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Judge Gets Justice : मौत के 13 साल बाद जज को मिला इंसाफ! अब हुए बर्खास्तगी के आदेश रद्द 

Bikaner के जज बी.डी.सारस्वत को किया गया था बर्खास्त, मौत के 13 साल बाद बर्खास्तगी का आदेश रद्द 
 
 

RNE Bikaner-Jodhpur.
किसी को लगता है कि हमारी न्याय व्यवस्था में आम आदमी को ही इंसाफ के लिए सालों इंतजार करना पड़ता है तो यह गलत है। अगर एक न्यायाधीश भी खुद के साथ नाइंसाफी होने पर अदालती प्रक्रिया में जाता है तो उसे भी ऐसी ही प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इतना ही नहीं कई बार इंसाफ पाने में उम्र छोटी पड़ जाती है और वांछित फैसले मौत के सालों बाद आते हैं। ऐसा ही बीकानेर मूल के एक जज के साथ हुआ है। फैसले का इंतजार करते हुए जज साब दुनिया छोड़ गए। उनकी मौत के बाद भी परिजन केस लड़ते रहे और मृत्यु के 13 साल बाद वाह फैसला आया है जिसका इंतजार था। इस फैसले के बाद जज साब के दामन पर लगाए गए दागों को तो धो दिया है लेकिन यह सुकून उनकी रूह को ही मिलेगा। वे अब सशरीर दुनिया में नहीं है।

दरअसल डिस्ट्रिक्ट जज बीडी सारस्वत को इस शिकायत के आधार पर बर्खास्त कर दिया गया था कि उन्होंने एक आरोपी की जमानत किसी खास वकील की ओर से पैरवी होने पर ही स्वीकार की। इसके खिलाफ जज सारस्वत कोर्ट में गए। उनका निधन हो गया। उनके परिजनों ने केस लड़ा और मौत के 12 साल बाद कोर्ट ने माना कि जज सारस्वत पूरी तरह पाक-साफ थे। उनके खिलाफ जांच रिपोर्ट गलत सबूतों के आधार पर बनाई गई थी।

अब राजस्थान हाईकोर्ट जोधपुर ने मृतक डिस्ट्रिक्ट जज बीडी सारस्वत की बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने बीडी सारस्वत के पक्ष में फैसला सुनाते हुए बर्खास्तगी से रिटायरमेंट तारीख तक पूरी सैलरी समेत सभी लाभ परिवार को देने के आदेश दिए हैं।
जस्टिस मुन्नूरी लक्ष्मण और जस्टिस बिपिन गुप्ता की डिवीजन बेंच ने 3 नवंबर 2025 को सुनाए फैसले में कहा कि जांच रिपोर्ट गलत सबूतों पर आधारित थी। बेंच ने 15 साल पुरानी रिट याचिका पर फैसला दिया, जिसे हाईकोर्ट ने 8 अगस्त को सुरक्षित रखा था।

मामला यह था : 
बीडी सारस्वत प्रतापगढ़ में एनडीपीएस एक्ट के विशेष न्यायालय में स्पेशल जज थे। साल 2004-05 में एक आरोपी की तीसरी जमानत याचिका स्वीकार करने पर उन पर अवैध उद्देश्यों से दी गई जमानत का आरोप लगा।वकील अशोक कुमार ने शिकायत की कि बीडी सारस्वत ने आरोपी पारस की जमानत याचिकाओं को 6 अक्टूबर 2004 और 2 दिसंबर 2004 को खारिज किया, लेकिन जब वकील कला आर्या ने तीसरी जमानत याचिका दायर की, तो 24 फरवरी 2005 को जमानत स्वीकार कर ली।

जांच में दोषी ठहराया था : 
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि यह जमानत अवैध उद्देश्यों से दी गई थी। मुख्य न्यायाधीश ने 1 सितंबर 2005 को जस्टिस एनपी गुप्ता को जांच अधिकारी नियुक्त किया। जांच अधिकारी ने 6 मार्च 2009 को रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि आरोप सिद्ध हो गया है। फुल कोर्ट ने 2 फरवरी 2010 को रिपोर्ट स्वीकार कर बर्खास्तगी की सिफारिश की। राज्य सरकार ने 8 अप्रैल 2010 को बर्खास्तगी का आदेश जारी किया।याचिकाकर्ता की कार्रवाई के दौरान 26 मई 2012 को मृत्यु हो गई। उनकी मौत के बाद पत्नी, बेटी मधु सारस्वत और बेटे अमित सारस्वत ने केस लड़ा। दोनों बीकानेर के जय नारायण व्यास कॉलोनी के रहने वाले हैं।

