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मंगत कथन : बस हिम्मत चाहिए.. ‘लूटि सके तो लुटि !’
लूटि सकै तो लुटि
हमारे यहाँ प्रतिभा को या तो लोग पहचानते ही नहीं यदि पहचान भी लेते हैं तो बहुत देर कर देते हैं, तब तक लंका लुट चुकी होती है। पुरस्कार, उपाधियाँ आदि बंटती रहती हैं और प्रतिभायें हाथ मलती बैठी रहती है। कबीर जैसे प्रतिभावान कवि ने भी ऐसी बात सीधे न कहकर प्रतीकों में कही। वे भक्त थे इसलिये उससे पहले राम का नाम लगा दिया। हम उनके शब्दों का अर्थ करने में अपना सिर खपाते रहे और लोग हाथ साफ करके चले भी गये। इन लोगों के बीच आकर तो कबीर जोगी होकर भी ‘जोगड़ा’ होकर रह गये और आन गाँव वाले सिद्ध बनकर बैठ गये। लोगों ने उनकी उक्ति का मतलब समझकर अपने हाथ रंग लिये।
कहावत है लड्डू की हर कोर मीठी होती है यानी कबीर का चाहे कोई सबद हो, पद, साखी या रमैनी, उसका आध्यात्मिक अर्थ के साथ एक लौकिक अर्थ भी होता है। अन्ततः वे कवि पहले थे। जनता के दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति को अपना कर्तव्य समझते थे। उसका एक छोटा सा अंश भी व्यक्ति को सांसारिकता में सफल बना सकता है। कबीर खुद चाहे सांई से मांगते ही रह गये (सांई इतना दीजिये जामे कुटुम समाय। और भक्त जनों ने उनके दो-तीन शब्दों का आचरण कर अपना इहलोक सफल कर लिया। कबीर कहते हैं राम नाम की लूटि है, लूटि सके तो लूटि। इसे सभी ने अपने-अपने दुष्टिकोण से समझने का प्रयास किया।
महाभारत युद्ध में द्रोण-वध की योजना बनाते समय श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा- भीम अश्वत्थामा नामक हाथी का वध करने के उपरान्त जोर-जोर से चिल्लाकर यह अफवाह फैलायेगा “अश्वत्थामा हतः ! अश्वत्थामा हतः । मैंने अश्वत्थामा को मार दिया! मैंने अश्वत्थामा को मार दिया।” द्रोणाचार्य भीम के कथन का विश्वास न कर तुम से अवश्य पूछेंगे। तब तुम्हें प्रत्युत्तर में कहना होगा “अश्वत्थामा हतः । नरो वा कुंजरो वा !” अश्वत्थामा हतः शब्द आपको ऊँचे सुर में बोलने हैं तथा नरो वा कुंजरो वा, धीमे सुर में। इससे तुम्हारे सत्य की भी रक्षा हो जायेगी तथा धृष्टद्युमन की प्रतिज्ञा पूर्ण। थोड़ी जद्दोजहद के बाद युधिष्ठिर मान गये। बाद में रण भूमि में युधिष्ठिर द्वारा अश्वत्थामा हतः शब्द बोलते ही श्रीकृष्ण ने शंख बजा दिया।
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को योजना समझाते बार शंख का कहीं जिक्र ही नहीं किया था। कबीर भक्तों के साथ भी यही हुआ। कबीर जब साखी सुनाने लगे तो पहले चरण में ही किसी उत्साही भक्त ने शंख बजा दिया। वह जरूर कोई नया भक्त ही रहा होगा क्योंकि पुराने तो जानते थे कि साखी पूर्ण होने पर बजाना है। नये भक्तों के साथ यही दिक्कत होती है कि उनमें उत्साह बहुत होता है और वे प्रतीक्षा नहीं कर सकते इसलिये पहले ही बजा दिया। जब शंख बजना बंद हुआ तो भक्तों को केवल यही सुनाई दिया-लूटि सके तो लूटि। पुनः शंख बजने लगा। उन दिनों लूटपाट खूच चलती थी। गुरु का आदेश समझकर भक्त भाग छूटे और लूटपाट में लग गये। शंख लगातार बजता जा रहा है। भक्त लूट में लगे हैं। उन्हें बस इतना ही याद है लूटि सके तो लूटि। इस देश का दरवाजा लुटेरों के स्वागतार्थ शुरु से ही खुला रहा है। नेता, अधिकारी, व्यापारी अपने-अपने ढंग से लूट करने में मस्त और व्यस्त हैं।
