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.. और मंगलजी ने रंगधर्म बताते हुए दो सवालों पर सस्पेंस के साथ छोड़ दी बात!

अभिषेक आचार्य

RNE Network

बहुत गंभीर बात अब आरम्भ हो गई थी। रंगकर्म की इतनी विस्तार से परिभाषा को सुनने का पहली बार सबको अवसर मिला था। सभी चाहते थे कि मंगलजी लगातार बोलते रहें और बाकी सब सुनते रहे। उनकी थ्योरी भी बड़ी स्पष्ट थी कि भले ही संस्था या नाट्य दल दूसरा हो, वो न कहे तो भी मदद के लिए पहुंचना चाहिए। जो गैर जिम्मेवारी का रंगकर्म करे उसकी मदद तो दूर उसका विरोध भी करना चाहिए। इतनी साफगोई तो होनी ही चाहिए। यही एक अच्छे इंसान होने की निशानी होती है।

उनकी इस बात पर प्रदीपजी ने गम्भीर सवाल किया कि यदि हम बुरे का विरोध करेंगे तो वो हमारा दुश्मन हो जायेगा। हम चुप भी तो रह सकते हैं। इस सवाल पर मंगलजी ने जवाब शुरू किया।

प्रदीपजी, आपकी बात सही है कि विरोधी हो जायेंगे। होंगे ही, तय है। मगर विरोध के डर से हम बुरे को बुरा नहीं कहेंगे तो रंगकर्म के साथ अन्याय करेंगे। हम इंसान के रूप में खुद गुनहगार बन जाएंगे और रंगकर्मी के रूप में कर्त्तव्य छोड़ देंगे।

वो कैसे सर।

यदि हम बुरे को बुरा कहेंगे तो सोचने को तो मजबूर होगा। हो सकता है कोई सुधार का मन भी बना ले। सार्वजनिक रूप से अहंकार में विरोध भले ही करे मगर अगले नाटक में सुधार जरूर करेगा। ये बुरा बनकर हम रंगमंच का भला ही करेंगे। दूसरी बात, हम उसे नहीं कहेंगे तो मन ही मन कुंठित होते रहेंगे। बेबसी हमको कुंठा देती है। पीठ पीछे हम उसकी आलोचना करेंगे। ये काम तो राजनेताओं का है, रंगकर्मियों का नहीं। इसके अलावा हम जिस कमी को बोलकर बतायेंगे, वो हम कभी अपने नाटक में नहीं रखेंगे। डर रहेगा कि कमी पर हमें भी कोई कभी मुंह पर बोल सकता है।

चौहान साब ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि आपकी बात सही है। विनम्रता पूर्वक कमी कह देनी चाहिए।

चौहान साब, विनम्रता तो हर रंगकर्मी की अनिवार्यता है। उसे तो हर पल, हरेक से सीखना है। हम बाप बनकर नहीं, बेटा बनकर ही सीख सकते हैं।

सबने इस बात पर सहमति में सिर हिलाया। इस बीच विष्णुकांत जी ने सवाल उठाया कि नाटक बिना विचार कैसे संभव है, ये बताइये।

मंगलजी मुस्कुराए। उनको पता था कि वे ये सवाल क्यों कर रहे हैं। बड़े विनम्र भाव से उन्होंने जवाब देना शुरू किया। आपने सुंदर सवाल किया। आपसे इस सवाल की उम्मीद भी रख रहा था। इस विषय में पहली बात जो कह रहा हूं उसे गांठ बांधकर रख लेना। रंगकर्म हमारा पहला धर्म है, यही पहला विचार है। इस पर ही हमें एक रंगकर्मी के रूप में हमें सदा खड़े रहना है। इसके बाद हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख या ईसाई हैं। इस बात से तो इंकार नहीं। मगर विचार की अपनी महत्ता है।

हम किसी लेखक का लिखा नाटक खेलते हैं और हर लेखक अपना नजरिया रखता है। लिखने से पहले वो तय करता है कि उसे जनता के साथ रहना है या सत्ता के साथ। गरीब के हित की बात करनी है या अमीर के हित की बात। शोषक के साथ रहना है या शोषित के साथ।

जगदीश शर्मा जी बोले “जाहिर है हर इंसान गरीब, जनता व शोषित के साथ खड़ा होना पसंद करेगा। अगर वो अमीर, सत्ता या शोषक के साथ खड़ा होकर लिखेगा तो उसे समाज स्वीकार नहीं करेगा। उसका लिखा स्वीकार्य ही नहीं होगा।

