उर्दू अदब की बातें : मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़ ' जिन्होंने संपूर्ण रामायण का उर्दू में पद्यानुवाद किया था ।
बातें उर्दू अदब की
इमरोज़ नदीम
RNE Special.
( आज से हम साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु कर रहे है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक
उर्दू के अलमबरदार
मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़ ' जिन्होंने संपूर्ण रामायण का उर्दू में पद्यानुवाद किया था ।
उर्दू को भारत में सांस्कृतिक समन्वय का पुल कहा जाए तो ग़लतबयानी नहीं होगी । भारत जिस ज़बान जन्मभूमि है और जिसे तहज़ीब का दूसरा नाम कहा जाता है, तहरीके आज़ादी में जिस ज़बान का ख़ास दख़ल रहा हो उस ज़बान के लिए अगर कहा जाए कि मुसलमानों की ज़बान है तो कहने वालों की कमअक्ली पर बेसाख्ता हँसी आ जाती है । जबान तो एक दूसरे से राब्ता करने का एक बेहतरीन जरिया है जो इंसानी तारीख में इंसान की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जिस उर्दू जबान को आप मुसलमानो की जबान कह रहे हैं उस उर्दू ज़बान की खिदमत में गैर मुस्लिम अदीबों ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी है बल्कि यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि आज़ादी तक उर्दू के फ़रोग में सबसे अधिक योगदान हिन्दू अदीबों का ही रहा है । उर्दू हिन्दुस्तानी रूप में अवाम की ज़बान रही है ।
इसी सिलसिले में आज ऐसी ही एक अज़ीम शख्सियत से आप और हम रूबरू हो रहे हैं जिन्होंने उर्दू की खिदमत कर उसे ख़ास मुकाम तक पहुंचाया। हम बात कर रहे हैं उर्दू जबानो अदब की एक अज़ीम शख्सियत जनाब मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़' की ।
वह दौर था 1857 के गदर का जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था और लूटपाट मचा दी । मुग़ल हुकूमत के हाथ से सत्ता छिन चुकी थी । साथ ही बड़े व्यापारी हो या आम और खास लोग सभी अपनी जान बचाकर दिल्ली से भागे , उन्हें जहां भी पनाह मिली वहीं बस गए । उन्हें में से एक थे मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़' जिनके बुजुर्ग अपने परिवार को लेकर दिल्ली से लखनऊ आ गए और मोहल्ला नौबस्ता में अपनी रिहाइश कायम की । मोहल्ला नौबस्ता सक्सेना कायस्थ समाज का मोहल्ला था जो लखनऊ में बहुत मकबूल था । इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि इस मोहल्ले में अदीबो का गढ़ था इसलिए यह मोहल्ला खास अहमियत रखता था । इस मोहल्ले में रिहाइश करने वाले हर बाशिंदे ने उर्दू और अदब की किसी न किसी शक्ल में खिदमत जरूर की थी । यहाँ बहुत से बड़े आलिम और फ़ाज़िल शायर गुजरे हैं। मुंशी गोविन्द परशाद 'फ़िज़ा' ने 'बोस्ताने सादी' का उर्दू में तरजुमा किया (फारसी से) और बेशुमार किताबें फारसी और उर्दू में तहरीर की ।
मुंशी खैराती लाल 'शगुफ्ता" जो कि शागिर्द थे 'नसीम' देहलवी के , मुंशी शादी लाल 'चमन'' मुंशी पूरन चन्द 'आजाद' ,मुंशी जगन्नाथ 'खुशतर' और मुंशी धनपत राय 'मुहफिक' उर्दू के मशहूर तारीख़ दां वगैरा सब तमाम बा सलाहियत लोग उर्दू के मशहूर ओ मारुफ अदीब हुए । फ़ारसी और उर्दू के बागात की आबयारी की, नज़्म और नसर में बेहतरीन तखलीक की और अपने वक़्त के मशहूर लोगों में नाम रोशन किया। इन्होंने जिंदगी भर उर्दू अदब की बेमिसाल खिदमत अंजाम दी और मुनफरीद तख़लीकात का खज़ाना विरासत में छोड़ कर दुनिया ए फ़ानी से रुखसत हो गये।
