
अमरसिंह राठौड़ रम्मत: ‘राय भवानी’ से ‘भैरू भलो रे भलो’ तक साढ़े नौ घंटे कलाकारों ने अदायगी से अमरसिंह को जीवंत किया
RNE Bikaner.
रात लगभग 12 बजे माताजी आगमन से शुरू होकर सुबह साढ़े नौ बजे ‘खेजड़ी रो खेतरपाल..’ अरदास तक लगभग साढ़े नौ घंटे चली अमरसिंह राठौड़ की रम्मत ने कलाकारों ने संवाद और अदायगी के जरिये अमरसिंह के जीवन चरित्र को जीवंत कर दिया। कभी बातें सूचनात्मक हुई तो लोग सौंदर्य-श्रृंगार रस में खो गये। कहीं नवाब की हरकतों पर गुदगुदी छूटी तो अमरसिंह-रामसिंह की दिलेरी पर भुजाएं फड़की, तलवारें चमचमाई। इस बीच मित्रता, विश्वासघात सारे रंग खुलकर आये।दरअसल बात हो रही है बीकानेर के आचार्य चौक मंे होली पर होने वाली परंपरागत ‘अमरसिंह राठौड़’ रम्मत की। रम्मत में बाकायदा दरबार लगते हैं। बादशाह बिराजते हैं। भिश्ती से लेकर मेहतर तक सबकी हाजरी होती है लेकिन रम्मत परवान चढ़ने लगती है ‘टीको आयो है हाडा राव रो…’ दरख्वास्त के साथ। बादशाह के दरबार से बमुश्किल मुकलावे की छुट्टी लेकर पहुंचे अमरसिंह राठौड़ और रूपमती हाडी रानी के सौंदर्य पर इस कदर रीझ जाते हैं कि वे दिन पर दिन बीतने लगते हैं।
इस दौरान ‘पीवो नी मारू महाराज ओ दाख्यां रो दारू..पीवो नी मारू…’ ‘मारूजी ने राखो बिलमाय, ओ सुण दासी म्हांरी…’ सरीखे संगीत संवादों से प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार के साथ कल्पित विरह मंच पर साकार हो जाता है। टेर के साथ हर श्रोता, दर्शक और रसिया इसमें भागीदार हो जाता है। उधर दरबार में साजिशों के दौर शुरू होते हैं। ‘भरी कचेड़ी पूछे बादसा कौण-कौण मुजरे आया..’ सवाल के जवाब में ‘कहे सलावत, सुण अे हजरत, अमरसिंह इक नहीं आया..’ चुगली के साथ सियासी साजिशें शुरू होती है। अर्जुन गौड़ के विश्वासघात, शेरखान की मित्रता की कहानियों के किरदारों से आगे बढ़ती हुई रम्मत उस मोड़ पर पहुंचती है जहां अमरसिंह की तलवार चल पड़ती है। चुगलखोर और साजिश को अंजाम देने वालों केा मुकाम पहुंचा वह घेर लिया जाता है। वीरगति को प्राप्त होता है।
यहां रम्मत एक नया मोड़ लेती है और हाडी रानी के साथ उभरता है अमरसिंह के जवान होते भतीजे रामसिंह का चरित्र। ‘सुण काकी म्हारी, हुकम देवो तो लूटूं आगरो..’ संवाद टेर के साथ देर तक गूंजता है और काकी यानी हाडी रानी ‘सुण बेटा थोड़ी धीरज राखो नी कहते हैं, अपने सति होने के लिऐ पति के शव की मांग करती है। यहां एक बार फिर रम्मत नये रंग में रंगती है। रामसिंह, किसना नाई, बादशाह, बीवी के संवादों से चरित्र उभरते हैं। इसमें भी खासतौर पर बीवी का बादशाह को ताना ‘बादशाह तख्त छोड़ भागा तेरी वो कहां गई शाही..’ और जवाब में ‘बीबी करो नबी को याद खुदा ने मेरी जान बचाई..’ जैसे संवादों से राजपूत राजा की बहादुरी के किस्से सामने आये। इतना ही नहीं आखिर में ‘लहंगा पेन गले बीच चोली, जूना, बदला है तेरा..’ और ‘तौबा तौब सुणो मेरी अल्ला, मुलक परगना सब तेरा..’ के जरिये जीत का डंका बजता सुनाई दिया।
कुल मिलाकर सालों से चली आ रही परंपरा को शिद्दत से निभाने के लिए बीते महीने से रिहर्सल कर रहे कलाकारों ने एक बार फिर साबित किया कि भले ही संस्कृति के विघटन के कितने ही सामान आ जाएं लेकिन लोक में रची-बसी संस्कृति को हिला पाना सहज नहीं। अच्छी बात यह भी दिखी कि रम्मत में कई युवा कलाकार पूरी तैयारी के साथ नजर आये। ऐसे में यह संस्कृति और परंपरा अगली पीढ़ी मंे हस्तांतरित होते देखने का सुख भी है।