देश की आजादी से पूर्व कुछ चिन्तन, मनन करने वालों ने देखा कि अंग्रेज आये तो यहाँ व्यापारी बनकर थे किन्तु अब सत्ता में अपने पाँव जमाते जा रहे हैं। लूट-लूट कर माल अपने देश को भेज रहे हैं। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। ये लूटपाट कर चलते बनते अथवा यहाँ जम गये। ये तो लूटते ही जा रहे हैं। पहलेवालों को तो हमने इसलिये माफ कर दिया क्योंकि वे नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं। नादान थे! कितनी ही धन-माया एकत्र करलें आप अन्त समय में साथ तो लेकर जा नहीं सकते। सब कुछ जब यहीं रह जाना है तो उसके लिये व्यर्थ में क्यों खून-खराबा किया जाये ? जो लोग यहीं जम गये वे तो हमारे ही हो गये। उनसे कैसा झगड़ा ? लुटेरे-लुटेरे भाई-भाई क्योंकि लूट में तो यहाँ के राजा-महाराजा, सामन्त साहूकार भी कम नहीं थे।
अंग्रेज चूंकि लूट-लूट कर अपने देश को धनवान बना रहे थे इसलिये संघर्ष जरूरी था वरना लुटने और लूटने से हमने कभी गुरेज नहीं किया। सन 1857 से 1947 तक अनवरत संघर्ष चला साथ ही लूट भी। अन्ततः हम स्वतन्त्र हुये। लूटपाट लेकिन बाद में भी जारी है क्योंकि लुटना और लूटना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। नेताओं और कर्मचारियों के गठवन्धन को स्वतन्त्रता के बाद लूटने का लाइसेंस प्राप्त हो गया। कई कमाऊ महकमों और शहरों में पोस्टिंग करवाने के लिये अधिकारी पहले स्वयं नेताओं से लुटते हैं फिर उनकी छत्रछाया में दोनों हाथों से जनता को लूटते हैं। जहाँ तक जनता का प्रश्न है वह तो बनी ही लुटने के लिये है। चाहे वे थे चाहे ये हैं। एक तरफ कुआँ दूसरी तरफ खाई। पहले इसे भ्रष्टाचार कहा जाता था आजकल इसे सुविधा शुल्क मानने लगे हैं। पैसे देने पर यदि काम हो जाता है तो उसे भ्रष्टाचार नहीं कहा जाना चाहिये। कानून को धत्ता बतलाते हुये जनता का उल्टे उस्तरे से मुंडन जारी है।
राजस्व विभाग के छोटे से कर्मचारी पटवारी के ठाट-बाट देखकर आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। आजकल ईमानदार अधिकारी खोजना भूसे में सूई खोजने जैसा ही है। चिकित्सा के क्षेत्र में जायेंगे तो डॉक्टर की नकाय के पीछे एक लुटेरे का चेहरा ही दिखलाई पड़ेगा। चिकित्सा की आड़ में उनका व्यवहार संवेदनहीन होता जा रहा है। लोभ रूपी राक्षस का चेहरा देखकर मरीज का आतंकित होना स्वाभाविक है। पश्चिमी देश जो स्वयं को उन्नत और सभ्य कहते हैं आज वहाँ के नागरिक कई प्रकार की चिकित्सा के लिये भारत की ओर दौड़े आ रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं कि उस बीमारी का वहाँ उपचार नहीं है बल्कि इसलिये कि इतना महंगा है कि उनके पास इतने पैसे नहीं होते। दवाओं के क्षेत्र में तो और अधिक धांधली है। एक ही दवाई के मूल्यों में जब जमीन और आसमान का अन्तर दिखलाई पड़े तो क्या कहेंगे लूटि सके तो लूटि !
