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उन्मेष: 'व्यूफाइंडर' पर अमोल पालेकर ने साझा किए छह दशकों के सांस्कृतिक आस्वाद, कहा- समांतर सिनेमा का उत्कर्ष था वो दौर

 
RNE PATNA .
 पटना 28 सितंबर 2025 साहित्य अकादेमी और संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम उन्मेष के चौथे दिन शंकरदेव सभागार में व्यूफाइंडर: छह दशकों का सांस्कृतिक आस्वाद विषय पर आशुतोष ठाकुर ने अमोल पालेकर से उनकी आत्मकथा से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। इस चर्चा में संध्या गोखले ने भी अपनी बात रखी।
 एक सवाल के जबाव में अमोल पालेकर ने कहा कि इस किताब पर काम करते हुए ये महसूस हुआ कि अगर हम पारंपरिक तरीके से अपनी कहानी लिखेंगे तो किताब उबाऊ हो जाएगी। तो हमने बहुत सोच विचार करने के बाद यह तय किया कि जैसे जैसे कहानी याद आती जाएगी हम वैसे ही लिखते भी जाएंगे। ये जरूरी नहीं है कि हम बचपन से शुरू करें और फिर युवावस्था और आज की कहानी लिखें। कहानी लिखने का तरीका अलग भी हो सकता है। आशुतोष ठाकुर के प्रश्न कि  70-80 के दशक में अमिताभ का दौर था, एंग्री यंग मैन का दौर था, रोमांस का दौर था आपने आकर उस सिनेमा में बदलाव किया। ये कैसे संभव हुआ ? पर अमोल पालेकर ने कहा कि वो दौर ऐसा था जहां हीरो को अकेले बिना हथियार के तीस तीस लोगों से लड़ते हुए दिखाया गया। ये विश्वास करने योग्य बात नहीं है। लोग भले ही उसको देख रहे थे लेकिन उस कहानी से जुड़ नहीं पाते थे। जब मैंने सिनेमा बनाना शुरू किया तब इस बात का ख्याल रखा कि ऐसी कहानियों को कहा जाए जिसमें आम आदमी खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर पाए। और जैसे ही फिल्मी किरदारों से जनता का जुड़ाव हुआ तो फिल्में सफल होने लगी। और सिनेमा के लिए एक नया रास्ता बन गया। लोगों ने सिर्फ ऐसी फिल्मों को पसंद ही नहीं किया उसकी सराहना भी खूब हुई। यह समांतर सिनेमा का उत्कर्ष था।
जब मैं फिल्में बना रहा था वो दौर बहुत कठिन था। जो जितना बड़ा सितारा था वो उतनी देर से आता था। आप इसको ऐसा भी कह सकते हैं कि जो जितनी देर से आयेंगे वो उतने बड़े सितारे हैं। समय की कद्र नहीं थी। मैंने हमेशा जिनके साथ भी काम किया उनके साथ बहुत ईमानदार रहा। हां मैं अपने काम को लेकर बहुत सलेक्टिव था। मैं पहले ही निर्देशक को कह देता था कि मैं आठ घंटे ही काम करूंगा। और समय से एक दिन भी आगे काम नहीं करूंगा क्योंकि मुझे नाटक की तैयारी के लिए जाना होता है। 
बंगाली रंगमंच से जुड़ाव पर उन्होंने कहा कि 
बादल सरकार, शंभू मित्र, बासु चटर्जी , ऋषिकेश मुखर्जी जैसे लोगों से मेरा गहरा नाता रहा है। मैंने बंगाली रंगमंच के लिए बंगाली भाषा सीखी है। और बंगाल रंगमंच के कई नाटकों का अनुवाद भी किया है। आगे उन्होंने कहा कि मैंने क्षेत्रीय सिनेमा में सीखने के उद्देश्य से बहुत काम किया है। मैंने बिहार की एक भाषा अंगिका की एक फिल्म में भी काम किया है। और इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मैं बिहार और बंगाल की सीमा पर देवधर में रहा।  
संध्या गोखले ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि किताब लिखने के दौरान अमोल पालेकर ने सिर्फ अपनी कहानी को याद नहीं किया बल्कि फिल्मी दुनिया के हर किरदार को याद किया। अपने सुख दुख, संघर्ष और सफलता को भी याद किया तथा जितना संभव हो पाया उसको किताब में स्थान देने का भरसक प्रयास किया गया। आज क्षेत्रीय सिनेमा में बहुत अच्छा काम हो रहा है। वो मुख्यधारा सिनेमा का हिस्सा बन गई है।