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उर्दू अदब की बातें : महात्मा गांधी का उर्दू से लगाव और हिन्दुस्तानी भाषा का विचार

 

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( आज से हम साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु कर रहे है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

2 अक्टूबर 2025 को पूरी दुनिया ने 150 वीं यौमे विलादत पर महात्मा गांधी को याद किया और खिराजे अक़ीदत पेश की । आज दुनिया गांधी जी को मानती है , उनके दिखाए रास्ते पर चलने की कोशिश करती है । पूरे विश्व में जितनी प्रतिमाएं गांधी जी की लगी है शायद ही कोई दीगर  नेता की हों । 

मोहनदास करमचंद गांधी जिन्हें दुनिया महात्मा गांधी के नाम से जानती है , जो हमेशा हिन्दू मुस्लिम एकता और क़ौमी यकजहदी के अलमबरदार रहे  । 
 

महात्मा गांधी की विलादत चूंकि गुजरात में हुई तो जाहिर से बात है उनकी मदारी जुबान गुजराती ही थी । लेकिन आपको जानकर हैरत होगी कि गांधी जी को न सिर्फ गुजराती , हिन्दी , अंग्रेजी , संस्कृत बल्कि उर्दू जबान का भी इल्म था और आपको जान कर खुशी होगी कि उर्दू भी महात्मा गांधी के दिल के बहुत करीब थी । उर्दू से गांधी जी की मोहब्बत इतनी थी कि उन्होंने अपने जानने वाले को कई ख़त उर्दू में तहरीर किए । 
 

साबरमती के संत महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक ही नहीं, बल्कि ज़बान और अदब की गहरी समझ रखने वाले चिंतक भी थे। गांधीजी का मानना था कि ज़बान सिर्फ राब्ते का जरिया ही नहीं , बल्कि ये समाज को जोड़ने और मुल्क को एक सूत्र में बाँधने का एक ताकतवर जरिया है । इसी नुक़्ता ए नज़र से उन्होंने उर्दू को भारत की साझा संस्कृति और गंगा-जमुनी तहज़ीब का अभिन्न हिस्सा माना।

गांधीजी का उर्दू प्रेम:

गांधीजी उर्दू पढ़ने के शौक़ीन थे । वे मानते थे कि उर्दू हिंदुस्तान की ज़ुबान है, जो हिन्दू और मुसलमान दोनों की साझी विरासत से पैदा हुई है। उनका ख़्याल था कि यह भाषा किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं, बल्कि पूरे भारत की है। उन्होंने कई बार कहा कि हिन्दुस्तानी भाषा (जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों की मिठास है) ही भारत की वास्तविक राष्ट्रीय भाषा हो सकती है।

हिंदुस्तानी भाषा का विचार:

गांधीजी ने हिंदी और उर्दू के मिश्रण को "हिन्दुस्तानी" नाम से राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही। उनका तर्क था कि हिंदी और उर्दू का मेल आम जनता की बोलचाल की भाषा है, जिसे भारत का हर वर्ग सहज रूप से समझता है। गांधीजी का सपना था कि हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद "हिन्दुस्तानी" पूरे देश की एकता का प्रतीक बने।

उर्दू और राष्ट्रीय एकता:

उर्दू की नज़ाकत, अदब और अदबी रिवायत गांधीजी को आकर्षित करती थी। वे जानते थे कि उर्दू कविता और गद्य ने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी भूमिका निभाई है—चाहे वह 1857 का गदर हो या बाद के आंदोलन की लहरें। गांधीजी इस भाषा को सांप्रदायिक विभाजन से ऊपर उठाकर देखते थे। उनका कहना था कि हिंदी और उर्दू को लेकर जो मतभेद पैदा किए जाते हैं, वे राजनीतिक हैं, सांस्कृतिक नहीं।

गांधीजी का आग्रह:

गांधीजी ने अपने अनेक भाषणों और लेखों में स्पष्ट कहा कि भारतीयों को हिंदी और उर्दू दोनों को अपनाना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यदि भारतवासियों ने उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा मानकर त्याग दिया, तो यह हमारी साझा संस्कृति के साथ नाइंसाफी होगी ।
 

महात्मा गांधी का उर्दू प्रेम केवल भाषाई आग्रह नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक दृष्टि थी। उनके लिए उर्दू, हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब, साझी विरासत और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक थी। गांधीजी ने जिस "हिन्दुस्तानी" भाषा की कल्पना की थी, उसमें उर्दू का स्थान ज़रूरी था। आज जब भाषा और साहित्य को लेकर संकीर्णताएँ  पैदा की जाती हैं, तब गांधीजी की यह सोच हमें याद दिलाती है कि भाषा का असली मक़सद लोगों को जोड़ना है, बाँटना नहीं। 
 

गांधी जी ने अपनी पूरी उम्र सादगी को तव्वजो दी और भारत को एक रखने के लिए अपने संघर्ष की कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई।
 

महात्मा गांधी जी ने कहा था कि — " मेरा जीवन ही मेरा संदेश है । " 
 

गांधी जी ने अपने मित्र मोहम्मद हुसैन साहब को उर्दू में एक खत तहरीर किया जिसमें अल्लामा इक़बाल का जिक्र किया गया है जिसका हिंदी तर्जुमा है 

(तारीख ) 9 जून 1938 ई भाई मोहम्मद हुसैन आपका खत मिला डॉक्टर इक़बाल मरहूम के बारे में मैं क्या लिखूं ?
 

लेकिन इतना तो मैं कह सकता हूं कि जब उनकी मशहूर नज़्म ( हिंदुस्तान हमारा ) पढ़ी तो मेरा दिल भर आया । और यरोदा जेल में तो सैकड़ो बार मैंने इस नज़्म को गाया होगा । इस नज़्म के अल्फाज मुझे बहुत ही मीठे लगे और यह पत्र लिखता हूं तब भी वह नज़्म मेरे कानों में गूंज रही है । 
 

आपका मोहनदास करमचंद गांधी ज़बान को लेकर जो कटु माहौल है उसमें गांधी जी का का रास्ता ही सच्चा रास्ता नज़र आता है । आज सही मायने में गांधी जी की ज़रूरत है।  गांधीजी के दर्शन के अनुरूप हमें समझना होगा कि ज़बाने सभी हमारी अपनी है । तंग नज़रिए से बाहर आना ही इंसानियत के लिए अहम है ।