उर्दू अदब की बातें : दिल्ली से लखनऊ तक मीर की शायरी की अमर दास्तान
इमरोज़ नदीम
RNE Special
( आज से हम साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु कर रहे है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )
उर्दू अदब की तवारीख़ में मीर तकी मीर का नाम एक बुनियादी और तामीरी शायर के तौर पर लिया जाता है। उन्हें न सिर्फ़ “नाख़ुदा-ए-सुख़न” कहा गया बल्कि उर्दू ग़ज़ल का पहला मुकम्मल शायर भी माना गया। उनकी शायरी का दायरा इश्क़, तन्हाई, हिज्र, समाजी हालात और इंसानी जज़्बात की गहराई तक फैला हुआ है। मीर की अहमियत इस बात से भी साबित होती है कि ग़ालिब जैसे शायर ने उनके फ़न की श्रेष्ठता को खुलकर स्वीकार किया।
मीर का असली नाम मोहम्मद तकी था। 28 मई 1723 को आगरा में जन्मे। बचपन में ही पिता के इंतिक़ाल ने उन्हें ग़म और मुफ़लिसी की दुनिया में ला दिया। 18वीं सदी का हिंदुस्तान सियासी उथल-पुथल और नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली जैसे हमलावरों की तबाही से जूझ रहा था। दिल्ली उजड़ रही थी और नई तहज़ीबी सरज़मीन के तौर पर लखनऊ उभर रहा था। इसी माहौल ने मीर की शख़्सियत और शायरी दोनों पर गहरा असर डाला।
मीर की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी सादगी और असर-अंगेज़ी है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को महज़ तफ़रीही या सजावटी जुमलों से निकालकर दिल की गहराइयों का आईना बना दिया।
उनकी ग़ज़लों में चार बुनियादी पहलू साफ़ दिखाई देते हैं-
1. इश्क़ का दर्द और हिज्र की शिद्दत
2. ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तें
3. समाजी और तहज़ीबी तब्दीलियाँ
4. आत्मकथात्मक झलकियाँ
मीर का मशहूर शेर उनकी पूरी शायरी का निचोड़ माना जा सकता है:
“पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।”
मीर ने उर्दू में छह दीवान मुरत्तिब किए, जिनमें ग़ज़लें, क़सीदे, मसनवियाँ और रुबाइयाँ शामिल हैं। नस्र में उनकी तीन किताबें नुक़ात-उश-शुअरा, ज़िक्र-ए-मीर और फ़ैज़-ए-मीर उर्दू अदब के कीमती ख़ज़ाने मानी जाती हैं। इसके अलावा एक फ़ारसी दीवान भी मौजूद है।
अक्सर उर्दू अदब में “मीर बनाम ग़ालिब” की बहस मिलती है। ग़ालिब शायरी में फ़लसफ़ा लाते हैं, जबकि मीर दिल का सीधा दर्द बयान करते हैं। इस नज़र से कहा जा सकता है कि मीर की शायरी “दिल” की शायरी है और ग़ालिब की शायरी “दिमाग़” की। यही वजह है कि उर्दू ग़ज़ल की रूहानी बुनियाद में मीर नुमायां होते हैं।
मीर की शायरी ने उर्दू अदब को दिशा दी। उनके बाद आने वाले हर शायर — ग़ालिब, दाग़, मोमिन, अनीस — किसी न किसी अंदाज़ में मीर से प्रभावित हुए। उर्दू की तहरीर और तक़रीर दोनों में मीर का असर आज भी क़ायम है।
