भीड़ से अलग कवि के रूप में अपनी पहचान बनाई बुलाकी दास ' बावरा ' ने, शब्द की साधना की, शब्द को संस्कार दिये इस कवि ने
हिंदी - राजस्थानी भाषा के साधक इस जनकवि का मंचों पर था वर्चस्व
शब्द की एक मजबूत परंपरा को छोड़ा अपने पीछे बावरा ने
अभिषेक आचार्य
RNE Special.
( रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस RNE ने अपने पाठकों से वादा किया हुआ है कि साहित्य, कला, संस्कृति व पत्रकारिता में उल्लेखनीय काम करने वाले सृजनधर्मियों के काम से वो उनके जन्मदिन व स्मरण दिवस पर परिचित करायेगी। आज जन कवि बुलाकी दास ' बावरा ' की पुण्यतिथि है। उनको सादर नमन। -- संपादक )
मेरी काव्य साधना
कोई सौदा या व्यापार नहीं
मैं किसी सिकन्दर के आगे
झुकने को तैयार नहीं
बेबाकी से यह बात कहने का हौसला हर किसी में संभव नहीं, यह बात तो पूरे दम से केवल जनकवि बुलाकी दास ' बावरा ' ही कह सकते है। जन जन की आवाज बनकर उनके कंठों में बसने आला जनकवि होता है। जन के कंठ में वही बस सकता है जो जन के दिल में उतरकर उसकी आत्मा को झंकृत कर दे। तभी तो जन के कंठों से किसी कवि की कविता निकलती है। बीकानेर के लाडले कवि बुलाकी दास ' बावरा ' को ही ये श्रेय प्राप्त हुआ कि जनता उनकी पंक्तियों को दोहराती थी। उनकी अनुपस्थिति में उनकी पंक्तियों को सुनाती थी। बावरा की कविताएं और उनके गीत लोगों के दिलों में बसे हुए थे। मंच पर जब बावरा कविता सुनाने के लिए खड़े होते थे तो लोग चुप हो जाते थे। उनको पता होता था कि ये लंबे कद का कवि उनके हित की बात ही बोलेगा। उनकी उम्मीद को बावरा पूरा भी करते थे।
भीड़ से अलग पहचान थी बावरा की:
उस समय मंचों पर कवियों की भीड़ होती थी। बहुत कवि थे और अच्छे कवि भी उनमें थे। ये वो दौर था जब हरीश भादानी, धनंजय वर्मा, मोहम्मद सदीक, भवानी शंकर व्यास ' विनोद ', अजीज आजाद, लालचंद भावुक, सरल विशारद जैसे मंचीय मंचीय कवि भी थे। उनके बीच बावरा ने अपनी पहचान अलग पहचान बनाई। यह पहचान एक तरफ जहां उनके लंबे कद से थी तो वहीं उनकी कविताओं से भी अलहदा पहचान थी। ओज का स्वर उनको सबसे अलग करता था। शब्द उनके मुंह से एक सरिता की तरह बहते हुए निकलते थे। इस कारण ही अलग दिखने वाले कवि थे।
सच्चे शब्द साधक थे बावरा:
बावरा साब के पूरे काव्य कर्म को गंभीरता से देखें तो एक बात पर बरबस ही नजर जाती है, वह है शब्दों का चयन। उनकी कविताओं और गीतों में हर शब्द एक साधना के बाद प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। वे शब्दों का आडंबर नहीं रचते अपनी कविताओं में। बोझिल नहीं करते। सबसे बड़ी खूबी यह कि वे अनावश्यक रूप से शब्द खर्च भी नहीं करते।
बावरा साब के काव्यकर्म को देखकर बरबस ही डॉ अर्जुन देव चारण की कही बात याद आ जाती है। डॉ चारण कहते है कि कवि वह जो कम शब्दों में बड़ी बात कहे। विराट को लघुता में कहना ही कवि व कविता का धर्म है। इस पैमाने पर कवि बुलाकी दास बावरा शत प्रतिशत खरे उतरते है।
कमजोर के साथ खड़े दिखते है वे:
जन कवि बुलाकी दास बावरा अपनी पूरी काव्य साधना में कमजोर आदमी के साथ खड़े नजर आते है। मजदूर, किसान व आम आदमी के कवि बावरा पैरोकार थे। उनकी हर रचना इनके हक़ की, इनकी वैभूति की, इनकी समृद्धि की तरफदारी करती नजर आती है। समाजवाद के विचार से वे गहरे तक प्रभावित थे तो आम आदमी की बात करना उनका स्वभाव भी था।
समाजवादी विचार के प्रसार में भी इस कवि की बड़ी भूमिका थी। वे जन जन के कवि बने। उनके मामा व समाजवादी नेता विधायक मुरलीधर व्यास थे। उनके चुनाव में बावरा जी कविता कईयों का मानस व सोच बदल देती थी। ये प्रभाव कम ही कवियों में देखने को मिलता है।
श्रृंगार के भी वे समर्थ कवि थे:
बुलाकी दास बावरा श्रृंगार के भी बड़े कवि थे। राजस्थानी के उनके गीत श्रृंगार की नई नई अनुभूतियों व प्रतीकों से भरे पड़े है। उनकी इकलौती कालजयी रचना ' पनिहारिन ' श्रृंगार का बड़ा गीत है। जो आज भी लोग चाव से गाते है।
मजबूत विरासत है बावरा की:
बावरा जी ने खुद तो शब्द की साधना की ही, इस स्वभाव की एक विरासत भी वे छोड़कर गये। ये त्याग बहुत कम लोग करते है। उनके पुत्र संजय पुरोहित हिंदी व राजस्थानी के समर्थ कवि, कथाकार होने के साथ हो श्रेष्ठ अनुवादक भी है। उनको साहित्य अकादमी, नई दिल्ली का सर्वोच्च अनुवाद पुरस्कार भी मिला हुआ है। संजय पुरोहित का हिंदी, राजस्थानी व अंग्रेजी भाषाओं पर पूरा अधिकार है। उनकी दो पुत्रियों वंदना आचार्य व डॉ चेतना आचार्य ने हिंदी साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। इस तरह एक मजबूत विरासत कवि बावरा ने छोड़ी है।
उनकी पुण्यतिथि पर रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस परिवार की तरफ से श्रद्धा सुमन।