शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी: पुरानी दिल्ली का इल्मी ख़ज़ाना
इमरोज़ नदीम
RNE Special.
( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )
पुरानी दिल्ली की तंग, पेचीदा गलियों में एक ख़ामोश मगर रूहानी दुनिया आबाद है—शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी। यह सिर्फ़ किताबों का अंबार नहीं, बल्कि उर्दू अदब , सभ्यता, इल्म और तहज़ीब का वो दफ़्तर है जहाँ वक़्त ठहरा नहीं, बल्कि तहज़ीब की साँसों के साथ चलता है। नाम की निस्बत 18वीं सदी के अज़ीम मुफक्किर, मुफस्सिर-ए-कुरआन और समाजी इस्लाह के पैरोकार हज़रत शाह वलीउल्लाह देहलवी से जुड़ी है, जिनकी तालीम और तफ्हीम ने बरसों तक हिंदुस्तान की रूहानी फ़िज़ाओं को महकाया। यह लाइब्रेरी पुराने दिल्ली के पहाड़ी इमली गलियों में, चूड़ीवालान इलाके में, जामा मस्जिद के पास स्थित है।
1994 में इस लाइब्रेरी की शुरुआत हुई थी। शुरुआत एक छोटे-कमरे से हुई, जहाँ पहले युवा दोस्त आमतौर पर केरम खेलते थे। लेकिन अब किताबें दीवारों से लगकर शेल्फों तक फैली हुई हैं।
इब्तिदा से इर्तिका तक:
इस लाइब्रेरी की शुरुआत किसी बड़े फ़ंड, सरकारी इमारत या शानो-शौकत से नहीं हुई थी बल्कि इलाके के पढ़े-लिखे नौजवानों की उस बेताब ख्वाहिश से हुई, जो कैरम की महफ़िलों को छोड़कर इल्म की महफ़िल सजाना चाहते थे। देखते ही देखते यह छोटा-सा कमरा किताबों का ऐसा म़र्कज़ बन गया, जहाँ हर आने वाला अपने अंदर एक नया रस्ता, एक नया शऊर और एक नई सोच लेकर लौटने लगा।
किताबों का अनमोल ज़खीरा:
आज शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी में तक़रीबन 30,000 से ज़्यादा किताबें महफ़ूज़ हैं जिनमें उर्दू, अरबी, फ़ारसी, हिंदी , संस्कृत और अंग्रेज़ी की नादिर तसानीफ़ शामिल हैं। इन किताबों में सदियों पुरानी दास्तानें, उर्दू अदब के दीवानों के लिए क़ीमती दीवान, दीनीयात, इल्म-उल-कलाम और तकरीबन सौ साल पुराना कुरान शरीफ , छः सौ साल पुराना अरबी ग्रंथ, तफ़सीर के मुस्तनद मजमूए, फ़ारसी में रामायण, उर्दू में भगवत गीता जैसे दुर्लभ ग्रंथ, और 1885 में शाही प्रेस ( रेड फ़ोर्ट प्रेस ) के ज़माने में छपी किताबें जैसे आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र का दीवान ( दीवान ए ज़फ़र ) भी शामिल है ।
सब कुछ इस अंदाज़ में महफ़ूज़ है कि जैसे कोई मुसाफ़िर वक़्त की सरहदें लांघकर सदियों पुराने दौर में पहुँच जाए।
शहरी शोर में इल्म की ख़ामोश रोशनी हैं जामा मस्जिद के आसपास के बाज़ारों की यूँ तो हर सड़क में कोलाहल, और कारोबार की आवाज़ें तैरती हैं; मगर इस लाइब्रेरी के भीतर कदम रखते ही शोर जैसे दरवाज़े पर ही गिर जाता है। यहाँ किताबें सिर्फ़ रखी नहीं, बल्कि अपनी मौजूदगी से बोलती हैं—
किसी पत्ते के पलटने की आवाज़ में इतिहास की आहट,
किसी दीवान की महक में उर्दू की नज़ाकत,
और किसी फ़ारसी ग्रंथ की जिल्द में सूफ़ियाना सुकून मिलता है।
उर्दू अदब की पनाहगाह:
शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी ने पुरानी दिल्ली की उर्दू तहज़ीब को सिर्फ़ सँभाल कर नहीं रखा, बल्कि उसे नई नस्ल तक पहुँचाने का काम भी किया। उर्दू शायर, रिसर्च स्कॉलर, दीनी तलबा, और तालीमी शख्सियात यहाँ बैठकर अपने मसौदे लिखती हैं, बहस-मुबाहिसे करती हैं और नए इल्मी सफ़र की इब्तिदा करती हैं। यह लाइब्रेरी उर्दू अदब के लिए वही है, जो एक मज़मून के लिए इबारत लाज़िम, पूरक और बुनियादी।
इसके अतिरिक्त, फारसी और अरबी में सूफी ग्रंथ, बहुभाषी शब्दकोश, तथा पुराने हस्तलिखित ग्रंथ भी रखे हुए हैं। लाइब्रेरी सिर्फ किताबों का भंडार नहीं है — यह एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र भी बन चुकी है। यहाँ पढ़ने, चर्चा करने, ज्ञान बाँटने, और विद्यार्थियों की पढ़ाई में मदद जैसे काम होते हैं।
चुनौतियाँ और फ़िक़्रमंदी:
लाइब्रेरी “खज़ाना” जरूर है यह बात क़ाबिले-अफ़सोस है कि इतने नादिर वसाइल और इल्मी दस्तावेज़ होने के बावजूद, लाइब्रेरी को जगह की कमी, फंड की तंगी, और डिजिटल दस्तावेज़ीकरण के अभाव जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। किताबों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन संग्रह और संरक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। ये किताबें सिर्फ़ बुक-शेल्फ़ की शोभा नहीं—हमारी अदीबी विरासत हैं। इन्हें सँभालना, महफ़ूज़ रखना और आने वाली नस्लों तक पहुँचाना सिर्फ़ लाइब्रेरी का नहीं, बल्कि हम सबका फ़र्ज़ है।
प्राचीन और दुर्लभ किताबों की देखभाल और संरक्षित रखने के लिए बेहतर इंतज़ामों की ज़रूरत है। चाहे डिजिटलाइजेशन हो या संग्रहालय और आर्काइव जैसा स्थान, ताकि ये अमूल्य ग्रंथ सुरक्षित रह सकें।
शाह वलीउल्लाह लाइब्रेरी इक इमारत नहीं, उर्दू अदब की धड़कन है—एक ऐसी धड़कन, जिसमें सदियों की दास्तानें, तालीमी नक्शे, ज़हन की रोशनियाँ और तहज़ीब की खुशबू बसी है। जो कोई इस लाइब्रेरी में जाता है, वह खाली हाथ लौटता नहीं—या तो उसकी आँखें चमक उठती हैं, या उसका दिल।
उर्दू अदब का ये कारवाँ अगर आगे बढ़ता रहेगा ।
मुकाम कुछ पोशीदा है तंग गली, भीड़-भाड़, और संकेतों का अभाव — इसलिए पहली बार आने वालों को रास्ता पूछ कर जाना पड़ सकता है। स्थानीय लोगों को पता रहता है।
यह लाइब्रेरी उन लोगों के लिए खास तौर से उपयोगी है जो दुर्लभ ग्रंथों, पुरानी किताबों, धार्मिक या ऐतिहासिक साहित्य, या उर्दू ,फारसी ,अरबी ,साहित्य में रुचि रखते हैं। शोधकर्ता, विद्यार्थी, इतिहास प्रेमी इसके नियमित आगंतुक हैं।