छोटा हो या बड़ा, सबके लिए वो तो थे ‘ भवानी भाई ‘
- चेहरे पर हर समय मुस्कान, गुस्सा दूर दूर तक नहीं
- पत्रकारिता क्या, कईयों को सिखाया, कईयों के गुरु
- राजनीति में सदासयता, सहजता व सामंजस्य की त्रिमूर्ति थे
मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
RNE Network
‘ समस्या है, चिंतित होने की क्या जरूरत है। मिल बैठकर बात करेंगे। कोई न कोई हल निकल जायेगा। चिंता से तो हल निकलता नहीं। उससे तो समस्या विस्तार पाती है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि ध्येय समस्या का निदान है, हम गौण है। खुद के अहंकार को त्याग स्वस्थ भाव से मिल बैठकर बात करेंगे तो हल स्वतः नजर आ जायेगा। ‘
बड़ी से बड़ी समस्या पर भी सहज रहकर यह कहने का मादा रखना आसान नहीं, मगर इस कठिन काम को भी करने की महारत मेरे गुरु भवानी शंकर शर्मा ‘ भवानी भाई ‘ में थी। तभी तो उनको 80 साल का बुजुर्ग, 30 साल का युवा और 10 साल का बच्चा भी भवानी भाई ही कहता था। इस संबोधन से वे खुश भी होते थे। एक भाई की तरह वे हर उम्र के व्यक्ति से बात करते, जितनी होती उतनी मदद करते। दिल के राजा थे वे, सदा सहयोग को तैयार। ना तो उनके पास था ही नहीं। मुस्कुराते रहते, बात सुनते और जो भी हो सकता करते। सरकार में खादी बोर्ड अध्यक्ष के रूप में कैबिनेट मंत्री का दर्जा, दो बार न्यास अध्यक्ष, एक बार जिला प्रमुख, एक बार निर्वाचित नगर निगम महापौर, पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता, जिला अध्यक्ष आदि आदि कई बड़े राजनीतिक पद पास रहे, मगर गुरुर उनको छू भी नहीं पाया। भवानी भाई ही बने रहे। दिवंगत शिवशंकर पुरोहित अक्सर कहते थे, भवानी भाई आपका दिल आम आदमी से चार गुना बड़ा है। भले ही जांच करा लो।
राजनीति में वे बहुत ऊंचाई तक गये। दो विधानसभा सीटों को मिलाकर बने नगर निगम के महापौर का सीधा चुनाव हुआ, वे लड़े। जीते। जनता ने उनको जमकर समर्थन किया। मुझे पता है, विपक्षी भी गुपचुप यही चाहते थे कि वे जीतें। कभी उनकी आलोचना नहीं करते थे। सामने खड़े हुए उम्मीदवार गोपाल गहलोत ने टिकट मिलते ही फोन करके कहा, भवानी भाई यदि मेरा कोई आदमी बदतमीजी करे तो बता देना, पकड़कर लाऊंगा और माफी मंगवाऊंगा। ऐसा इस दौर की राजनीति में कहां सम्भव है। राज्य के तीन बार रहे मुखिया अशोक गहलोत के विश्वसनीय। जो काम पार्टी देती निष्ठा से पूरा करते। विरोधी भी उनकी सहजता के कारण उनका सम्मान करते। महापौर के रूप में सफल, विपक्षी भी सम्मान करते थे क्योंकि विकास के काम में कभी भेदभाव नहीं। कायल थे विपक्षी पार्षद।
साहित्य अनुरागी:
भवानी भाई शहर व प्रदेश के साहित्यकारों का बेहद सम्मान करते थे। अपने महापौर के कार्यकाल में उन्होंने शहर के कई मार्गों का नामकरण नामचीन साहित्यकारों के नाम पर किया। न्यास अध्यक्ष व महापौर के रूप में इन संस्थानों से साहित्यकारों का सम्मान व पुरस्कार आरम्भ किये।
शहर के हर साहित्यिक कार्यक्रम में उपस्थिति रहती उनकी। साहित्यकार यदि कुछ डिमांड कर दे तो तुरंत उसे मानते थे। मुझे तो उन्होंने साहित्य में बहुत प्रोत्साहित किया। हर लोकार्पण समारोह के बाद घर बुलाते। या तो चांदी का सिक्का या नकद राशि देकर अपनी खुशी का इजहार करते। साथ ही यह भी कहते कि अभी रुकना नहीं है, चलते जाना है। लंबा सफर तय करना है। उनकी बात रखने के लिए ही अब तक कुछ करने की जदोजहद कर रहा हूं। ये उस गुरु की ही प्रेरणा है। जो मन से सदा मुझे सफल देखकर प्रफ्फुलित होते थे।
कुशल पत्रकार:
भवानी भाई पहले राजस्थान पत्रिका के बीकानेर में संवाददाता थे। सहज पत्रकार, थानेदारी नहीं। बाद में राष्ट्रदुत के सम्पादक बने। तब मुझ जैसे कई लोगों को शब्द का संस्कार देकर पत्रकार बनाया। जब वे खुद खबर लिखते तो मैं देखता था, कमाल की भाषा। जन आवाज को उठाने की सबको समझ आने वाली अभिव्यक्ति। खबर लिखने की कला मैने उनसे ही सीखी। कई पत्रकार तैयार किये। वे कहते थे, ये जनता का माध्यम है। पक्षपात रहित रहकर हमें जनता की आवाज को उठाना चाहिए, जो उठाता है उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। नया नेतृत्त्व खड़ा करने के प्रयास करने चाहिए। सच्ची पत्रकारिता क्या होती है, यह उनको देखकर ही समझ आ जाती थी। आज की तरह की पत्रकारिता से बिल्कुल अलग।
सच्चे और अच्छे गुरु:
वे सच में सच्चे और अच्छे गुरु थे। पता नहीं कैसे सोचा कि मैं पत्रकार बन सकता हूं, मैने तो कभी कल्पना ही नहीं की थी। जबरदस्ती मुझे इस फील्ड में लाये। रगड़ाई करते गये। पत्रकार बनाया। पत्रकार के रूप में जो कुछ भी हूं, उनकी देन हूं। जब भी कुछ थोड़ा गलत करता तो फोन करके गलती बताते, चेताते। अच्छा करता तो प्रोत्साहित करना भी नहीं भूलते थे। ऐसे गुरु इस जमाने में कहां मिलते हैं।
राजनीति, पत्रकारिता व साहित्य की त्रिवेणी थे भवानी भाई। सदा मुझे और उन लोगों को अब भी मार्गदर्शित करते हैं, जिनको उनका सानिध्य मिला। गुरु चरणों में वंदन। गुरु सदा जिंदा रहते हैं, शिष्य के मन में, विचारों में।