होंने बड़ी खुशी दी और गौरवांवित होने का एक अवसर दिया।
ओ कुण, म्हें तो जाणा ई कोयनी
हर शहर की तरह बीकानेर में भी कई स्वयम्भू साहित्यकार है जो ये मानते हैं कि वो जितना जानते हैं, साहित्य की दुनिया उतनी ही है। अगर कोई उनके ज्ञान में नहीं है और नाम भी पता नहीं है तो फिर वे उसे साहित्यकार भी नहीं मानते। तुरंत कह देते हैं, ये कौन, इसका तो कभी नाम नहीं सुना। आपके मित्र होंगे, इस कारण आप जिक्र कर रहे होंगे। हम तो पूरे साहित्य जगत को जानते हैं। हजारों किताबें पढ़ी है। रोज अखबार देखते हैं। कभी नाम ध्यान में नहीं आया।
उनके साथ दिक्कत यही है कि वे अपने, अपने परिवार के व अपने चेले लेखकों के अलावा किसी को जानते ही नहीं। अखबार में भी उन्हीं का नाम पढ़ते हैं। क्यूंकि वे ही उनका नाम छपवाते है। क्योंकि इनको छपास रोग की महामारी है। इस कारण जो अखबार की खबरों में न छपे, वो साहित्यकार कैसे? इनके साहित्य व साहित्यकार का पैमाना अखबार की खबरे है। पुस्तकें या मौन साधना, चिंतन नहीं। वाह रे महामारी के शिकार मित्रों, आपसे पूरी सहानुभूति है।
मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘ के बारे में