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स्कूली किताबों से कितना दूर बाल साहित्य, कैसे लाएं नजदीक

  • शिक्षा और बाल साहित्य : कितना दूर कितना पास

RNE Special.

“बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे”

निदा फाजली जब ये कहते हैं तो हमारी किताबों यानि शिक्षा से नदारद बाल साहित्य का दर्द झलकता है। सवाल उठता है क्या किताबों में ऐसा कुछ है जिससे बच्चों में उन्हें पढ़ने की ललक जगे। सवाल इसलिए क्योंकि शिक्षा को साहित्य से पृथक करके नहीं देखा जा सकता। दरअस्ल दोनो का उद्देश्य जीवन में जीवन की खोज करना ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो कहीं ना कहीं शिक्षा का उद्देश्य बालक में संवेदनशीलता का विकास करना हो ही जाता जो कि साहित्य का भी उद्देश्य है। बहरहाल हम साहित्य की बात करते हैं तो हमारे पास एक विशाल फलक उपस्थित हो जाता है। लेकिन जब हम शिक्षा में बाल साहित्य की बात करते हैं तो फलक अत्यन्त छोटा सा हो जाता है। जब हम बाल साहित्य को देखते हैं तो यह केवल शिक्षा देता ही नजर आता है। आखिर बाल साहित्य शिक्षा है या अच्छे बाल साहित्य का शिक्षा में उपयोग किया जा सकता है। इन्हीं बातों की पड़ताल इस आलेख में की जा रही है।

बाल साहित्य में ‘बाल क्या हो सकता हैः

बाल साहित्य की बात करने से पहले हमें यह जान लेना जरूरी है कि साहित्य के आगे लगे बाल के मायने क्या है? नई शिक्षा नीति में हमारे यहां चल रहे पुराने शैक्षिक ढांचे 10+2 को परिवर्तित कर 5+3+3+4 पूर्व की व्यवस्था में यह 6 से 18 वर्ष की आयु का प्रतिनिधित्व था तो अब नई परिस्थितियों में 3 से 18 वर्ष तक प्रतिनिधित्व करती है। इसके अलावा 1986 का बालश्रम प्रतिरोधक कानून 14 वर्ष तक को बच्चा मानता है। शिक्षा का अधिकार कानून भी 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए बना है। अतः उपर्युक्त का विश्लेषण करें तो हम कह सकते है कि वर्तमान में 3 से 14 वर्ष के आयुवर्ग को बाल माना जा सकता है। यानी बाल साहित्य में जो बाल है वह उक्त आयु वर्ग के लिए लिखा साहित्य कहा जा सकता है?

बाल साहित्य में शिक्षा का घालमेलः

हम बाल साहित्य क्यों लिख जाए? किस लिए लिखा जाए? की पड़ताल करने पर पाते है कि बाल साहित्य के मोटे रूप में चार उद्देश्य हो सकते हैं। बच्चों का मनोरंजन करना,उन्हें जीवन की अबखाईयों से परिचय करवाना, जिस दुनिया में उन्हें प्रवेश करना है वास्तव में वह कैसी है का परिचय करवाना और दुनियादारी की शिक्षा देना हो सकता है। इनमें कुछ ओर जोड़े तो यह भी कह सकते हैं कि बच्चों को रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने में मदद करना।

हम जब अपने आस-पास उपलब्ध बाल साहित्य को देखते तो ज्ञात होता है कि वह अच्छे संस्कार, माता-पिता की आज्ञा पालन, अनुशासन, गुरू का आदर, बड़ों का सम्मान जैसी अवधारणाओं में उलझा नजर आता है। यानी यह इसके चार अन्य उद्देश्य को छोडकर केवल एक शिक्षा देने के उद्देश्य को पकड़ कर बैठ जाता है। इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि बाल साहित्य में शिक्षा का ऐसा घालमेल मिलता है जो नैतिकता का थोथा गुणगाण करता है। दरअस्ल इन बाल साहित्य की पुस्तकों में जो वह पढ़ता है वह उसके आस-पास घटित नहीं हो रहा होता है। एक अंग्रेजी कहावत भी है कि ‘‘एकशन स्पीक लाउडर दैन वर्ड’’। होता यह है कि बच्चा अपने आस-पास उन सब अच्छी शिक्षाओं का विघटन होते देख रहा होता है जो बाल साहित्य उपलब्ध करवा रहा है।