याचिकाकर्ता और राज्य सरकार के तर्क 
वरिष्ठ एडवोकेट एमएस सिंघवी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने 5 फरवरी 2010 को जवाब दिया था, लेकिन फुल कोर्ट पहले ही 2 फरवरी को बर्खास्तगी की सिफारिश कर चुका था। राज्यपाल ने इस जवाब पर विचार नहीं किया। सुनवाई का अवसर नहीं देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।राज्य सरकार की ओर से AAG राजेश पंवार और सीनियर एडवोकेट जीआर पूनिया ने कहा कि याचिकाकर्ता ने फुल कोर्ट के समक्ष अवसर का उपयोग नहीं किया। फुल कोर्ट को रिपोर्ट स्वीकार करने के लिए विशेष कारण देने की आवश्यकता नहीं है। रिकॉर्ड पर पर्याप्त सबूत है, जो याचिकाकर्ता का भेदभावपूर्ण आचरण दर्शाते हैं।

तीसरी याचिका पर इसलिए जमानत : 
आरोपी पारस पर साल 2004 में एफआईआर एनडीपीएस एक्ट की धाराओं के तहत 1.5 किलो अफीम जब्त करने का मामला था। जब्त अफीम की मात्रा मध्यवर्ती श्रेणी में आती थी, इसलिए सजा 10 साल तक की कठोर कारावास थी।

कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 167(2) और सुप्रीम कोर्ट के राजीव चौधरी बनाम स्टेट दिल्ली मामले का हवाला देते हुए कहा कि 10 साल या उससे कम कारावास वाले अपराधों में हिरासत की अधिकतम अवधि 90 दिन है। जब तीसरी जमानत याचिका दायर की गई तब तक आरोपी 157 दिनों से हिरासत में था और चार्जशीट दाखिल नहीं की गई थी।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पहली और दूसरी जमानत याचिका धारा 439 के तहत योग्यता के आधार पर नियमित जमानत मांगते हुए दायर की गई थी। तीसरी याचिका वैधानिक/डिफॉल्ट जमानत याचिका थी। दोषी अधिकारी के पास 90 दिन पूरे होने और चार्जशीट न दाखिल होने पर जमानत देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

कोर्ट ने अभय जैन बनाम राजस्थान हाईकोर्ट के मामले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायिक आदेशों के आधार पर अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करते समय हाईकोर्ट को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी ने रमेश और अयूब से संबंधित जमानत आदेशों जैसे असंगत साक्ष्य पर भी विचार किया जो आरोप का विषय नहीं थे।

फैसला: जांच रिपोर्ट, फुल कोर्ट का प्रस्ताव और राज्यपाल का आदेश रद्द
कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी के निष्कर्ष गलत है और कोई भी विवेकशील व्यक्ति रिकॉर्ड पर साक्ष्य के आधार पर ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता। दोषी अधिकारी के पास वैधानिक जमानत देने के अलावा कोई विवेक नहीं था। वकील बदलने पर जमानत देना किसी अवैध उद्देश्य से प्रेरित नहीं माना जा सकता।
कोर्ट ने 6 मार्च 2009 के जांच अधिकारी के आदेश, 2 फरवरी 2010 के फुल कोर्ट के प्रस्ताव और 8 अप्रैल 2010 के राज्यपाल के आदेश को रद्द कर दिया। याचिकाकर्ता की बर्थ डेट 2 फरवरी 1951 थी और वे 28 फरवरी 2011 को रिटायर हो गए होते।

कोर्ट ने निर्देश दिया कि 8 अप्रैल 2010 से 28 फरवरी 2011 के समय में पूर्ण बकाया वेतन का भुगतान किया जाए, साथ ही सारे लाभ दिए जाए। याचिकाकर्ता को काल्पनिक बहाली मानी जाएगी और पेंशन लाभ परिवार को दिए जाएंगे।