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परवीन शाकिर : उर्दू शायरी में अहसास, जब जज़्बात और बग़ावत की नर्म आवाज़

 

बातें उर्दू अदब की

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

उर्दू शायरी की तारीख़ में अगर किसी एक शायरा ने इश्क़, हिज्र, तन्हाई, ख़्वाहिश, ख़ुद्दारी और निसाई वजूद को पूरी शिद्दत और सच्चाई के साथ आवाज़ दी है, तो वह नाम सैयदा परवीन शाकिर का है। वह सिर्फ़ एक शायरा नहीं थीं, बल्कि उर्दू अदब में औरत के जज़्बाती वजूद की मुकम्मल तस्वीर थीं। उनकी शायरी में ना बनावट है, ना तक़ल्लुफ़ की चाशनी — बल्कि एक सादा, शफ़्फ़ाफ़ और ज़ख़्मी दिल की सदा है।
शायद यही वजह थी कि अदब के ऐतबार से उन्हें मिर्ज़ा ग़ालिब की बेटी कहा गया । 

शख़्सियत और तालीमी पस-ए-मंज़र:

परवीन शाकिर का पूरा नाम परवीन शाकिर सिद्दीक़ी था। उनका जन्म 24 नवंबर 1952 को कराची में हुआ। उन्होंने बहुत कम उम्र में शायरी की दुनिया में क़दम रखा, मगर उनकी शायरी में बचपना नहीं, बल्कि एक पुख़्ता ज़ेहन और तजुर्बात की गहराई दिखाई देती है।
 

उन्होंने अंग्रेज़ी अदब में एम.ए. किया और बाद में पीएच.डी. भी हासिल की।  सिविल सर्विस से भी वाबस्ता रहीं, लेकिन उनकी असल पहचान उर्दू शायरी ही बनी।

परवीन शाकिर की शायरी : निसाई एहसास की इंकलाबी ज़ुबान:

परवीन शाकिर से पहले उर्दू ग़ज़ल की दुनिया में औरत अक्सर मख़लूक़-ए-ख़्वाब, महबूबा, मुस्कुराती तस्वीर या ख़ामोश किरदार बनकर मौजूद थी। परवीन शाकिर ने पहली बार औरत को मुतकल्लिम (बोलने वाली) बनाया।
उन्होंने “मैं” कहा — और यह “मैं” कमज़ोर नहीं, बल्कि संवेदनशील होते हुए भी मुख़्तार थी।

 

उनकी शायरी में इश्क़ सिर्फ़ इबादत नहीं, बल्कि सवाल भी है; वफ़ा सिर्फ़ फ़र्ज़ नहीं, बल्कि तलब भी है; और जुदाई सिर्फ़ सब्र नहीं, बल्कि शिकवा भी।

कुछ तो हवा भी सर्द थी, कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ-साथ होता रहा मलाल भी

यह शेर परवीन शाकिर की शायरी का निचोड़ है — जहाँ ख़ुशी और ग़म, वस्ल और हिज्र, उम्मीद और मायूसी एक साथ सांस लेते हैं।

लहजा, उस्लूब और ज़ुबान:

परवीन शाकिर का सबसे बड़ा कमाल उनका लहजा है। उनकी शायरी में तल्ख़ी भी है, मगर वह तल्ख़ी ज़हर नहीं बनती; शिकवा है, मगर बददुआ नहीं; शिकायत है, मगर बेहूदगी नहीं।
 

उनकी ज़ुबान में उर्दू की नज़ाकत, फ़ारसी की लतीफ़ी और बोलचाल की सादगी एक साथ मिलती है। परवीन शाकिर आम अल्फ़ाज़ को भी इस तरह बरतती हैं कि वह शेर बनते ही यादगार हो जाते हैं

वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की

यह शेर मर्दाना बेवफ़ाई पर कोई फ़तवा नहीं, बल्कि एक निसाई तजुर्बे की सच्ची अदायगी है।

इश्क़, तन्हाई और औरत का वजूद:

परवीन शाकिर की शायरी में औरत महज़ किसी की ज़िंदगी का हाशिया नहीं, बल्कि मरकज़ है। वह मोहब्बत में डूबती भी है, टूटती भी है, मगर अपने एहसासात से इनकार नहीं करती।
 

उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में तन्हाई एक अज़ाब नहीं, बल्कि सोचने-समझने की फ़ज़ा बन जाती है।

अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए ढंग की ईजाद करे

यह शेर बताता है कि उनके यहाँ जज़्बात कितने पेचीदा और गहरे हैं।

अदबी अहमियत और असरात:

परवीन शाकिर ने उर्दू शायरी में निसाई शऊर  एक मज़बूत अदबी शक्ल दी। उनके बाद आने वाली कई शायरात — जैसे किश्वर नाहिद, फ़हमीदा रियाज़, सारा शगुफ़्ता — के लिए राह आसान हुई।
 

उन्होंने यह साबित किया कि औरत का दर्द भी अदब का बड़ा मौज़ू हो सकता है, और वह मर्दाना तजुर्बे से कमतर नहीं।

अचानक रुख़्सती:

26 दिसंबर 1994 को एक सड़क हादसे में परवीन शाकिर का इंतिक़ाल हो गया। उनकी उम्र बहुत कम थी, मगर उनकी शायरी की उम्र बहुत लंबी है। वह आज भी पढ़ी जाती हैं, सुनी जाती हैं, और हर उस दिल में उतर जाती हैं जो मोहब्बत को ख़ामोशी नहीं, आवाज़ देना चाहता है।

परवीन शाकिर उर्दू अदब का वह नाम हैं जिन्होंने शायरी को औरत की ज़ुबान दी, मगर उसे किसी दायरे में क़ैद नहीं किया। उनकी शायरी आज भी ताज़ा है, क्योंकि उसमें इंसानी एहसास हैं और इंसानी एहसास कभी पुराने नहीं होते।

एक उर्दू शायरा , उस्ताद और सिविल सेवा में एक अधिकारी थीं। इनकी अहम अदबी कामों में खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी, इंकार(1990), माह-ए-तमाम (1994) शामिल हैं।
 

वे उर्दू शायरी में एक युग का नुमाइंदगी करती हैं। उनकी शायरी का मरकज औरत रहा है। फ़हमीदा रियाज़ के अनुसार ये  उन कवयित्रियों में से एक थी जिनके शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी और नज़ाकत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिल आवेज़ संगम है।
 

इस मशहूर शायरा के बारे में कहा जाता है, कि जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सर्विस की लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था जिसे देखकर वह आत्मविभोर हो गयी थी।