उर्दू अदब की बातें : उर्दू अदब में दीपावली, जश्न-ए-चरागाँ की रौशनी, गंगा-जमुनी तहज़ीब और उर्दू शायरी का उजाला
इमरोज़ नदीम
RNE Special.
( आज से हम साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु कर रहे है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )
उर्दू अदब की बुनियाद गंगा-जमुनी तहज़ीब पर है। यह वो ज़बान है जिसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों तबक़ात की रूहानी और तहज़ीबी झलक पाई जाती है। उर्दू अदब में हमेशा मोहब्बत, इंसानियत, और मेल-मिलाप का पैग़ाम रहा। यही वजह है कि उर्दू के शायरों और अदब-नवीसों ने सिर्फ ईद और मुहर्रम जैसे मज़हबी मौक़ों को ही नहीं बल्कि दीपावली जैसे हिंदू त्योहारों को भी अपने कलाम का हिस्सा बनाया।
जश्न-ए-चारागाँ:
दीपावली को उर्दू अदब में "जश्न-ए-चारागाँ" कहा गया है। शमाओं, दीयों और रोशनी से सजने वाली यह रात सिर्फ़ हिंदू समाज की नहीं बल्कि पूरी हिंदुस्तानी तहज़ीब की पहचान है। बादशाही दौर में, ख़ासतौर पर मुग़ल हुक्मरानो और नवाबों के ज़माने में, शाही महलों से लेकर आम गलियों तक दीपावली की रौनकें नज़र आती थीं।
उर्दू शायर और चरागाँ:
कई उर्दू शायरों ने दीपावली की रोशनी, दीयों की कतारों और रात की ख़ूबसूरती को अपने शेरों में ढाला। उनके कलाम से साबित होता है कि उर्दू अदब महज़ मज़हबी दायरे तक महदूद नहीं रहा, बल्कि हर रंग-ए-ज़िंदगी को अपनाया।
ख़ाकसार का शेर है मुलाहिजा फरमाए :
जश्न-ए -चरागां है,रोशन है चराग़
हरसू फैली है मोहब्बत की रोशनी
उर्दू अदब का पैग़ाम:
उर्दू अदब और दीपावली का रिश्ता हिंदुस्तान की उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का गवाह है जहाँ मज़हब की सरहदें टूटकर इंसानियत और मोहब्बत की रौशनी जगमगाती है। जश्न-ए-चरागाँ दरअसल सिर्फ़ दीयों का त्यौहार नहीं, बल्कि दिलों को रोशन करने वाला पैग़ाम है—जहाँ अदब, तहज़ीब और इंसानियत एक साथ चमकते हैं।
अगर दीपावली की बात हो रही है तो हम मौलवी बादशाह हुसैन राना साहब को कैसे भूल सकते हैं उनकी उर्दू नज़्म रामायण ने तो बीकानेर को एक अलग पहचान दिलाई है । गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करते हुए राना साहब ने उर्दू में रामायण नज़्म तहरीर की थी । इस नज़्म को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की प्रतियोगिता में अव्वल आने पर गोल्ड मेडल मिला था ।
राना साहब की उर्दू नज़्म का देवनागरी लिपयान्तरण हमें उर्दू अदब की यादगार रचनाओं को हिन्दी साहित्य में लाने वाले उर्दू खिदमतगार हाजी खुर्शीद अहमद साहब की किताब शीर ओ शकर में पढ़ने को मिलता है । इस किताब में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉक्टर नन्द किशोर आचार्य साहब की टिप्पणी भी शामिल है ।
राना साहब ने रामायण को बेहद ही मुख्तसर अंदाज में पेश किया और इस तरह से पेश किया कि इसमें तुलसीदास की तारीफ की गई है जिन्होंने रामायण तहरीर की ।
इसमें श्रीराम के बचपन से लेकर जवानी , रिश्तों का लिहाज , वनवास और वनवास दौरान जो मुश्किलात का सामना करना पड़ा उसकी एक बेहरतीन मंजरकशी करने की कोशिश में राना साहब कामयाब हुए । और जब हम नज़्म रामायण पढ़ते हैं तो हमारे आंखों के सामने वह तमाम मंजर नजर आते है ।