हम बाल साहित्य को देखे तो वह जीवन की अबखाईयों, दुनियादारी की समझ, और मनोरंजन जैसे उद्देश्य से विलग रहता हुआ एक आदर्शीकृत बच्चे की कल्पना करता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बाल साहित्य का आदर्शीकृत बच्चा हमारी पराजित मनोदशा की अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति बाल साहित्य को बाल साहित्य हीं रहने देती। दरअस्ल बच्चे बहुत कुछ नया जानना चाहते है। उन्हें नया-नया सीखना है। उनकी जिज्ञासाओं को शान्त कर सके ऐसा साहित्य उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाता है।

बाल साहित्य में बाल मनोविज्ञान की उपेक्षा उसे पठनीय नहीं बना पा रही है। बाल साहित्य बालोपयोगी यह तो सही है लेकिन वह रुचिकर कैसे बने इसलिए बच्चों की आयुवर्ग के अनुसार उनमें वस्तुएं होनी चाहिए। एक ओर महत्वपूर्ण बात है कि अधिकांश बाल साहित्यकार अपने बचपन के नाॅस्टेलेजिया से बाहर नहीं आ पा रहें हैं।

कैसे हो अच्छे बाल साहित्य का सृजनः

इसके लिए पहला कदम बाल साहित्य को अपने आदर्श ज्ञान देने वाले स्वरूप को टाटा-बाय-बाय कहना होगा। कभी-कभी बाल साहित्य को पढ़ते हुए लगने लगता है कि हम ऐसी बेकार सी होती दुनिया में बच्चों को अच्छा बनाने की जिद्द क्यों पाले बैठे हैं? हम जीवन का सारा अनुशासन उन पर ही क्यों ढोलना चाहते हैं? धैर्य से विचार करें तो हम पाएंगे कि बच्चा जिज्ञासु और प्रश्नाकुल होता है। उसके पास बहुत से प्रश्न है। क्या हम उन प्रश्नों के डर से तो कहीं आदर्श और अनुशासन का मुलम्मा चढी कहानियां उन्हें नहीं कर रहे हैं। अच्छा बाल साहित्य वहीं हो सकता है। जो बच्चों को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करें। उनकी जिज्ञासाओं को रुचिकर ढंग से शमन करें। जो बच्चों के मनोविज्ञान को समझ कर लिखा गया हो। इसमें लेखक अपने बचपन से मुक्त होकर आज के बचपन का अवलोकन कर उस पर चर्चा करें। राजा-रानी की कहानी अब पुरानी है तो हमें वर्तमान के नए राजाओं की कहानी बतानी पड़ेगी। यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए बच्चों को प्रश्नाकुल कर उनके जबाब ढूंढने के लिए प्रेरित करने वाली कविता या कहानी कही जाए। आज के प्रतिमानों और तेजी से बदलती दुनिया की बात बाल साहित्य में वह तभी बच्चा पुस्तक का पहला पन्ना पढ़कर बाल साहित्य की पुस्तक को बंद नहीं करेगा।

विद्यालयों में बाल साहित्य का उपयोग बनाम पाठ्यपुस्तकों का भूतः

इसे समझने के लिए एकलव्य द्वारा प्रकाशित, बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के 300वें अंक के विमोचन अवसर पर एकलव्य द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की श्रंखला में विमोचन की पूर्व-संध्या पर ‘शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका’ विषय पर सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् डाॅ कृष्ण कुमार द्वारा दिए गए वक्तव्य का यह भाग उद्धृत करना उचित होगा- “पाठ्य पुस्तक वह चीज है जो कि हमारी व्यवस्था को उसका औपनिवेशिक चरित्र देती हैं। बाल साहित्य की व्याप्ति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी शिक्षा व्यवस्था का यह चरित्र है कि वह पाठ्य पुस्तक केन्द्रित है और पाठ्य पुस्तक के इर्द-गिर्द ही सारी शिक्षा व्यवस्था घूमती है। अध्यापक का सारा प्रयास उसके आस-पास ही होता है, उसको लेकर ही रहता है। और शिक्षा व्यवस्था की जो धुरी है वो तो बिल्कुल ही पाठ्य पुस्तक से चिपकी हुई चलती हैं। पाठ्य पुस्तक स्वयं परीक्षा व्यवस्था से पैदा होने वाले भावों से आवेशित हो उठती हैं और जो डर परीक्षा के बारे में सोचकर बच्चों को लगता है, वहीं डर शिक्षकों को पाठ्य पुस्तकों को देखकर लगने लगता है। क्योंकि उनको मालूम होता है कि ये वह चीज है जो मुझे उस मेजोरीटी से बात करायेगी। और वहीं चीज है जो पढ़ने का मन नहीं होता लेकिन वहीं चीज है जो मुझे पढ़नी है, पढ़नी तो होती है। तो बच्चे के दृष्टिकोण से अगर आप देखें तो बच्चे के मन में जिस तरह का मंथन चलता होगा इस विषय पर जो बहुत सी चीजो के बारे में समझा जा सकता है कि ये चीज कहां से आई, कैसे हुआ ये मामला कि एक बहुत ही चुनिन्दा चीज का प्रतीक बन गई पाठ्य पुस्तक।“कृष्ण कुमार जी का यह वक्तव्य विद्यालयों में बाल साहित्य क्यों प्रचलन में नहीं आता को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है।