खुद हज़रत उफ़ुक़ और उन के घराने का उर्दू अदब बेपनाह एहसानमंद है । आप के दादा मुंशी ईश्वरी परशाद 'शुआई' और परदादा मुंशी उदय राज 'मतला' फ़ारसी के आला दर्जे के शायर थे। वालिद मुंशी पूरन चन्द उर्दू में शायरी करते थे और 'ज़र्रा' उनका तखल्लुस था। उफ़क के सब से बड़े भाई मुंशी राम सहाय 'तमन्ना' महसूस शायर और अदीब हुए हैं। इन से छोटे भाई मुंशी माता परशाद 'नैसाँ' भी अच्छे शायर थे। उफ़ुक़ के साहबजादे मुंशी बशेश्वर परशाद 'मुनव्वर' लखनवी भी अपने मशहूर बुजुर्गों की मानिंद अदब की खिदमत से मशहूर हुए । आप की दो किताबों के इशाआत के बारे में मालूमात मौजूद है - 'कायनाते-दिल' और 'नसीमे-इर्फा'। अव्वल आपकी नज़्मों का मजमुआ है और दूसरा मुकद्दस गीता का शायराना तर्जुमा है जो पण्डित मोहन दत्तात्रेय 'कैफ़ी' के मुताबिक अदब में एक अनमोल जवाहर है।
मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़ ' की विलादत भी सन् 1864 में इसी अदीबों के मोहल्ले नौबस्ता में हुई ।
अदब के पुरसुकून माहौल में आप की परवरिश हुई । फारसी और उर्दू के अज़ीम पंडित कहे जाने वाले मुंशी ईश्वरी परशाद ' शुआई ' जो आपके दादा हुजूर थे उन के घर में आपकी पैदाइश होने से आपकी मादरी जबान भी उर्दू और और आपकी तालीम फारसी से शुरू हुई ।
मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़ के ददीहाल और ननिहाल में शायरों की भरमार थी ।
मुंशी द्वारका परशाद ' उफ़ुक़' की इब्तिदाई तालीम घर से ही हुई बाद में कॉलेज में दाखिल हुआ लेकिन डिग्री हासिल नहीं की । अंग्रेजी जबान पर आपकी मजबूत पकड़ थी लेकिन मोहब्बत उर्दू , फारसी से थी खास तौर पर उर्दू से इतनी शदीद मुहब्बत के चलते जो भी किताब दिखती आप उसका उर्दू में तरजुमा करना शुरू कर दिया करते । इसी सिलसिले में आपने अंग्रेजी और हिंदी की मोटी मोटी किताबों का तर्जुमा उर्दू में कर डाला वो भी नज़्म और नसर दोनों में अपने उर्दू तर्जुमा को अंजाम दिया ।
आपको शेरों शायरी से खास लगाव था और हो भी क्यों न एक तो अदब से ताल्लुक रखने वाले खानदान में पैदाइश होना और मोहल्ला नौबस्ता का पुरसुकून अदब का माहौल मिलना आपके अदबी शौक की वजह थी ,
जैसा कि मैं पहले भी जिक्र किया था कि आपके नाना हुजूर का घर यानि आपका आबाई घर भी इल्म ओ अदब का जखीरा था । मुंशी शंकर दयाल 'फर्हत' आप के मामा हुजूर थे जो एक बहुत ही बाशऊर और आलिम शख्स थे और उनकी नज़्म रामायण बहुत मकबूल हुई । इस तरह अपने खानदान में अदब के माहौल से उफ़ुक़ साहब को अदब से निस्बत हासिल हुई।
आपने अपना पहला शेर नौ साल की छोटी उम्र में सुनाया । स्कूल में जब उनके उस्ताद उनसे सवाल किया करते थे तो आप उनका जवाब अशआरों से दिया करते और सभी को लाजवाब कर दिया करते थे । जब आपने शायरी की दुनिया में कदम रखा तब आपने ' दिल ' तखल्लुस से शायरी का आगाज किया । लेकिन कुछ अर्थ से बात ही आपने अपना तखल्लुस उफ़ुक़ रख लिया । और हम जानते हैं कि इसी तखल्लुस उफ़ुक़ से आप मशहूर हुए । आपने अपनी काबिलियत के जरिए अपनी शायरी की शोहरत दूर-दूर तक फैलाई । जब आपने शायरी का जौहर मुशायरों में जाहिर किया