" रंज ओ हसरत की घटा सीता के दिल पर छा गई
गोया जूही की कली थी ओस से मुरझा गई । "
राना साहब की उर्दू रामायण का यह शेर नज़्म का हासिल है ।
दूसरा नाम है मुंशी द्वारका परशाद उफुक़ जिनका नाम उर्दू अदब में बेहद अदब के साथ लिया जाता है । वैसे मुंशी जी ने अदब के एतबार से बहुत कुछ लिखा लेकिन उनकी एक रचना ने उन्हें मकबूल ओ मशहूर कर दिया रामायण यक काफिया।
क्लासिकल उर्दू शायरों ने दीपावली और "जश्न-ए-चरागाँ" का ज़िक्र बख़ूबी किया है:
नज़ीर अकबराबादी (1735–1830):
नज़ीर ने हिंदुस्तानी तहज़ीब और मेल-जोल पर बहुत कुछ लिखा। उनके यहाँ ईद, होली, बसंत, और दीपावली सब मिलते हैं।नज़ीर वो शायर हैं जिन्हें “आम आदमी का शायर” कहा जाता है। उन्होंने हिंदुस्तान के हर रंग को शायरी में ढाला।
उनकी मशहूर नज़्म “दीवाली” है, जिसमें दीपावली की रौनक, दीयों की जगमगाहट, मिठाइयों की खुशबू और मेल-जोल का पूरा मंज़र मिलता है।
उनकी एक मिसाल देखें:
"हर घर में हैं सजावटें, हरसू है उजाला,
दीवाली का शोर है, हर जानिब है उजाला।"
यह नज़ीर की बड़ी पहचान है कि उन्होंने ईद और दीवाली दोनों को बराबर दर्जा दिया।
उनका मशहूर शेर है:
"दीवाली के दिन सब घरों में , चरागां
हर इक सू नज़र आती है रौनक निराली।"
यह नज़ीर का अंदाज़ है जो हिंदू-मुस्लिम दोनों की खुशियों को बराबर जगह देता है।
रतन नाथ 'सरशार' (1846–1903):
उन्होंने अपने अफ़सानवी और तहरीरी अदब में हिंदुस्तानी त्योहारों की झलक पेश की। सरशार के "फ़साना-ए-आज़ाद" में जश्न-ए-चरागाँ का ज़िक्र मिलता है, जहाँ लखनऊ की गलियों में दीपावली की रौनक बयान की गई है। फ़साना-ए-आज़ाद (रतन नाथ सरशार)
लखनऊ की अदबी और तहज़ीबी तस्वीर पेश करने वाली इस किताब में दीपावली के मौक़े पर बाज़ारों, गलियों और हवेलियों में होने वाले “चराग़ाँ” का ज़िक्र मिलता है। इसमें दिखाया गया है कि किस तरह हिंदू-मुस्लिम मिलकर दीपावली की रौनक में शरीक होते हैं।
उर्दू अदब ने दीपावली को "जश्न-ए-चारागाँ" के नाम से अपनाया और उसकी रौनक को शायरी और नसर में जगह दी। नज़ीर अकबराबादी इसका सबसे बड़ा सुबूत हैं। दीपावली पर नजीर की लिखी हुई नज़्में इस बात का सबूत हैं कि वे किसी मज़हबी तंगनज़री के क़ायल नहीं थे। उनके लिए इंसानी ज़िन्दगी की रौनकें और तहज़ीब की गंगा-जमुनी रवायतें ज़्यादा अहम थीं।
उनकी "दीवाली" पर मशहूर नज़्म में आप देख सकते हैं कि वे किस तरह बाज़ार की चहल-पहल, दीयों की रोशनी, मिठाइयों की खुशबू और मेलों के नज़ारे बयान करते हैं। नज़ीर की शायरी में दीपावली सिर्फ़ हिन्दुओं का पर्व नहीं, बल्कि इंसानी ख़ुशियों और मिल-जुलकर जीने का प्रतीक बन जाती है। बाज़ार की रौनक और चहल पहल की मंजर कशी पेश करते हैं
20वीं सदी के बाद कई नज़्म निगारों ने दीपावली को “रोशनी का पैग़ाम” मानकर लिखा।
फ़िराक़ गोरखपुरी ने रोशनी और मोहब्बत की नज़्मों में इसे रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया।
जगन नाथ आज़ाद और रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ जैसे शायरों ने हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब को सामने रखकर दीपावली का ज़िक्र किया।
