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बातें उर्दू अदब की : विश्व उर्दू दिवस पर बतौर ए ख़ास, गंगा-जमुनी संस्कृति की पहचान

 

- इमरोज़ नदीम 

RNE Network.
 

( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

विश्व उर्दू दिवस पर बतौर ए ख़ास:

उर्दू — यह सिर्फ़ एक ज़ुबान नहीं, बल्कि एक जज़्बा है; मोहब्बत, तहज़ीब और इंसानियत की आवाज़ है। यह ज़ुबान दिलों को जोड़ती है, नफ़रतों की दीवार नहीं खड़ी करती। हर साल 9 नवंबर को विश्व उर्दू दिवस (World Urdu Day) मनाया जाता है — ताकि हम इस ज़ुबान की उस विरासत को याद करें जिसने सैकड़ों साल से  समाज को जोड़कर रखा है।

 उर्दू की पैदाइश: गंगा-जमुनी तहज़ीब की गोद में:

उर्दू की जड़ें हिंदुस्तान की उस मिट्टी में हैं जहाँ गंगा और जमुना की तरह भाषाएँ और संस्कृतियाँ एक-दूसरे में घुल-मिल गईं। यह भाषा दिल्ली के बाज़ारों, लखनऊ की चौक गलियों और दकन के सूफ़ियाना दरबारों से जन्मी।
उर्दू ने न कभी धर्म देखा, न जात — उसने सिर्फ़ इंसान को देखा।

 

 इब्तिदाई उर्दू शायर: वाली, कुतुब शाह और ग़ालिब
 

उर्दू अदब की शुरुआत दकन से हुई।
 

वाली दक्कनी (1667–1707) को “बाबा-ए-उर्दू शायरी” कहा जाता है। उन्होंने दकनी बोली में ऐसी शायरी की जो बाद में दिल्ली तक पहुँची और उर्दू शायरी की नींव बनी।
कुली कुतुब शाह, गोलकुंडा के सुल्तान और शायर, ने उर्दू को पहली बार दरबारी और सूफ़ियाना रंग दिया।
और फिर आए मिर्ज़ा ग़ालिब, जिन्होंने उर्दू को फ़लसफ़े और दर्द की ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

 

उनकी शायरी में इंसान की बेचैनी, तन्हाई और सदियों की सच्चाई झलकती है —
 

 “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले…”

 हिंदू शायरों का योगदान:

उर्दू सिर्फ़ मुसलमानों की ज़ुबान नहीं — यह हिंदुस्तान की रूह की ज़ुबान है।
हिंदू शायरों और लेखकों ने उर्दू अदब में उतना ही योगदान दिया जितना किसी और ने।

पंडित दया शंकर ‘नसीम’ की “गुलज़ार-ए-नसीम” उर्दू की शाहकार मानी जाती है।

ब्रज नारायण ‘चकबस्त’ ने राष्ट्रभक्ति को उर्दू शायरी का रंग दिया 
 

 “हम वतन के नौजवां हैं, वतन पर मर मिटेंगे हम…”
 

फिराक़ गोरखपुरी जैसे शायरों ने उर्दू को आधुनिक विचार और मानवीय संवेदना दी।
महरिषि मनोहर लाल ‘जगन्नाथ आज़ाद’, जिन्होंने पाकिस्तान के लिए  राष्ट्रगीत लिखा , उर्दू के हिंदू शायर थे।
इन सबने साबित किया कि उर्दू की आत्मा किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं, बल्कि सबकी है।

 

मुंशी नवल किशोर: उर्दू अदब के संरक्षक:
 

19वीं सदी में जब उर्दू अदब अपनी प्रिंटिंग और प्रकाशन यात्रा पर था, तब मुंशी नवल किशोर का नाम सोने के अक्षरों में दर्ज हुआ।
लखनऊ में स्थापित उनकी नवल किशोर प्रेस (1858) ने उर्दू की सैकड़ों किताबें, धार्मिक ग्रंथ, अख़बार और रिसाले प्रकाशित किए।
उनकी कोशिशों से ग़ालिब, सर सैयद, और मौलाना शिब्ली की रचनाएँ घर-घर पहुँचीं।
उन्होंने उर्दू अदब को छपाई के ज़रिए जन-जन तक पहुँचाकर इसे आधुनिक युग में ज़िंदा रखा।

 

विश्व उर्दू दिवस का पैगाम:

विश्व उर्दू दिवस हमें याद दिलाता है कि उर्दू महज़ एक भाषा नहीं — यह हमारी साझी संस्कृति की पहचान है।
यह वो ज़ुबान है जिसमें “आप”, “अदब”, “मेहरबानी” और “जनाब” जैसे शब्द सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि तमीज़ और तहज़ीब की पहचान हैं।
आज जब समाज में दूरियाँ बढ़ रही हैं, उर्दू हमें एकता और मोहब्बत की तालीम देती है।

 

 “उर्दू में जो भी बात करो, दिल तक उतर जाती है;
यह ज़ुबान बोलने से पहले सुनने का सलीक़ा सिखाती है।”

 

इस विश्व उर्दू दिवस पर आइए, हम सब इस ज़ुबान को सिर्फ़ पढ़ें नहीं, बल्कि अपने रोज़मर्रा के रवैये में उतारें —
 

क्योंकि उर्दू लफ़्ज़ों की नहीं, दिलों की ज़ुबान है।

है 'ज़ौक़' की अज़्मत कि दिए मुझ को सहारे
'चकबस्त' की उल्फ़त ने मिरे ख़्वाब सँवारे

'फ़ानी' ने सजाए मिरी पलकों पे सितारे
'अकबर' ने रचाई मिरी बे-रंग हथेली

उर्दू है मिरा नाम मैं 'ख़ुसरव' की पहेली
क्यूँ मुझ को बनाते हो तअस्सुब का निशाना

मैं ने तो कभी ख़ुद को मुसलमाँ नहीं माना
देखा था कभी मैं ने भी ख़ुशियों का ज़माना

अपने ही वतन में हूँ मगर आज अकेली