उर्दू अदब की बातें : जब पंडित कैफ़ी ने उर्दू की हिफ़ाज़त में उठाई कलम
उर्दू अदब की बातें
इमरोज़ नदीम

RNE Special.
( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )
दोस्तों इस बार कॉलम*उर्दू अदब की बातें* में एक अछूते किस्से को सुप्रसिद्ध अदीब सुभनीत कौशिक से साभार उन्हीं के लफ्ज़ों में पेश कर रहें हैं ।
बृजमोहन दत्तात्रेय कैफ़ी, उर्दू और हिंदू महासभा :
- सुभनीत कौशिक
उर्दू के प्रसिद्ध शायर पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय कैफ़ी वर्ष 1935 में अंजुमन तरक़्क़ी-ए उर्दू लाहौर के सभापति बने। उससे तीस बरस पहले 1905 में ही बृजमोहन दत्तात्रेय ‘भारत दर्पण मुसद्दस-ए कैफ़ी’ जैसा काव्य-ग्रंथ रचकर प्रसिद्धि अर्जित कर चुके थे। ‘कैफ़ी देहलवी’ तख़ल्लुस से रचनाएँ करने वाले पंडित बृजमोहन ‘तुज़ुक-ए क़ैसरी’, ‘प्रेम तरंगनी’, ‘ख़मखाना-ए कैफ़ी’ जैसी अपनी किताबों के लिए भी वे जाने गए।

पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय (1866-1955) का उर्दू के एक संगठन का सभापति बनना हिंदू महासभा को नागवार गुजरा। इसका पता इस बात से चलता है कि इस बात पर ऐतराज जताते हुए दिल्ली हिंदू महासभा के सचिव नेक चंद ने जून 1936 में एक खत पंडित बृजमोहन को लिख भेजा। जिसमें नेक चंद ने लिखा कि ‘आप एक हिंदू है और इसलिए हिंदू महासभा को आपके इस कृत्य पर (यानी अंजुमन का सद्र बनने पर) खेद है। सभा आपसे अनुरोध करती है कि आप अंजुमन के सभापति के पद से त्यागपत्र दे दें।’ अपने उसे खत में नेक चंद ने वे तमाम कारण गिनाए थे, जो उनके मुताबिक़ यह बताते थे कि क्यों दत्तात्रेय कैफ़ी को उस पद से त्यागपत्र देना चाहिए।

दो मुख्य वजहें, जो नेकचंद ने उसे खत में बार-बार जोर देखकर लिखी थी, पहला यह कि हिंदी “सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा” है और उसे राष्ट्रवादी भी तरजीह देते हैं। और दूसरा यह कि हिंदी पूरे हिंदुस्तान में पढ़ी और समझी जाती है, जबकि उर्दू को समझने-बोलने वाले लोग पंजाब और युक्त प्रांत के कुछ हिस्सों तक सीमित है। अपने इस खत में नेकचंद ने अपने संगठन की विचारधारा के अनुरूप भाषा को धार्मिक अस्मिता से भी जोड़ा और लिखा कि ‘हिंदी हिंदुओं की भाषा है और चूँकि आप हिंदू हैं इसलिए आपका आत्मसम्मान यह मांग करता है कि आपको उर्दू को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए, जोकि मुसलमानों की भाषा है’। मज़ेदार बात है कि ख़ुद नेक चंद का वह ख़त हिंदी में नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में लिखा गया था।
नेकचंद के उसे लंबे ख़त का जवाब दत्तात्रेय कैफ़ी ने एक उतने ही लंबे खत में दिया। जिसमें उन्होंने बिंदुवार नेक चंद द्वारा गिनाए गए दोषपूर्ण तर्कों को खारिज किया था। दत्तात्रेय कैफ़ी ने सबसे पहले तो यह बात स्पष्ट कर दी कि वे यह नहीं मानते कि उर्दू और हिंदी किसी धार्मिक समुदाय विशेष की भाषाएं हैं। उनका कहना था कि ऐसे तमाम गैर-हिंदू हैं, जिनकी भाषा हिंदी है और दूसरी तरफ तमाम गैर-मुसलमान भी हैं, जिनकी भाषा उर्दू है।
उन्होंने नेक चंद द्वारा दिए गए उस तर्क को भी खारिज किया जिसके अनुसार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में समर्थन दिया था। सच्चाई यह थी कि कांग्रेस ने वर्ष 1925 में हिंदी नहीं बल्कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया था। दत्तात्रेय कैफ़ी ने लिखा कि नेहरू रिपोर्ट, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूरा समर्थन दिया था, में भी उर्दू और हिंदी को राष्ट्रीय सरकार की भाषा के रूप में तरजीह देने की बात कही गई थी।
हिंदू महासभा द्वारा संस्कृतनिष्ठ हिंदी के समर्थन पर टिप्पणी करते हुए दत्तात्रेय ने कहा कि ‘जिस संस्कृतनिष्ठ भाषा को आप लोग हिंदी कह रहे हैं उसे मैं हिंदी मानने को तैयार नहीं। यह भाषा तुलसी और सूर के किसी अध्येता के लिए उतनी ही अजनबी है, जितनी कि अरबी या ग्रीक भाषा होगी।’
ये दोनों ख़त तीन मूर्ति लाइब्रेरी में उपलब्ध हिंदू महासभा पेपर्स में पढ़े जा सकते हैं। इस बहस से गुजरते हुए आनंद नारायण मुल्ला (1901-1997) का वह शेर बरबस याद आता है :
'मुल्ला' बना दिया है इसे भी महाज़-ए-जंग
इक सुल्ह का पयाम थी उर्दू ज़बाँ कभी