मौजूदा दौर में आज भी कई उर्दू अफ़सानानिगार और शायर के "जश्न-ए-चरागाँ" पर कई कलाम शाया हुए । उर्दू रिसालों (जैसे नया दौर, सबरंग, अदब-ए-लतीफ़) में दीपावली पर ख़ास शायरी छपती रही है। इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता और इंसानियत का पैग़ाम दिया जाता है।
उर्दू अदब में दीपावली सिर्फ़ एक त्यौहार नहीं , बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब का आईना रहा है।
नज़ीर अकबराबादी ने इसे ज़मीनी हक़ीक़त के साथ शायरी में ढाला।
सरशार ने इसे अफ़सानवी दुनिया में सजाया।
फ़िराक़ और बाद के शायरों ने इसे इंसानियत और मोहब्बत की रोशनी का पैग़ाम बनाया।
अल्लामा इक़बाल (1877–1938) का अदबी सफ़र कौमी एकता और हिन्दुस्तानी तहज़ीब की तारीफ़ से भरा हुआ था। 1904 में उनकी मशहूर नज़्म "नया शिवाला" और "तराना-ए-हिन्दी" ("सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा") इसी दौर की पैदाइश हैं।
इसी सिलसिले में उन्होंने हज़रत रामचंद्र जी को “इमाम-ए-हिंद” कहा।
इक़बाल का शेर उनकी किताब बांग-ए-दरा (1908) उर्दू नज़्म "राम" से:
" है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले नज़र समझते हैं इमाम-ए-हिंद।"
इक़बाल ने श्रीराम को हिन्दुस्तान की आध्यात्मिक रहनुमाई का प्रतीक बताया।
उन्होंने राम को सिर्फ़ एक मज़हबी शख़्सियत नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की क़ौमी पहचान का "इमाम" यानी रहबर कहा।
इससे ये साबित होता है कि इक़बाल हिन्दुस्तान की तहज़ीबी और धार्मिक विविधता का एतराम करते थे।
इक़बाल ने जिस दौर में यह शेर कहा, उस वक़्त हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ज़ोर दिया जा रहा था।
“ इमाम-ए-हिंद” कहना इस बात की निशानी है कि वे हिन्दुस्तान के मज़हबी आसमान के हर सितारे को अपनी शायरी में जगह देना चाहते थे।
उर्दू अदब और जश्न-ए-चारागाँ:
उर्दू ज़ुबान का रिश्ता सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से नहीं बल्कि एक पूरी तहज़ीब, एक अहसास और एक नूरानी रवायत से है। जब-जब उर्दू की बात होती है, उसके साथ उसकी महफ़िलें, उसके शायर, उसके अफसाने, और उसके जश्न-ए-चारागाँ याद आते हैं — वो जश्न जहाँ रोशनी सिर्फ़ दीयों की नहीं बल्कि फ़िक्र, इल्म और मोहब्बत की होती है।
उर्दू अदब का आग़ाज़ हिंदुस्तान की ज़मीन पर गंगा-जमुनी तहज़ीब के साए में हुआ। इसमें फ़ारसी की नफ़ासत, अरबी का इल्म और हिंदवी की सादगी घुली-मिली। अमीर ख़ुसरो से लेकर मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, सर सैयद, हाली, इक़बाल और फ़ैज़ तक — उर्दू अदब ने इंसान की ज़ात, जज़्बात और इंसाफ़ की आवाज़ को शब्द दिए।
उर्दू अदब की खूबी यह है कि यह सिर्फ़ शायरी या कहानी नहीं, बल्कि समाज की आइना-दार ज़ुबान है। इसने तख़ैयुल को भी जगह दी और तहकीक़ को भी, रुमानियत को भी अपनाया और हक़ीक़त को भी।
जश्न-ए-चारागाँ का अर्थ और इतिहास:
“जश्न-ए-चरागाँ” यानी रोशनियों का उत्सव, दरअस्ल उस दौर की याद दिलाता है जब अवध और लखनऊ की गलियों में तहज़ीब, शायरी, संगीत और इल्म की महफ़िलें सजती थीं। नवाबों के ज़माने में यह जश्न किसी एक तिथि का नहीं बल्कि एक सिलसिला था — जहाँ शायर अपने कलाम पेश करते, अदबी मुकाबले होते, और हर तरफ़ रोशनियाँ बिखरी होतीं।
ये जश्न सिर्फ़ बाहरी रोशनी का नहीं था, बल्कि उर्दू के ज़रिये दिलों में इल्म और मोहब्बत की रौशनी जलाने का प्रतीक था।
उर्दू अदब और जश्न की रूह:
उर्दू अदब का असल मक़सद हमेशा इंसानियत को रोशन करना रहा है। चाहे वो ग़ालिब की फ़िक्र हो या इक़बाल का पैग़ाम, चाहे फ़ैज़ की आवाज़ हो या जोश का इंक़लाब — हर कलाम में एक नूर है, चरागाँ है।
इस लिहाज़ से “जश्न-ए-चरागाँ” सिर्फ़ एक महफ़िल नहीं बल्कि उर्दू अदब की रूह का इज़हार है।
आधुनिक दौर में जश्न-ए-चरागाँ:
आज भी कई शहरों में — लखनऊ, हैदराबाद, दिल्ली, अलीगढ़, पटना, और बीकानेर जैसे इलाक़ों में — जश्न ए चरागां उर्दू की ज़िंदा रवायत का हिस्सा बना हुआ है।
इस जश्न में न सिर्फ़ शायरी, बल्कि नज़्म, ग़ज़ल, नाटक, और उर्दू किताबों की नुमाइशें होती हैं — ताकि अदब का नूर हर दिल तक पहुँचे।
उर्दू अदब और जश्न-ए-चरागाँ दरअस्ल एक ही रौशनी के दो पहलू हैं।
जहाँ उर्दू अदब अल्फ़ाज़ में नूर भरता है, वहीं जश्न-ए-चरागाँ उस नूर को ज़िंदगी की शक्ल देता है। यह उर्दू तहज़ीब का वो जश्न है जो बताता है कि ज़ुबान सिर्फ़ बोली नहीं जाती, जी भी जाती है।
दूरदर्शन पर एक टीवी सीरियल जो मिर्ज़ा ग़ालिब की जिंदगी पर मबनी था
जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार नसीरुद्दीन शाह ने अदा किया , उसमें दीपावली पर एक मंजर फिल्माया गया ,
जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब एक गली से गुजर रहे थे और गली में आतिशबाजी का मंजर था ।
एक शख्स मिर्ज़ा को आदाब अर्ज़ करता है
मिर्ज़ा – कहो चंदन मिठाई भेजी है सुखानंद जी ने ।
चंदन – जी हुजूर घर तक पहुंचा कर आया हूं ।
मिर्ज़ा – हमारी तरफ से मुबारकबाद और शुक्रिया कह देना ।
तभी एक शख्स मिर्ज़ा ग़ालिब से मुखातिब होते हुए फरमाते है कि मिर्ज़ा दिवाली की मिठाई खायेंगे आप ?
मिर्ज़ा – जी बर्फी है , आप खायेंगे ?
शख्स – मुसलमान हो कर !
मिर्ज़ा – बर्फी हिंदू है ?
शख्स – मुसलमान है ? शिया है ? सुन्नी है ?
मिर्ज़ा – और जलेबी वो किस जात की है ? खत्री है या शिया या सुन्नी ?
इस मंजर में गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब के ज़रिए भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब, धार्मिक सह-अस्तित्व और व्यंग्य के ज़रिए सामाजिक कट्टरता पर एक नर्म लेकिन तीखा प्रहार किया है।
यह संवाद अपने आप में हिंदू-मुस्लिम एकता और मानवता की सार्वभौमिकता का प्रतीक है — जहाँ ग़ालिब मज़हब के नाम पर बाँटने की सोच पर मुस्कुरा कर सवाल करते हैं:
"बर्फ़ी हिंदू है?" "और जलेबी वो किस जात की है?"
गुफ्तगू में ग़ालिब का वही अंदाज़ झलकता है जो उनकी शायरी में है — बात मज़ाक की तरह करते हैं, मगर निशाना सीधा समाज की सोच पर होता है।
यह दृश्य हमें याद दिलाता है कि मिर्ज़ा ग़ालिब सिर्फ़ शायर नहीं, बल्कि विचारक भी थे, जो इंसानियत को धर्म से ऊपर रखते थे। और गुलज़ार ने नसीरुद्दीन शाह की अदायगी के ज़रिए इस बात को अमर बना दिया।
मिर्ज़ा ग़ालिब:
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं