…और तब पहली बार मंगलजी से जाना एमेच्योर थियेटर आखिर होता क्या है?
अभिषेक आचार्य
माहौल को हल्का करने के लिए प्रदीप भटनागर जी ने अपनी मुट्ठी बंद की ही थी कि मंगलजी बोले। “प्रदीप जी शुरुआत मेरे से करो। बोहनी अच्छी होगी तो हो सकता है चाय के साथ करोड़पति भी आ जाये।
उन्होंने अपने पर्स से एक नोट हाथ में छिपाकर निकाला और उनकी मुट्ठी में डाल दिया। फिर अधिकतर ने मुट्ठी में कुछ डाला, जिसके पास नहीं था वो मुट्ठी को हाथ जोड़ देता। कमाल की एकजुटता इस प्रक्रिया में भी दिखाई दी।
प्रदीप जी ने मुट्ठी खोली और पहले की तरह ही करोड़पति व चाय का ऑर्डर चला गया। सब फिर बैठ गए। तब विष्णुकांत जी से मंगलजी ने हल्की फुल्की बात शुरू की। उनको वही संबोधन दिया जो बाकी लोग देते थे।”
- भाई, आप कामरेड हो क्या ?
हां। आप भी कामरेड ही हो।
- मैं कैसे ?
कामरेड शब्द का अर्थ साथी होता है। आप साथी नहीं हो क्या ?
- साथी तो हूं। पर कहते हैं ना कि ये तो कम्युनिस्ट जो होते हैं उनको कहा जाता है।
ये तो लोगों का तंग सोच है।
- फिर तो हम सभी कामरेड हुए।
बिल्कुल।
- अब सब कामरेड हैं तो सबके लिए ये एक संबोधन तो चल नहीं सकता। इसलिए नाम से ही संबोधन ठीक है।
प्रदीप जी बोले। “नाम व निकनेम, यही ठीक है। सब सहमत थे। इतनी देर में करोड़पति आ गये। सब उस पर टूट पड़े। बोल कोई नहीं रहा था। खाने में कमी आ जाती ना, इस कारण। थोड़ी देर में करोड़पति तो साफ। चाय आ गई। सब चुस्कियां लेने लगे।
हरेक की नजर मंगलजी पर थी कि वे बात को आगे बढ़ाएं। वे ये सोच रहे थे कि कोई साथी बात शुरू करे तो कुछ बोला जाये। इस बात को प्रदीप जी, चौहान साब, विष्णुकांत जी ताड़ गये। उन्होंने प्रदीप जी की तरफ बात शुरू करने का इशारा किया। वे तैयार थे।
सर, ग्लैमर वाले तो आपकी बात सुनकर ही शिविर से झड़ जायेंगे। ये ठीक हुआ। किसी को कहना नहीं पड़ेगा। बस, ये चर्चा बतानी है। प्रदीपजी, जो ग्लैमर के लिए आते हैं वे रंगमंच का नुकसान करते हैं। उनसे तो राम राम ही भली। भई, यहां क्या मिलना है। कुछ न कुछ लगना ही है। इससे अच्छा है वहां जाओ जहां आपकी इच्छा पूरी होती हो। वहां पैसा भी खर्च करोगे तो लाभ ही मिलेगा।
सही बात है।
हम लोग तो फक्कड़ हैं। नाटक के लिए आये हैं, इस कारण ऐसे लोगों को हमारे पास समय खराब नहीं करना चाहिए। ये बात उनके भले की कही है, हो सकता है उनको बुरी लगे।
चौहान साहब बोले। “बुरी लगे तो लगे, उनका भला तो हो जायेगा। चांदजी ने फिर सवाल किया। नाटक क्या कभी रोजगार का साधन नहीं बनेगा क्या सर। आपने अच्छा सवाल किया। इस बहाने हम रंगमंच के प्रकारों की बात कर सकते हैं। हम शिविर शुरू करें उससे पहले ये भी हर एक के दिमाग में बात स्पष्ट होनी चाहिए। ताकि वो भटके नहीं। सब चुप हो गये। मंगलजी की तरफ देख रहे थे ताकि नई बात को गौर से सुन सकें। मंगलजी ने चुप्पी को तोड़ते हुए बोलना शुरू किया।
ये तीन तरह के रंगमंच :
मोटे तौर पर रंगमंच के तीन प्रकार देश में चल रहे हैं। फिर वो चाहे हिंदी रंगमंच हो या मराठी, बंगाली हो या कन्नड़। सब जगह यही तीन प्रकार चलते हैं।
प्रदीप जी ने कहा।” वो भी बताएं सर। पहला प्रकार है अव्यावसायिक रंगमंच। जिसे हम एमेच्योर थियेटर कहते हैं। ये सर्वाधिक प्रचलन में है। सच कहा जाये तो रंगमंच जिंदा ही इस प्रकार से है। अधिकतर स्थानों पर यही रंगमंच चल रहा है। उत्तर हो या दक्षिण भारत, इसी रंगमंच से पहचान मिली हुई है।”
विष्णुकांत जी ने सवाल किया। “इसकी पहचान क्या है। बहुत सही सवाल किया आपने। वो रंगमंच जो समर्पित भाव से, शौक के लिए या फिर किसी अच्छे ध्येय के लिए बिना प्राप्ति के भाव से किया जाये, वो एमेच्योर थियेटर होता है।
