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बुलाकी दास ' बावरा ' का रचनाकर्म एक नई ताजगी देने वाला

 

डॉ. नीरज दइया

RNE Special.
 

( जन कवि बुलाकी दास बावरा की आज जयंती है। उनके साहित्य कर्म पर यह टिप्पणी आलोचक, रचनाकार डॉ नीरज दइया की लिखी है। जो बावरा साहब के साहित्य को समझने की एक दृष्टि देती है। पाठकों को इससे बावरा साहब के बारे में अधिक जानकारी मिलेगी। -- संपादक )
 

बुलाकीदास ‘बावरा’ (7 जुलाई 1937 – 20 जनवरी 2015) बीकानेर के एक विशिष्ट जनकवि रहे हैं, जिनकी कविता जीवन और जनचेतना का सजग संकलन है। मंचीय कविता से लेकर साहित्यिक रचनाओं तक, उन्होंने भाषा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और कविता को गहन मानवीय संवेदनाओं का माध्यम बनाया। उनके काव्य में जहां गीत, ग़ज़ल और मुक्तक हैं, वहीं राजस्थानी और उर्दू का सहज मिश्रण भी है। वे न केवल शब्दों के कवि थे, बल्कि लोक के पक्षधर और अपने समय के सजग साक्षी-प्रहरी भी थे।

उनका रचना-संसार लगभग छह दशकों तक सक्रिय रहा, जिसमें जीवन, समाज, व्यवस्था, प्रेम, श्रद्धा और विद्रोह—सभी के स्वर समान रूप से गुंथे हुए हैं।
आज, उनकी जयंती के अवसर पर यह लेख उनकी तीन काव्य-कृतियों पर केंद्रित एक विनम्र साहित्यिक स्मरण है—एक पुत्रवत कवि-दृष्टि से।

यह एक अनूठा उदाहरण है कि कवि के इस संसार से विदा होने के बाद भी उनके कवि-पुत्र मित्र संजय पुरोहित द्वारा संकल्पित होकर प्रतिवर्ष एक-एक पुस्तक प्रकाशित होते हुए अंततः एक भावभीना विमोचन कार्यक्रम भी संपन्न हुआ। किसी कवि-लेखक के जीवन में किताब का प्रकाशन एक सपने के संभव होने जैसा होता है। 
 

मैं यहां स्मरण करना चाहूंगा बावरा साहब के अज़ीज़ मित्र और मेरे पिता श्री सांवर दइया का, जिनके नहीं रहने पर मैंने भी तीन कृतियों का लोकार्पण वर्षों पहले करवाया था... मैं मानता हूं कि पिता के प्रति भाई संजय जी और मेरा कार्यक्रम अथाह प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है। ऐसा कर हम स्वयं के साहित्यिक संस्कार पोषित कर रहे हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि मैं कहूं कि दिवंगत पिताओं की काव्य-कृतियां ऐसा प्रसाद हैं, जो मां सरस्वती के श्रीचरणों में एक पुत्र द्वारा पिता के लिए अर्पित किया गया है। यह भावुकता नहीं, बल्कि वह सच्ची भावना है, जिसके आगे तर्क भी मौन हो जाते हैं।

जनकवि बुलाकीदास ‘बावरा’ की काव्य-यात्रा को उनके बाद प्रकाशित तीन संग्रह— शब्दों की कतरन (2012), अरदास (2013) और माटी की मिल्लत (2014)—के आलोक में उनकी काव्य-यात्रा को समझना एक ऐसी सृजन-प्रक्रिया का साक्षात्कार है, जो बीकानेर की जनचेतना, लोक-संवेदना और आत्मानुभूति से गहराई तक जुड़ी हुई है।

जनकवि बावरा की यह यात्रा केवल उनकी नहीं, बल्कि उस समूचे सांस्कृतिक परिवेश की है जिसमें कविता न केवल अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, बल्कि सामूहिक स्मृति और प्रतिरोध की आवाज भी बनती है। मेरा मानना है कि तीनों संग्रह बावरा जी की रचनात्मकता के तीन सोपान हैं, जिनमें उनकी विचारधारा, संवेदना और कलात्मकता क्रमशः विकसित होती दिखाई देती है। इन संग्रहों की कविताएं यद्यपि विभिन्न कालखंडों में लिखी गई हैं, फिर भी इनमें एक सुसंगत आत्मा और सतत जिजीविषा विद्यमान है। संग्रहों में रचनाकाल का स्पष्ट संकेत नहीं है, यह एक आलोचनात्मक चुनौती अवश्य उत्पन्न करता है, किंतु बावरा जी की भाषा और संवेदना पाठक को उस समय-सूत्र तक सहज पहुंचा देती है, जिसमें वे कविताएं जन्म ले रही थीं।

बुलाकीदास बावरा के काव्य में मंचीय कविता की शक्ति और साहित्यिक गहराई का अद्भुत संयोग है। कवि-आलोचक डॉ. नंदकिशोर आचार्य उचित ही कहते हैं कि बावरा ने कवि-सम्मेलनों में भी वाचिक कविता का स्वस्थ और गंभीर रूप बनाए रखा तथा कभी भी सस्ती लोकप्रियता के लिए अपनी रचनाओं के स्तर को गिरने नहीं दिया। यह गुण उनके पूरे रचना-संसार में दिखाई देता है।

शब्दों की कतरन में संकलित 69 कविताएं विचार और भाव की उस गहराई को छूती हैं, जिसे सामान्य शब्दों में व्यक्त करना कठिन होता है।

संग्रह की शीर्षक कविता—

"मैंने / मेरी / शब्दों की कतरन का / कागजनुमा नाविक / तुम्हें / इसलिए नहीं सौंपा / कि तुम उसे / किसी प्रदर्शनी में / रखने की बजाय / पानी में / फैंक दो / यह देखने के लिए / कि वह / तैर सकता है / या कि नहीं।"

—इस रचनाकार की भाषा और दृष्टि दोनों का साक्ष्य देती है। यह कविता कविता की गरिमा और रचनात्मकता की नाज़ुकता के प्रति एक प्रतिरोध है।

अरदास संग्रह 34 भजनों और वंदनाओं का संकलन है, जिसमें कवि की धार्मिक आस्था और विनीत भक्ति स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त हुई है। इन गीतों में कोई आडंबर नहीं, केवल आत्मा की सच्ची पुकार है। यदि इन रचनाओं को संगीत से जोड़ा जाए, तो यह साहित्य और साधना का अप्रतिम संगम बन सकते हैं।

माटी की मिल्लत में 125 मुक्तक और 61 गीतिकाएं-ग़ज़लें हैं। इस संग्रह में बावरा का रचनात्मक विस्तार सर्वाधिक सघन रूप में प्रकट होता है। छंद का निर्वाह, भाषा की लयात्मकता और विविध भाव-छवियों की सजीव उपस्थिति—यह सब मिलकर संग्रह को एक पूर्ण काव्य-जगत बना देते हैं।

इन कविताओं में केवल प्रेम और पीड़ा ही नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और व्यवस्था के विरुद्ध कवि की मुखरता भी दिखाई देती है। संपादक दीपचंद सांखला के अनुसार, आपातकाल के पश्चात बीकानेर में जनभावना की जो लहर कवि सम्मेलनों में उठी, उसमें बावरा जैसे कवियों की मुखर भूमिका रही। ऐसे कवि व्यवस्था के विरुद्ध जनपक्ष की आवाज बनकर उभरे।

बावराजी की काव्य-यात्रा में हिंदी के साथ-साथ उर्दू का भी प्रभाव स्पष्ट है। यह मिश्रण उनकी भाषा को अधिक जीवंत और लोचदार बनाता है। ‘अरदास’ जैसा संग्रह उन्हें सगुण भक्ति काव्य परंपरा में जोड़ता है, तो ‘माटी की मिल्लत’ और ‘शब्दों की कतरन’ उन्हें आधुनिक सामाजिक यथार्थ और आत्ममंथन की धारा से जोड़ते हैं।

बुलाकीदास बावरा की कविता उस मिट्टी की सोंधी गंध है, जिसमें जीवन की जटिलता, समाज की विवशता और आत्मा की संजीवनी, तीनों का स्पर्श है। उनकी कविताएं केवल पढ़ी नहीं जातीं, भीतर कहीं उतरती हैं। यही उनकी कविताओं की शक्ति है—न कोई बड़बोलापन, न किसी वाद की चाशनी, केवल सच्चे अनुभवों की शुद्ध भाषा।

इन संग्रहों पर विस्तार से चर्चा आगे भी होनी चाहिए, क्योंकि इनमें समाहित रचनाएं हमारे समय और समाज की वह भावात्मक धड़कन हैं, जिन्हें केवल आलोचनात्मक भाषा से नहीं, आत्मीयता से पढ़ा और समझा जाना चाहिए।

जनकवि बावरा की कविता हमें यह सिखाती है कि सच्चा साहित्य न तो मंच तक सीमित होता है, न ही किताबों तक—वह जनमन की धड़कन में जीवित रहता है, पीढ़ियों तक।