मीर तकी मीर की शायरी महज़ अठारहवीं सदी की दस्तावेज़ी गवाही नहीं, बल्कि इंसान के दिल की दास्तान है। उनके अशआर आज भी उतने ही असर-अंगेज़ हैं जितने उनके दौर में थे। यही वजह है कि उन्हें “नाख़ुदा-ए-सुख़न” कहा गया और उनकी शख़्सियत उर्दू शायरी के लिए एक ख़ास अहमियत रखती है। मीर साहब के पिता अली मुत्तक़ी अपने ज़माने के साहिब-ए-करामत बुज़ुर्ग थे। उनके अज़दाद(पूर्वज) हिजाज़ से तर्क-ए-सुकूनत करके हिन्दुस्तान आए थे और कुछ अरसा हैदराबाद और अहमदाबाद में गुज़ार कर आगरा में मुक़ीम हो गए थे। मीर 28 मई 1723 को आगरा में ही पैदा हुए। मीर की उम्र जब ग्यारह–बारह बरस की थी, उनके वालिद का इंतकाल हो गया। मीर के मुँह बोले चाचा अमानुल्लाह दरवेश, जिनसे मीर बहुत मानूस थे, पहले ही वफ़ात पा चुके थे। इसका मीर को गहरा सदमा था। बाप और अपने मशफ़िक अमानुल्लाह की मौत ने मीर के ज़ेहन पर ग़म के दीर्घकालीन नक़्श छोड़ दिए जो उनकी शायरी में जगह-जगह मिलते हैं।
वालिद की वफ़ात के बाद उनके सौतेले भाई मोहम्मद हसन ने उनके सर पर शफ़क़त का हाथ नहीं रखा। तक़रीबन चौदह साल की उम्र में दिल्ली आ गए। दिल्ली में सिम्सामुद्दौला, अमीर-उल-उमरा उनके वालिद के अ़क़ीदतमंदों में से थे। उन्होंने उनका एक रुपया रोजाना मुक़र्रर कर दिया जो उन्हें नादिर शाह के हमले तक मिलता रहा। सिम्सामुद्दौला नादिर शाही क़त्ल-ओ-ग़ारत में मारे गए और ज़रिया-ए-मआश बंद हो जाने की वजह से मीर को आगरा लौटना पड़ा।
कहा जाता है कि वहां उन्हें अपनी एक अज़ीज़ा से इश्क़ हो गया था जिसे खानदान वालों ने नापसंद किया और उन्हें आगरा छोड़ना पड़ा। वे फिर दिल्ली आए और अपने सौतेले भाई के मामू तथा उस वक़्त के जलीलुलक़दर आलिम, सराजुद्दीन आरज़ू के पास ठहरकर तालीम हासिल करने की कोशिश की। नुक़ात-उश-शुआरा में मीर ने उन्हें अपना उस्ताद कहा है लेकिन ज़िक्र-ए-मीर में जफ़री अली अज़ीमाबादी और अमरोहा के सआदत अली खाँ को अपना उस्ताद बताया है।
हालात से मायूस और इश्क़ के दुख से टूटे मीर लम्बे वक़्त तक बेचैनी के शिकार रहे। आगे चलकर उन्होंने क़मरुद्दीन के नाती रिआयत खाँ की सोहबत, फिर जावेद खाँ ख़्वाजा से ताल्लुक, और बाद में कई दूसरों के सहारे ज़िन्दगी गुज़ारी, मगर उन्हें कभी लंबे अरसे तक राहत हासिल नहीं हुई। आखिरकार जब दिल्ली उजड़ गई और लखनऊ आबाद हुआ तो नवाब आसिफ़ुद्दौला ने उन्हें बुला लिया। मीर ने लखनऊ को बहुत बुरा-भला कहा लेकिन वहीं रहे और वहीं तक़रीबन 90 साल की उम्र में, 21 सितम्बर 1810 को उनका इंतकाल हुआ।
नाख़ुदा-ए-सुख़न, मीर तकी मीर के चुनिंदा अशआर ख़िराज-ए-अक़ीदत के तौर पर पेश हैं:
चुनिंदा अशआर
मत सहल हमें जानो फिरता है फलक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इनसान निकलते हैं
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी एक गुलाब की-सी है
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया
दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
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