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मराठी मानुष की बात पर झुकना पड़ा फडणवीस सरकार को, हिंदी की अनिवार्यता पर खड़ा हो गया भाषा विवाद

उद्दव व राज ठाकरे भाषा के लिए आये एक मंच पर
राजस्थान के नेताओं में क्यों नहीं आता मातृभाषा पर जोश
आखिर कौन करेगा ' राजस्थानी मानुष ' की बात
 

अभिषेक आचार्य

RNE Special.

महाराष्ट्र की सरकार ने एक आदेश निकालकर हिंदी को अनिवार्य किया। आदेश निकलते ही पूरे महाराष्ट्र में विरोध के स्वर शुरू हो गये। मराठी की जगह लोगों को कोई दूसरी भाषा ही स्वीकार नहीं थी। महाराष्ट्र का हर नागरिक पहला प्यार अपनी मातृभाषा मराठी से करता है। उसके लिए वो किसी भी तरह का समझौता नहीं करता। 
 

दो उदाहरण इसके सामने है ::
 

पहला :: कर्नाटक व महाराष्ट्र के बीच यातायात के लिए रोडवेज की बसें चलती थी। एक गईं कर्नाटक की बस महाराष्ट्र आ रही थी। एक मराठी ने कंडक्टर से कहा कि वो कन्नड़ में नही मराठी में बात करे। उसने कह दिया कि मुझे मराठी नहीं आती।

बस, बवाल हो गया। मारपीट हो गई। राज ठाकरे, शिव सेना आदि विरोध में खड़े हो गए। मांग रख दी गई कि जो कंडक्टर महाराष्ट्र में आये वो मराठी में बात करे। रोडवेज की सेवा बंद हो गई। बमुश्किल कई दिनों बाद समझौता हुआ। 
 

दूसरा :: एक साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजन मुंबई में चल रहा था। हिंदी फिल्म अभिनेता जो महाराष्ट्र के है, अमोल पालेकर। वो नाटक व संस्कृति पर बोलने के लिए खड़े हुए। पढ़े लिखे लोग, साहित्यकार, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी सामने बैठे थे। 
 

पालेकर ने जैसे ही हिंदी में बोलना आरम्भ किया, सबने शोर मचाना शुरू कर दिया। मजबूर होकर पालेकर को मराठी में ही भाषण देना पड़ा। यह है उनका अपनी भाषा से प्रेम। जबकि वे लेखक मराठी के साथ हिंदी के भी थे, मगर पहली प्राथमिकता मराठी ही थी
 

इस बार फिर मराठी मानुष जागा:
 

इस बार जब फडणवीस ने हिंदी को लेकर आदेश निकाला तो मराठी मानुष जाग गया। ऐसा जागा कि राजनीतिक रूप से अलग अलग होते हुए भी मराठी की बात पर उद्धव ठाकरे व राज ठाकरे एक हो गए। राज्यव्यापी आंदोलन की घोषणा कर दी। उनको हर तरफ से समर्थन की घोषणा भी हो गई। 

दो दिन में सरकार हिल गई। मुख्यमंत्री ने अपना आदेश वापस लिया और एक कमेटी बनाई। त्रिभाषा फार्मूला फिर स्वीकारा गया। सरकार को मराठी मानुष के जागने पर यूटर्न लेना पड़ा। वो भी 48 घन्टे के भीतर।
 

विरोधी एक मंच पर:
 

महाराष्ट्र की राजनीति में सबको पता है कि उद्धव ठाकरे व राज ठाकरे विपरीत ध्रुव है। चुनाव भी अलग अलग लड़ते है। मगर जैसे ही मराठी भाषा व मराठी मानुष की बात आई, दोनों एक मंच पर आ गये। राजनीति को पीछे छोड़ दिया। ये है मातृभाषा की असली ताकत और उसका सम्मान।
 

राजस्थान के नेता ऐसे क्यों नहीं?
 

राजस्थान में तो यहां की मातृभाषा राजस्थानी की घोर उपेक्षा सत्ता वर्षो से कर रही है। सत्ता मतलब किसी भी पार्टी की हो, उपेक्षा ही कर रही है।  मायड़ भाषा का अपमान कर रही है। न तो 12 करोड़ से अधिक लोगों की मातृभाषा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता दे रही है और न ही राजस्थानियों की सरकार इसे दूसरी राजभाषा बना रही है। 
 

इसके बाद भी यहां के नेता खामोश है। 25 सांसद लोकसभा के, 10 सांसद राज्यसभा के और 200 विधायक अपनी मां यानी मातृभाषा की उपेक्षा होते देख रहे है, पर बोल नहीं रहे। पता नहीं किसने उनका मुंह बंद कर रखा है। अफसोस !
 

क्या ठाकरे जैसा कोई नहीं:
 

राजस्थान बड़ा प्रदेश है। यहां के झुझारूपन की कहानियां इतिहास में पढ़ाई जाती है। फिर भी यहां एक भी नेता ठाकरे बंधुओं जैसा नहीं है। जो राजस्थानी व राजस्थानी मानुष की बात करे। ये तो अधिक चिंता की बात है।
 

आखिर कौन करेगा राजस्थानी मानुष की बात:
 

सच में चिंता होती है कि आखिर ठाकरे बन के कौन करेगा राजस्थानी मानुष की बात। साहित्यकार या भाषा प्रेमी, जिनको राजनीति से ज्यादा लेना देना नहीं, वे जरूर अपनी भाषा के लिए, राजस्थानी मानुष के लिये लड़ रहे है। मगर नेता तो कोई ठाजरे ब्रदर्स की तरह लड़ने के लिए सामने आता दिख नहीं रहा।