तो लोगों ने आपके कलाम को खूब पसंद किया । आपकी काबिलियत को देखते हुए राजा गिरधारी परशाद ' बांकी ' ने आपको हैदराबाद के मुशायरे में तशरीफ लाने की दावत दी । मुशायरा में अपने महफिल लूट ली आप शायर के तौर पर कायम हुए और मशहूर हुए तो हुजूर निजाम हैदराबाद ने आपका कलाम सुनने की ख्वाहिश जाहिर की । आप जब निजाम हैदराबाद के दरबार में हाज़िर हुए आपने अपना कलाम उनके सामने पेश किया । निजाम हैदराबाद साहब ने आपका कलाम सुना और आपका कलाम हुजूर निजाम हैदराबाद साहब को इतना पसंद आया और निजाम साहब इतना खुश हुए कि उन्होंने आपके हर शेर पर दाद दी आपको बेश कीमती तोहफो से नवाजा ।
आपने बहुत कम वक़्त में अपनी पहचान कायम कर ली थी । अब आम और खास लोग आपके कलाम को सुनने के लिए बेताब रहते , आप कुल हिंद में उस वक़्त के हर बड़े मुशायरों की शान थे , तमाम रियासत के महाराजा नवाब, निजाम आपको शाही मेहमान का दर्जा देकर मुशायरों में बुलाते हैदराबाद हो , लखनऊ , लाहौर, राजपूताना हो आप बतौर मेहमान खुसूसी मौजूद होते थे । लोग आपको " शायरों का शायर " कह कर प्यार और अदब के पुकारा करते थे , मानो यह आपका लकब हो ।
आपका दायरा ए फिक्र बहुत वसी और जामा था । आप शायर , नसर निगार, सहाफी , मूर्तजिम , नोवेल निगार , ड्रामा निगार, तंज ओ मिज़ाह,और ग़ज़ल । शायद अदब की ऐसी कोई सिन्फ नहीं होगी जिसमें आपकी कलम ने कमाल ना दिखाया हो । आप शायरी के उसूलों और नज़्म ओ ग्रामर के उसूलों के माहिर थे । अपने शायराना उसूलों पर भी बहुत से किताबें लिखी । आपको तारीख का भी गहरा इल्म था आपने उसका नसर लिखा और शायरी में भी आपको ऐसी महारत हासिल थी कि हर गुफ्तगू पर आपके मुंह से मिसरे और अशआर ही ज़ाहिर होते थे । जब आप किसी से गुफ्तगू कर रहे होते तो आपके पास हर मंजर के लिए मिसाल के तौर पर एक शेर हमेशा हाजिर रहता था जो हर मंजर पर दुरुस्त बैठता था ।
आपने एक अखबार भी निकाला " नज़्म अखबार " जिसमें सिर्फ शायरी ही शाया होती थी । सूबा ए अवध और पंजाब की निसाबी कमेटियों ने आपके कलाम को अपने हिसाब में जगह फराहम अता की । आपके चर्चे दूर-दूर तक थे एक वक्त की बात थी कि जब सल्तनत ईरान के बादशाह सुल्तान फतेह अली शाह के दामाद हजरत आग सैयद अली अब्बास ने दक्कन के निजाम सुल्तान मीर महबूब अली खान आसिफजाह के शाही दरबार में अपनी आमद के दौरान आपकी और आपके कलाम की बेहद तारीफ की । ऐसा ही एक वाक़िआ है कि हैदराबाद के ही एक मुशायरे में उर्दू के बहुत बड़े शायर हजरत दाग़ भी तशरीफ लाए हुए थे । जब महफिल में आपने अपना कलाम पेश किया तब हजरत दाग़ ने आपका कलाम सुनकर आपको और आपके कलाम को दिल खोलकर दाद दी ।
आपने नज़्म की हर किस्म में अपनी महारत का मुज़ाहिरा किया । आपने ग़ज़ल ,कसीदा , रुबाई , मुसद्दस , मसनवी , गरज़ सब कुछ लिखा है । ग़ज़ल के अलावा बाकी नज्मों में पिन्द और नसाईह ( नसीहत या नसीहतआमेज नज्में ) तारीखी वाकयात और मजहबी रिवायात शामिल है ।
जिससे आप मशहूर और मकबूल हुए वह थी " रामायण यक क़ाफ़िया मन्जूमए 'उफुक़' " । जिनमे एक-एक क़ाफ़िया है ।
अगर सिर्फ आपके इस एक काम को ही देखा जाए तो यह आपकी महारत और फजीलत का एक जबरदस्त सबूत है और वाकई मुनफरीद है ।
'उफुक़' साहब का अदब के एतबार से इतना बेहतरीन काम है जो आज तलक एक मिसाल कायम किए हुए है ।
कुछ उनकी तहरीर किताबों का आज नामोनिशान भी नहीं मिलता है और जो किताबें आम आवाम तक पहुंची तो वह बहुत मकबूल हुई
उनकी तहरीर किताबों में सबसे मकबूल हुई उर्दू रामायण यक क़ाफ़िया
मन्जूमए 'उफुक़' । जिसने आज तलक 'उफुक़' साहब को लोगों के दिलों में जिंदा रखा है । उर्दू रामायण यक क़ाफ़िया
मन्जूमए 'उफुक़' नज़्म शैली में तहरीर है जिसमें कुल रामायण समाई हुई है।
आज के दौर में जब भाषाओं को लेकर विवाद चरम पर है तब हमें 'उफुक़' साहब जैसी शख्सियत को याद करना चाहिए । जिन्होंने उर्दू को कभी पराया नहीं समझा क्योंकि उर्दू आपकी मादरी जबान थी,।
उफ़ुक़ साहब को अपनी जवानी के दौर में एक लत लग गई थी शराब की लत । जो उनके मरते दम तक उनके साथ रही । आखिरी वक्त में आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती थी । आपको दमे का रोग लग गया था जो आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही जा रहा था और कभी ठीक नहीं हुआ । एक और गजब हुआ आपके जानशीन साहबजादे रामशंकर परशाद मार्च 1913 में इंतकाल फरमा गए । अपने होनहार बेटे की वफात सचमुच दिल तोड़ देने वाली थी । बेटे की वफात के गम से आप उभर नहीं पाए । ग़मगीन आंखों ने बिनाई खो दी। फिर चंद माह बाद उर्दू अदब के अज़ीम शायर मुंशी द्वारका परशाद उफ़ुक़ साहब सितंबर 1913 में इस जहां ए फ़ानी से अलविदा कहकर रुखसत हो गए ।
आपने अख़लाकियत और तारीख पर बेशुमार मुख्तसर नज्में लिखी है । अपने अपने समाज कायस्थ समाज पर भी नज्में लिखी है। उनकी तख़लीकात के वसी और कीमती खजाने को देखकर औफ़ाक की काबिलियत और तहरीरी सलाहियत पर हैरान रह जाते है ।
आपने अपनी पूरी जिंदगी अदब के नाम लिख दी । आपने जो कुछ भी लिखा आम फहम में मकबूल और मशहूर हो गया । चाहे वह किताब की शक्ल में हो या अखबार में शाया हुआ हो । लोग आपको इसीलिए पढ़ते थे और आज भी पढ़ते हैं क्योंकि आपकी तहरीर सहज और सरल थी और इसमें उर्दू के साथ-साथ पढ़ने वाले को लखनवी तहज़ीब का दीदार होता था ।
नमूना ए कलाम
रामचन्द्र जी की वन से वापसी
जब हुई काफूर बुस्ताने' ज़माना से ख़िज़ां।
राम के दिल में हुई मसकन गुर्जी यादे मकां ।। अफसराने फौज़ पर ज़ाहिर किया अज़्मे वतन । हुक्म फरमाया पये तैय्यारिए फ़ौजे गिरां ।। हो गया पल मारने में लैस सामाने सफर।
हुक्म की तामील को हाज़िर हुए पीरो जवां ।। राम लछमन जानकी तीनों सवारे रथ हुए। जीते घुड़दौड़ अशहबे सर सर से शबदेज़े' दवा ।। मोरछल झलते थे बजरंगी श्री शंकर सुवन। दायें बायें, आगे पीछे, ख़िसो मैमूं थे रवां ।। नेमराज, अंगद, सुखन, बावन, चंदावल, जामवंत। नील, नल, सुग्रीव, धूमर, केसरी थे हमइनां ।। सीनये पुल' चाक फ़रमाया श्री रघुबीर ने। बन्द कर दी आमदो रफ़्ते" गिरोहे सरकशां ।। हुक्म फरमाया मोहब्बत से विभीषण के लिये। शौके हमराही' को समझे पैरवीये रायगां' ।। लुत्फ उठायें ताजपोशी के, मज़े आराम के। बन्दगाने ख़ल्क' को रक्खे करम से शादमां ।। की विभीषण ने गुज़ारिश यह कभी मुमकिन नहीं। है कदम बोसीये अक्दस से बहारे जाविदां ।। मैं न जीते जी कदम छोडूंगा मेंहदी की तरह। तख़्ते शाही है मुझे दौलतसरा की आस्तां ।। अर्ज़ अहले आरज़ू मंजूर की रघुनाथ ने। रायते लश्कर को दिखलाये अयोध्या के निशां ।।
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