मंगलजी की पहली बात- जो ग्लैमर के लिए रंगमंच चाहता है वो प्रशिक्षण शिविर में ना आएं!
बीकानेर रंगमंच : अभिषेक आचार्य
इंडिया रेस्टोरेंट की उस शाम को बीकानेर का रंगमंच कभी नहीं भूलेगा। वो स्वर्णिम शाम थी और उसने एक इतिहास की रचना की थी, जिसके कारण ही आज बीकानेर भारतीय रंगमंच में अपना सिर गर्व से खड़ा किये हुए है।
प्रदीप जी चाय के लिए दूसरी बार बंद मुट्ठी में पैसे एकत्रित करके मेघु को चाय का आर्डर दे चुके थे।विष्णुकांत जी, मनोहर जी, जगदीश जी, एस डी चौहान जी, बुलाकी शर्मा जी, आशुतोष कुठारी जी, चांद जी, आनंद वी आचार्य, मधु आचार्य सहित अनेक रंगकर्मी अब मंगल सक्सेना जी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
आखिरकार मोहन शर्मा जी की बाइक पर बैठकर मंगल जी आये। चेहरे पर खिचड़ी दाड़ी और हल्की मुस्कान। आंखों में एक आकर्षक चमक। चेहरे पर तेज। देखते ही यूं लगता था जैसे कोई बड़ा विद्वान आ गया। उनको देखकर सभी खड़े हो गये। उनका चरण स्पर्श किया। उन्होंने एक एक करके सबसे परिचय लिया। कुछ तो उनसे पहले मिल ही चुके थे।
प्रदीप जी ने चाय जल्दी लाने का कहा। चाय आ गई और उसके साथ ही गम्भीर रंगमंचीय बात आरम्भ हो गई। मंगलजी ने बोलना शुरू किया
“नाटक एक दायित्त्व के बोध के साथ ही करें तो उसकी उपयोगिता है। क्योंकि ये समाज के लिए होना जरूरी है। समाज हमसे कुछ अपेक्षा करता है और उस पर खरा उतरना हमारा धर्म है।”
लगभग सभी ने उनकी बात पर सहमति दी। वे आगे बोलना शुरू हुए “जो ग्लैमर के लिए रंगमंच करने आना चाहता है वो कम से कम हमारे प्रशिक्षण शिविर में न आये। जिसे वाह वाही पानी है, अपने लिए तालियां बजवानी है, वो भी इस शिविर से दूर रहे। उनके लिए दूसरी कई जगहें है, उनको पता न हो तो मैं बता दूंगा। मदद भी कर दूंगा। वे भी मेरी मदद करे और इस पुनीत रंग शिविर से दूर रहें। आप मे से भी जिसको इस बात से असहमति हो वो बता दे। पहले से ही सब कुछ साफ रहे।”
एक भी व्यक्ति ने असहमति नहीं दी। प्रदीप जी हमेशा मुखर रहते हैं तो वे जरूर बोले “हमें यदि ये शौक होते तो पहले से ही फिल्में, टीवी आदि की तरफ जाते। हमारा लक्ष्य तो नाटक करना है, हम केवल वही करना चाहते हैं। अच्छा करेंगे तो लोग अपने आप तालियां बजा देंगे।”
उनकी बात पर मंगल जी मुस्कुराये। अच्छी लगी उनको बात। तब मनोहर पुरोहित कलांश बोले ” कलाओं को पूजा मानना चाहिए। इसमें ग्लैमर को कोई स्थान ही नहीं मिलना चाहिए। हमारे देवताओं ने इस काम को शुरू किया था। इस कारण ये पवित्र काम है। इसे करके हम सेवा का धर्म निभाते हैं।”
मंगलजी उनकी इस बात से काफी खुश दिखाई दिए। अब बोलने की बारी विष्णुकांत जी की थी। वे बोले “आधुनिक युग में नाटक हमारी अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम है। इसके जरिये हम समाज की बुराईयों पर प्रहार कर सकते हैं। मजदूर, किसान, गरीब की आवाज उठा सकते हैं। लोगों को जगा सकते हैं ताकि वो अपने हक के लिए संघर्ष कर सकें।”
उनकी बात को मंगलजी गौर से सुन रहे थे। सभी लोग उनसे सहमत दिखे। चुप रहकर कही गई बात पर मनन कर रहे थे। तब मंगलजी ने बोला “विष्णुकांत जी की बात बिल्कुल ठीक है। ये काम भी नाटक करता है। बस, ध्यान रहे विचार के साथ मनोरंजन भी हो। क्यूंकि अंतोतगत्वा नाटक दर्शक का रंजन ही करता है। उसके कारण ही वो खड़ा रहता है। हमें हर काम दर्शक को केंद्र में रखकर करना चाहिए। तभी नाटक सफल भी हो सकता है। यदि हम रंजन छोड़कर केवल विचार थोंपने की कोशिश करेंगे तो दर्शक भाग जायेगा। उसे वह नाटक नहीं भाषण लगेगा। इस बात का हमें जरूर ख्याल रखना होगा।”
मंगलजी ने गंभीर बात कही। सभी के गले उतरने वाली बात थी। क्योंकि नाटक होता तो दर्शक के लिए ही है, वो ही सदा केंद्र में रहना चाहिए। एस डी चौहान साहब ने बोलकर इस बात का समर्थन किया “आपने सही कहा। हमें मंच पर जाते समय सदा अपने दर्शक का ध्यान रखना चाहिए। उसे भूलकर यदि हम कुछ करेंगे तो वो बेमानी होगा।”
वातावरण अब काफी भारी हो गया था। क्योंकि बात नाटक के ध्येय तक पहुंच गई थी। इस तरह की गम्भीर बात नाटक को लेकर बहुत कम ही हो पाती थी। इस वातावरण को हल्का करने के लिए प्रदीप जी के बोल गूंजे “मेरे ख्याल से अब एक बार हमें बातों को विराम देना चाहिए और चाय पीनी चाहिए।”
सब हंसने लगे। मंगलजी बोले “साथ में मोटे भूजिये भी हो। जिनको आप करोड़पति भूजिये कहते हैं।” सब हंसने लगे।
चर्चा के भागीदार रहे प्रदीप भटनागर की नजर में :
“उस दिन पहली बार रंगमंच के ध्येय पर गम्भीर बात हुई। नाटक में विचार की प्रधानता होनी जरूरी है मगर रंजन भी जरूरी है। क्योंकि हमारा लक्ष्य दर्शक होता है। इस कारण नाटक में वही आये जो प्रतिबद्धता रखता हो। अपना ग्लैमर का जिनको शौक हो वे दूसरे जरिये में जाये। आज भी स्थिति बुरी है। लोग दूसरे माध्यमो में जाने के लिए नाटक को सीढ़ी बनाते हैं, दरअसल वे नाटक का नुकसान करते हैं। इस वृति वालों को सच्चे रंगकर्मी हाथ जोड़ दें तो रंगमंच का भला होगा।”
प्रदीप भटनागर