शिक्षा के क्षेत्र में तो ऐसा आतंक फैला दिया गया है कि माँ-बाप बच्चे के जन्म से पूर्व ही उसका प्रवेश किसी प्रसिद्ध शिक्षण संस्था में करवाने के लिये भागदौड़ करने लगते हैं। दो-दो वर्ष के बच्चों को ‘प्ले ग्रुप’ के नाम से स्कूलों में भेज दिया जाता है। बच्चों से उनका बचपन छीनकर माँ-बाप उन्हें क्या बनाना चाहते हैं यह समझ से बाहर की बात है। पहली दूसरी कक्षा से ट्यूशन शुरु हो जाती है। बच्चा सदैव दबाव में रहता है। उसका स्वाभाविक विकास रुक जाता है। ‘कोचिंग सेंटर’ के नाम पर शिक्षा का जिस प्रकार व्यवसायीकरण हुआ है उसके लिये जिम्मेदार कौन है? अवसाद ग्रस्त होकर बच्चे अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर रहे हैं। इसका दोषी कौन है? दो दिन शोर मचता है फिर सन्नाटा। हमारे नेता कह रहे हैं- भारत जगद्गुरु बनने की दिशा में बढ़ता जा रहा है। इसे क्या करेंगे ? आम आदमी के चरित्र का पतन हुआ है। दूध विक्रेता यूरिया और अन्य पदार्थों से दूध जैसा पदार्थ बेचकर जन स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। खाद्य पदार्थों में जाने क्या-क्या मिलाया जा रहा है। उन पर कोई लगाम नहीं है।
इस बात से संसद भी परिचित है पर क्या कार्रवाही हुई? घी, तेल एवं अन्य सभी खाद्य पदार्थों में मिलावट, जिसे गरीब और अमीर सभी खाते हैं। शुद्ध के लिये युद्ध प्रारम्भ कर जिम्मेदार लोग चाँदी काट रहे हैं। स्वच्छ भारत के बाद स्वस्थ भारत का सपना इसी भाँति पूर्ण होगा? मिलावटियों के लिये भी कानून है किन्तु वहाँ से भी जब वह बच निकलता है तो क्या करेगा आम आदमी। अब हम यदि यह कहें कि हमारा पारम्परिक खान-पान आज से बेहतर था तो लोग आपको पिछड़ा और दकियानूस कहने से नहीं चूकेंगे। जब पूरे समाज के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है और व्यवस्था मौन है तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि उसने कबीर की की साखी का केवल दूसरा चरण ही सुना है-लुटि सके तो लूटि! पहला यदि सुना भी है तो उसे अनसुना कर, भुला दिया है।
लोगों ने जब देखा कि बड़े-बड़े इण्डस्ट्रीयलिस्ट और व्यापारी बड़े बैंकों से हजारों करोड़ का कर्ज लेकर विदेशों में उड़न-छू हो जाते हैं तो बैंक और सरकार टापते रह जाते हैं। जब एक साधारण किसान कुछ हजार का कर्ज लेने के लिये अपने खेत तक बैंक के पास गिरवी रख देता है तो इन भगौड़ों के लिये ऐसा क्यों नहीं है? क्या बैंकों और देश का पैसा इनके बाप का है? क्या यहाँ ऋण देने और दिलानेवालों की कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या जन-धन इनके गुलछर्रे उड़ाने के लिये है? कोई इस व्यवस्था से पूछनेवाला नहीं कि इनके पलायन में किस-किस का हाथ है? उन्हें क्यों नहीं पकड़ा जाता? क्या इन लोगों के लिये अलग कानून हैं? राजस्थानी भाषा में एक किंवदंती है कि किसी घर में चोर घुस आये तो घर की चहू को चोरों को मारने के लिये कहा गया किन्तु वे तो उसके भाई थे। कैसे मारे? (बहू से चाहें चोर मरवाना, चोर बहू के भाई।) किसी ने अधिकारियों, व्यापारियों अथवा नेताओं से पूछा कि आपके पास ये अकूत सम्पत्ति कहाँ से आई? इसका जरिया क्या है? किसी ने हिसाब पूछा? जनता पूछे तो उसे कोई जवाब क्यों देगा? हमाम में जब सभी नंगे हैं तो एक नंगा दूसरे को नंगा कैसे कहेगा? आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं वह सिर्फ नूरा-कुश्ती है। आज तक इन आरोपों से किसी का कुछ विगड़ा हो तो बतलायें। किसी एकाध को सजा हुई भी है तो राजनीतिक विद्वेष के कारण।
कहावत है कि कानून तो वह जाल है जिसमे केवल छोटी मछलियों ही फंसती हैं बड़ी तो अपनी ताकत से जाल तोड़कर बाहर निकल आती हैं। अब जनता भी चालाक होने लगी है। कोई कुएँ में गिरकर मर गया अथवा रेल के आगे आकर कटकर मर गया तो लोग उसका शव लेकर धरने पर बैठ जाते हैं। हमें इसका मुआवजा मिले। घर के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी मिले। इसका लिखित में जवाच मिलेगा तभी लाश उठाई जायेगी वरना बैठे रहेंगे। पुलिस एवं प्रशासन की जान सांसत में। दरअसल जनता समझ चुकी है इसलिये वह चाहती है कि उसे भी इस लूट में हिस्सा मिले। यदि नहीं मिला तो हम प्रशासन ठप कर देंगे। चुनाव में देख लेंगे। नेता सोचते हैं कि हमारे क्या बाप का माल है। मियां की जूती मियां के सिर! खा ले बनिये! ये गुड़ तुम्हारा ही है। वे चुनावी घोषणा में कहते हैं- हम जनता के कर्ज माफ करेंगे। जनता फिर खुश होकर उमड़ पड़ती है। जबकि जनता का कर्ज तो एक भगौड़े से भी कम है। वे फिर सत्ता में आ बैठते हैं। वे ही घोड़े वे ही मैदान। जनता को एक हाथ से दिया था अब दूसरे हाथ से समेटने की बारी है। अथ उनका जनता बिगाड़ भी क्या सकती है। उसकी याददाश्त बहुत छोटी होती है। इसीलिये यह लूट जारी है। आप में हिम्मत चाहिये ‘लूटि सके तो लुटि !’