सब ध्यान से सुनने लगे। इस थियेटर में वे लोग काम करने आते हैं जो अपने बचे हुए समय का सार्थक उपयोग करना चाहते हैं। उसे बर्बाद नहीं करना चाहते। जैसे नोकरी करने वाले अपने ऑफिस से आने के बाद घर के काम से फ्री होकर नाटक को समय देते हैं। जैसे दुकानदार अपना काम पूरा कर समय देते हैं। जैसे स्टूडेंट अपनी स्कूल, कॉलेज व पढ़ने के समय के अतिरिक्त समय को निकाल नाटक करने आते हैं। कहने का अर्थ, बचे हुए समय का सदुपयोग करने के लिए नाटक में आते हैं। वे जो थियेटर करते हैं वो एमेच्योर थियेटर होता है।”
बात समझ आई।
इस थियेटर में कोई एक्टर, डायरेक्टर भर नहीं होता। सभी ये होते हुए भी रंगकर्मी होते हैं। नाटक के सभी काम, जैसे प्रचार, टिकट बेचना, प्रोपर्टी जुटाना आदि काम भी करते हैं। क्योंकि इन कामों को दूसरों से कराया जाए तो धन खर्च होता है जो इस थियेटर में नहीं होता।
प्रदीप जी बोले। “मतलब अभी जो थियेटर हम करते है वो। बिल्कुल ठीक समझा आपने। मगर एक बड़ा फर्क और है, जो ध्यान रखना जरूरी है। जिसकी तरफ अभी ध्यान नहीं। उसकी पूर्ति करने पर ही हम पूर्ण एमेच्योर थियेटर कर पाएंगे। वो क्या है ? अभी हम क्या कर रहे हैं फिर ?
प्रदीप जी अभी जो हम कर रहे हैं वो समझौते का एमेच्योर थियेटर है। बात समझ नहीं आई। अभी हमें कोई चीज नहीं मिलती तो हम विकल्प देखकर पूर्ति करते हैं।
प्रदीप जी बोले।” हां, बात तो सही है। मुझे एक नाटक का किस्सा याद है। पुलिस इंस्पेक्टर के रोल के लिए वर्दी लाई गई, वो एक्टर के पूरी नहीं आई। निर्देशक ने कहा सामान्य कपड़े पहन लो, अब पुलिस इंस्पेक्टर नहीं तुम सीआईडी इंस्पेक्टर हो। बाकी एक्टरों को कह दिया कि तुम भी इनको सीआईडी इंस्पेक्टर बोल देना। मंगलजी सहित सभी हंसने लगे।”
जगदीश शर्मा जी बोले। “वो एक्टर मैं ही था। खूब हंसे सब। मंगलजी ने बात आगे बढ़ाई। एमेच्योर थियेटर में समझौता करते ही हम दर्शक के साथ अन्याय करते हैं। वो तो टिकट लेकर परफेक्ट नाटक देखने आता है। उसे आपकी समस्याओं से क्या मतलब। हम कह नहीं सकते कि हमने मजबूरी में ये किया। उसने तो टिकट के पैसे दिए हैं, समय दिया है।”
बुलाकी भोजक बीच मे बोले। “हरेक दर्शक को ये बताया भी तो नहीं जा सकता। वो गलत इम्प्रेशन लेकर जाता है और नाटक से सम्भव है कट भी जाये। बहुत सही कहा। इसलिए एमेच्योर थियेटर वो जो बिना लाभ के तो मगर प्रस्तुति से कोई समझौता न हो। उसमें नजरिया पूरी तरह प्रोफेशनल हो। क्योंकि दर्शक बनाना, समाज मे नाटक को सम्मान दिलाना है। वो परफेक्शन से ही सम्भव है। सार रूप में कहूं तो थियेटर तो एमेच्योर मगर एटीट्यूड प्रोफेशनल।”
प्रदीप जी बोले। “अब बात समझ आई। प्रदीप जी, देश का और खासकर हिंदी का पूरा रंगमंच ही एमेच्योर थियेटर पर टिका हुआ है। ये भारतीय रंगमंच की नींव है। इसने ही दर्शक तैयार किये हैं और बड़े बड़े एक्टर, डायरेक्टर रंगमंच व फिल्मों को दिए हैं। इस कारण हम जो काम करेंगे वो बहुत ही जिम्मेदारी का है। सबको पहली बार एमेच्योर थियेटर के बारे में इतनी जानकारी मिली।”
प्रदीप भटनागर
एमेच्योर थियेटर के नाम पर कुछ भी कर लेना नाटक का अहित करना है। हम ये कहकर बच नहीं सकते कि साधन नहीं, सुविधा नहीं। यदि ये नहीं है तो कहा किसने है कि नाटक करो। यदि नाटक कर रहे हैं तो उसमें तो नजरिया पूरी तरह परफेक्शन का, व्यावसायिक होना चाहिए। आजकल एमेच्योर के नाम पर जो लोग नाटक को काटते हैं, बदलते हैं, वे नाटक की ही नहीं रंगमंच और दर्शक की हत्या करते हैं। बेहतर हो वे वो नाटक कर लें जिसमें समझौता न करना पड़े।