विद्यालयों में बाल साहित्य की उपलब्धताः

इन सब बातों से इतर यदि कोई संस्था प्रधान या शिक्षक विद्यालय में बाल साहित्य का उपयोग करना चाहें तो उसके लिए राह आसान नहीं है। इसे मेरे पर घटित एक छोटी घटना से समझा जा सकता है। गत वर्ष हमारी श्रीमतीजी ने इच्छा जाहिर की वे अपने विद्यालय के छोटे-छोटे बच्चों के लिए कुछ ऐसी किताबें खरीदकर कक्षा में रखना चाहती हैं जो पुस्तकालय की ना हो और कक्षा में बच्चों के सामने पड़ी हो बच्चा जब मन करे उसे हाथ में ले और पढ़े। इसकी खोज में हम बाजार गए तो निराशा ही हाथ लगी। अच्छे चित्रों से युक्त इस तरह की किताबें या तो उपलब्ध नहीं थी जो उपलब्ध थी उनमें वही पुरानी घिसी-पिटी कहानियां थी।

दरअस्ल विद्यालयों में पुस्तकालय की खरीद हेतु पुस्तक खरीदी जाती है। इनमें बाल साहित्य का हिस्सा बहुत कम क्यों होता है? इसका कारण उपर्युक्त बात से समझा जा सकता है। यह भी कि विद्यालयों में पुस्तकों की खरीद हेतु अब कोई वित्तीय सहायता प्रदान नहीं की जाती है। यदि थोड़ा बहुत बजट होता भी है तो केन्द्रिय क्रय के माध्यम से खरीद कर विद्यालयों में पहुंचाया जाता है। इनमें प्रकाषकों से प्राप्त पुस्तकों की समीक्षा करवाने का कोई प्रावधान नहीं होता।

प्रकाशक की पुस्तक चयन समिति को पसन्द आ गई तो वह विद्यालय में जाएगी। चाहे वह बच्चों के लिए उपयोगी हो या नहीं। बहरहाल हम यह कह सकते हैं कि हमारी विद्यालय व्यवस्था में बच्चों की पुस्तकों के लिए कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है।

बाल साहित्य का शिक्षा में क्या उपयोग हो सकता हैः

बहरहाल जो भी हो सीखने के प्रति बच्चे में रुचि जाग्रत करने के लिए कक्षा में बाल साहित्य के उपयोग किया जा सकता है। स्वतंत्र रूप से बाल साहित्य पढ़ने, दोस्तों से चर्चा करने, दोस्तों के बीच बैठकर बाल साहित्य के बारे में बताने, आपस में पूछकर उठी हुई समस्या का समाधान करने जैसी दक्षता का विकास किया जा सकता है। यानी पियर लर्निंग की जानी संभव की जा सकती है।

यह कहना गलत नहीं होग कि बाल साहित्य बाल केन्द्रित शिक्षण हेतु सहभागी की भूमिका अदा कर सकता है। यदि विद्यालय नित-नवीन रोचक बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाए तो उनम स्व-अधिगम एवं आंगिक हाव-भाव से युक्त अभिव्यक्ति दक्षता का विकास होगा। इसके साथ ही बाल साहित्य का उपयोग कक्षा शिक्षण के दौरान भाषाई कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। इस हेतु विद्यार्थियों को बाल साहित्य की कोई कविता या कहानी पढ़ने को दी जा सकती है। तत्पश्चात उस पर कक्षा में चर्चा की जा सकती है। इन सभी से बच्चे एक उत्साही पाठक बन अपने सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने के मूल भाषाई कौबाल साहित्य का शिक्षा में क्या उपयोग हो सकता है

बहरहाल जो भी हो सीखने के प्रति बच्चे में रुचि जाग्रत करने के लिए कक्षा में बाल साहित्य के उपयोग किया जा सकता है। स्वतंत्र रूप से बाल साहित्य पढ़ने, दोस्तों से चर्चा करने, दोस्तों के बीच बैठकर बाल साहित्य के बारे में बताने, आपस में पूछकर उठी हुई समस्या का समाधान करने जैसी दक्षता का विकास किया जा सकता है। यानी पियर लर्निंग की जानी संभव की जा सकती है।

यह कहना गलत नहीं होग कि बाल साहित्य बाल केन्द्रित शिक्षण हेतु सहभागी की भूमिका अदा कर सकता है। यदि विद्यालय नित-नवीन रोचक बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध करवाए तो उनम स्व-अधिगम एवं आंगिक हाव-भाव से युक्त अभिव्यक्ति दक्षता का विकास होगा। इसके साथ ही बाल साहित्य का उपयोग कक्षा षिक्षण के दौरान भाषाई कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। इस हेतु विद्यार्थियों को बाल साहित्य की कोई कविता या कहानी पढ़ने को दी जा सकती है। तत्पश्चात उस पर कक्षा में चर्चा की जा सकती है। इन सभी से बच्चे एक उत्साही पाठक बन अपने सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने के मूल भाषाई कौशलों के विकास करने के साथ-साथ साहित्य में व्याप्त संवेदनशीलता जैसे उच्च मानवीय गुणों का विकास कर पाएंगे।

शिक्षा और बाल साहित्य कितना दूर कितना पासः

उपर्युक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट है कि बच्चों की शिक्षा में बाल साहित्य का उपयोग सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को रोचक बनाकर बाल केन्द्रित शिक्षण के संचालन में मदद करता है। लेकिन पाठ्य पुस्तकों का भूत, अच्छे बाल साहित्य की अनुपलब्धता इसे शिक्षा से दूर करती है। जरूरी यह है कि इस अन्तर को पाटने के लिए ऐसे बाल साहित्य का विकास किया जाए जो शिक्षा देने के आग्रह से मुक्त रहते हुए बच्चों का रंजन करते हुए उन्हें जीवन की अबखाईयों से परिचय करवाए। उन्हें नई नई जानकारियां देने वाला हों। उनकी कल्पनाशक्ति को विकसित करने वाला हो एवं उनके प्रश्नों का शमन नहीं कर उन्हें प्रश्नाकुल करने वाला हों।



डा.प्रमोद चमोली के बारे में:

शिक्षण में नवाचार के कारण राजस्थान में अपनी खास पहचान रखने वाले डा.प्रमोद चमोली राजस्थान के माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत रहे हैं। राजस्थान शिक्षा विभाग की प्राथमिक कक्षाओं में सतत शिक्षा कार्यक्रम के लिये स्तर ‘ए’ के पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकों के लेखक समूह के सदस्य रहे हैं। विज्ञान, पत्रिका एवं जनसंचार में डिप्लोमा कर चुके डा.चमोली ने हिन्दी साहित्य व शिक्षा में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी साहित्य में पीएचडी कर चुके हैं।
डॉ. चमोली का बड़ा साहित्यिक योगदान भी है। ‘सेल्फियाएं हुए हैं सब’ व्यंग्य संग्रह और ‘चेतु की चेतना’ बालकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके है। डायरी विधा पर “कुछ पढ़ते, कुछ लिखते” पुस्तक आ चुकी है। जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम रहे हैं। बीकानेर नगर विकास न्यास के मैथिलीशरण गुप्त साहित्य सम्मान कई पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले हैं। rudranewsexpress.in के आग्रह पर सप्ताह में एक दिन शिक्षा और शिक्षकों पर केंद्रित व्यावहारिक, अनुसंधानपरक और तथ्यात्मक आलेख लिखने की जिम्मेदारी उठाई है।


राधास्वामी सत्संग भवन के सामने, गली नं.-2, अम्बेडकर कॉलौनी, पुरानी शिवबाड़ी रोड, बीकानेर 334003