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बातें उर्दू अदब कीं : उर्दू अदब का सच्चा रहनुमा, गोपीचंद नारंग का फ़िक्र और फ़न भरा सफ़र

 

बातें उर्दू अदब कीं

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

गोपीचंद नारंग — फ़िक्र, फ़न और अदब का सफ़र

उर्दू अदब की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं जिनका ज़िक्र आते ही दिल अदब से झुक जाता है। गोपीचंद नारंग उन्हीं में से एक थे — एक ऐसा नाम जिसने उर्दू ज़बान को सिर्फ़ इल्म का हिस्सा नहीं, बल्कि मोहब्बत, तहज़ीब और तालीम की ज़बान बना दिया।

गोपीचंद नारंग का ताल्लुक़ बलोचिस्तान (अब पाकिस्तान) के एक छोटे से कस्बे से था। हिंदुस्तान की तक़सीम के बाद वे दिल्ली आ गए और यहीं से उनका रिश्ता उर्दू अदब से यूँ जुड़ा कि ज़िंदगी का हर लम्हा उर्दू के नाम कर दिया। उन्होंने साबित किया कि ज़बान का कोई मज़हब नहीं होता — उर्दू सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं, बल्कि हिंदुस्तान  की ज़बान है।
 

गोपीचंद नारंग एक ऐसी शख्सियत थे जिन्हें भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान ने भी कई एजाज़ से नवाजा ।
 

नारंग साहब की उर्दू ज़बान से बेपनाह मोहब्बत थी ।

इल्मी सफ़र और अदबी कारनामे:

गोपीचंद नारंग ने उर्दू तालीम की दुनिया में ना सिर्फ़ बतौर टीचर, बल्कि बतौर आलिम-ए-अदब भी ख़ास मक़ाम हासिल किया। उनकी किताबें — साक़ी नाम, इस्लामी सौंदर्यशास्त्र और उर्दू शायरी, मीर ग़ालिब और अदबी रवायतें, और नवीन आलोचना की दिशा — उर्दू अदब के तज़्किरों में आज भी मील का पत्थर मानी जाती हैं।

उन्होंने उर्दू आलोचना में एक नया तजुर्बा पेश किया — जिसमें उन्होंने ना सिर्फ़ मज़मून और लफ़्ज़ पर ध्यान दिया, बल्कि मआनी (मतलब), तसव्वुरात, और तहज़ीबी असरात को भी शामिल किया।

ग़ालिब, मीर और नई नज़्म का ज़िक्र:

गोपीचंद नारंग की सोच यह थी कि उर्दू अदब एक बहता हुआ दरिया है, जिसमें मीर की नर्मी, ग़ालिब की फ़लसफ़ियाना गहराई और फ़ैज़ की इनक़लाबी रूह एक साथ मौजूद हैं।
 

उन्होंने बारहा कहा  “उर्दू की ज़बान दिल की ज़बान है, और अदब उसका आइना।”
 

उनकी आलोचना में सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि एहसास का ज़िक्र मिलता है। वो ग़ालिब को पढ़ते हैं तो उसमें इंसान की तन्हाई ढूंढते हैं, और फ़ैज़ को समझते हैं तो उसमें उम्मीद की रौशनी।

उर्दू की पैरवी और तहज़ीब का पैग़ाम:

गोपीचंद नारंग ने हमेशा उर्दू को मज़हबी नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब की ज़बान बताया।

उनका कहना था  “उर्दू हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबू है। यह ज़बान मंदिर और मस्जिद के बीच की सरहद नहीं, बल्कि दोनों को जोड़ने वाला पुल है।”
 

उन्होंने नई नस्ल को यह तालीम दी कि उर्दू पढ़ना सिर्फ़ अल्फ़ाज़ जानना नहीं, बल्कि अपने अतीत और तहज़ीब से वाबस्ता रहना है।
 

हिंदी ज़ुबान वालों के लिए उर्दू की रहनुमाई:

गोपीचंद नारंग की सबसे बड़ी ख़िदमतों में से एक यह भी थी कि उन्होंने उन लोगों के लिए कई अहम और आसान किताबें तहरीर कीं, जिन्हें उर्दू पढ़नी तो नहीं आती थी, लेकिन उर्दू से मोहब्बत बे-इंतिहा थी।
उन्होंने महसूस किया कि हिंदुस्तान में बड़ी तादाद ऐसे शिद्दत-ए-इश्क़ रखने वालों की है, जो उर्दू शायरी, ग़ज़ल, दास्तान और अदब की दुनिया में क़दम रखना चाहते हैं, मगर ख़त-ओ-हरफ़ से वाक़िफ़ नहीं हैं।

इसी लिए नारंग साहब ने हिंदी ज़बान वालों के लिए उर्दू सीखने का दरवाज़ा खोला—
 

आसान लफ़्ज़ों में उर्दू की तालीम,
हिंदी लिपि के सहारे उर्दू की समझ,
और उर्दू के नज़्म-ओ-नज़रिए को बिल्कुल सादगी से बयान किया।

उनकी ये किताबें आज भी उन तमाम शौक़ीन लोगों के लिए रहनुमा हैं, जो उर्दू की ख़ुशबू को अपने दिल में बसाना चाहते हैं।

आख़िरी फ़िक्र:

गोपीचंद नारंग साहब का इंतिक़ाल (2022) उर्दू अदब के लिए एक बड़ा नुक़सान था, मगर उनका छोड़ा हुआ इल्मी ख़ज़ाना आज भी ज़िंदा है। उनकी सोच, उनकी किताबें, और उनका अदबी असर आने वाली नस्लों के लिए रहनुमा साबित होंगे।
 

गोपीचंद नारंग इस बात की मिसाल हैं कि उर्दू ज़बान महज़ लफ़्ज़ों का जाम नहीं, बल्कि मोहब्बत, फ़िक्र और इंसानियत का पैग़ाम है।
“बातें उर्दू अदब कीं” जब भी होगीं, नारंग साहब का नाम हमेशा उसमें शम्स की तरह चमकेगा।