यही कहना चाह रहा हूं मैं। इसलिए विचार तो लेखक से उपजेगा और हम इसका ध्यान तब रखते हैं जब नाटक का चयन करते हैं। जनता के हित की बात नहीं होगी तो दर्शक भी हमारा नाटक क्यों देखेगा। दिखा भी दिया तो वो उसे असफल बतायेगा। हमारी आलोचना करते हुए हमें दलाल तक कह देगा”।

इस कड़वी मगर सच्ची बात से वहां बैठे सभी सहमत दिखे। विष्णुकांत जी ने भी सहमति में सिर हिलाया। अब प्रदीप जी ने इसी बात को आगे बढ़ाया। हम नाटक करते समय कई बार कुछ दृश्यों से सहमत नहीं होते तो रिहर्सल के समय उनको या तो बदलते हैं या फिर हटा देते हैं। कई बार तो हम सीक्वेंस व अंत तक मे जब लेखक से इत्तफाक नहीं रखते तो उसे भी बदलते हैं। ऐसा कई बार हमने किया भी है।

बिल्कुल ठीक कहा आपने प्रदीप जी। वो बदलाव हम अपने दर्शक और अपने विचार के कारण करते हैं। इस कारण ही तो हम कहते हैं कि रंगकर्म हमारा धर्म है और यही हमारा विचार है।

बुलाकी भोजक जी, चौहान साब, मनोहर जी, चाँदजी सहित सभी ने इस बात पर सहमति जताई। अब विष्णुकांत जी भी पूरी तरह संतुष्ट दिखाई दिये। सबने वातावरण को समझ के बाद हल्का कर दिया।

मौन को इस बार मंगलजी ने तोड़ा।

आपने प्रदीपजी की बात पर सहमति दी, दी ना ? सबने हां में सिर हिलाया।

मगर उस बात को आपने गौर से सुना।

सब चुप हो गये। उस बात को याद करने लगे। मगर बोल कोई नहीं रहा था। प्रदीपजी भी किसी के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि उनको भी पता चले कि वे क्या बड़ी बात कह गये। काफी देर तक चुप्पी रही, कोई कुछ नहीं बोला। सब मंगलजी की तरफ देखने लगे। उन्होंने ही गौर किया था तो वे ही बतायेंगे, सबके चेहरे पर यही भाव था। मंगल जी मुस्कुराने लगे।

प्रदीपजी ने नाटक और रंगकर्म से जुड़े दो बड़े सवाल खड़े कर दिए। जिन पर हर रंगकर्मी की दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। इन विषयों पर दृष्टि साफ रखने पर ही हम रंगकर्म के प्रति सही नजरिया रख सकेंगे। इन दो बड़ी बातों पर अब हम बात करेंगे मगर चाय व करोड़पति के बाद।

प्रदीपजी उठने लगे तो मंगलजी ने उनको रोकते हुए कहा कि इस बार चाय व करोड़पति मेरी तरफ से।

सब हंसने लगे। मगर सोच रहे थे कि कौन से दो बड़े सवाल थे? उनका क्या जवाब है ?

वर्जन

प्रदीप भटनागर

रंगकर्म को पहला धर्म मानकर जो नाटक में आता है, वही लंबा सफर तय करता है। ग्लैमर उसे प्रभावित नहीं करता और न ही वो राजनीति का शिकार होता है। सही को सही और गलत को गलत उस दौर में कहा भी जाता था, उसे सुना भी जाता था। कोई नाराज नहीं अपितु प्रसन्न होता था। आज तो स्थिति बदल गई। एक्टर को कमी बता दो तो वो भड़क जाता है और कहने वाले को दुश्मन मान उसे ही खारिज कलाकार कह देता है। निर्देशक को कह दो कि प्रस्तुति में यहां कमजोरी थी तो वो स्वीकारने को तैयार ही नहीं होता और कहने वाले को दुश्मन नम्बर एक मान बैठता है। यदि उस समय की तरह स्वस्थ आलोचना और सच्चे मन से उसे सुनने का भाव आज के समय में भी हो तो प्रदर्शन बेहतर हो जायेंगे। दर्शक जुड़ेंगे और समाज हमें प्यार देगा। अभी के रंगकर्मियों, कलाकारों, निर्देशकों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए।