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भाषा, साहित्य व संस्कृति अकादमियों में दो साल से काम नहीं, सरकारों के हाशिये पर क्यों है साहित्य, संस्कृति

सरकार की दूसरी वर्षगांठ पर कलाधर्मियो की उम्मीद जायज है
यहां तो राजनीति से ऊपर उठकर काम हो
राजस्थानी भाषा भी मांग रही है अपना हक
 

मधु आचार्य ' आशावादी '

RNE Network.
 

देश इस घटना को बखूबी जानता है।
 

बात एक दिन की है जब देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु लाल किले पर सीढियां चढ़ रहे थे। अचानक उनके पांव लड़खड़ाए। वे गिरने लगे तो पीछे चल रहे कवि निराला ने उनको संभाल लिया। तब पंडित नेहरु ने उनको धन्यवाद दिया।

इस पर पलट कर निराला ने जवाब दिया -- पंडित जी, जब जब राजनीति लड़खड़ाती है, तब तब साहित्य ही उसे संभालता है।
 

ये घटना देश जानता है। मगर देश मे पिछले चार दशक से जिस क्षेत्र की सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है, वो साहित्य, कला एवं संस्कृति का ही है। पहले राज्य में जब वसुंधरा राजे की सरकार थी तब राजस्थानी अकादमी में तो सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिन अध्यक्ष बनाया गया जो कार्यभार ही ग्रहण नहीं कर सके। कुछ अकादमियों में बनाये ही नहीं जा सके। जिनमें बनाये उनको भी सरकार बनने के 3 साल से अधिक समय बीत जाने के बाद बनाया गया।

फिर राज्य में आई अशोक गहलोत की सरकार। उसने भी 3 साल के बाद ही अध्यक्ष बनाये। अभी की भजनलाल सरकार को बने भी 2 साल हो गए मगर अकादमियों में अध्यक्ष बनाने का काम शुरू भी नहीं हुआ है।
 

दो साल से गतिविधिया ठप्प:
 

राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, राजस्थान साहित्य अकादमी, सिंधी अकादमी, उर्दू अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, बाल साहित्य अकादमी सहित प्रदेश की सभी अकादमियां ठप्प पड़ी है। न पुस्तकें प्रकाशित हो रही है, न पुरस्कार दिए जा रहे है। आश्चर्य तो इस बात का है कि सत्ता के अलावा विपक्ष को भी इसकी परवाह नहीं है। साहित्य, कला एवं संस्कृति के लिए सरकार के पास मंत्रालय है मगर वो काम कर रहा है या नहीं, ये देखने की फुर्सत किसी को भी नहीं है।

विपक्ष भी पूरा जिम्मेवार:
 

राज्य की खस्ताहाल साहित्य, कला एवं संस्कृति की स्थिति के लिए सत्ता पक्ष से कम दोषी विपक्ष नहीं है। विपक्ष के किसी भी विधायक ने विधानसभा में ठप्प पड़ी अकादमियों को लेकर सरकार से सवाल तक नहीं किया है। गुस्से का इजहार नहीं किया है। क्योंकि उनकी प्राथमिकता में भी साहित्य, कला एवं संस्कृति नहीं है। अगर होती तो वे अपने शासन में बता देते। कुल मिलाकर राजनीति के हाशिये पर ही है साहित्य, कला और संस्कृति।
 

कलाधर्मियो की उम्मीद:
 

भजनलाल सरकार का कार्यकाल दो वर्ष पूरे कर रहा है। कई नवाचार हुए है। तो उम्मीद तो यही है कि साहित्य, कला और संस्कृति में भी नवाचार होगा। इनकी अकादमियां गतिशील होगी और बजट भी बढ़ेगा। अगर शब्दकर्मी और कलाधर्मी ये उम्मीद कर रहे है तो गलत तो नहीं कर रहे। उनकी उम्मीद जायज है, सरकार उदार होती है या नहीं, यह समय बतायेगा।

राजस्थानी मांग रही अपना हक:
 

राजस्थानी भाषा के साथ न्याय नहीं हो रहा। अगर राजस्थान में ही राजस्थानी दूसरी राजभाषा नहीं बनेगी तो किसी और प्रदेश में तो बनने से रही। 14 करोड़ लोगों की मातृभाषा राजस्थानी वर्तमान सरकार से अपना हक मांग रही है। केंद्र की सरकार नई शिक्षा नीति में यह निर्देश दे चुकी है कि प्राथमिक शिक्षा  मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। उसके बाद भी राजस्थानी की राजस्थान में उपेक्षा समझ से परे है। यहां भी सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष भी बराबर का जिम्मेदार है। विपक्ष भी इस मुद्दे पर मौन साधे हुए है, सरकार से सवाल ही नहीं कर रहा। राजनीतिक दलीय भावना से उठकर जब तक साहित्य, कला और संस्कृति के निर्णय नहीं होंगे, तब तक हालत में सुधार की उम्मीद सही भी होती नहीं दिखती।