टाउन हॉल का किराया कला संस्थाओं के लिए कम क्यों नहीं करते, रवींद्र रंगमंच क्यों कला संस्थाओं की पहुंच से दूर है
जन प्रतिनिधियों को सहयोग करना जरूरी है
रितेश जोशी
RNE Special.
भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक लोक कल्याणकारी गणराज्य है। इस अवधारणा का अर्थ यह है कि यहां शिक्षा, चिकित्सा, कला, संस्कृति सरकार का दायित्त्व है और ये सरकार की कमाई के माध्यम नहीं है। जब देश में आर्थिक उदारीकरण को लागू किया गया तो शिक्षा व चिकित्सा तो अब सरकार के नहीं रहे। इन क्षेत्रों में तो निजीकरण प्रवेश कर गया। उस पर बात फिर कभी।
अभी तो बात कला व संस्कृति की। किसी भी सभ्य समाज की पहली जरूरत कलाओं की स्थापना है। हमारे यहां कहा भी गया है कि कला विहीन मनुष्य पशु के समान होता है। संस्कृति व्यक्ति में संस्कार का निरूपण करती है। ये विषय अब तक सरकार के कमाई के साधन नहीं थे। मगर जब से संस्कृति को पर्यटन से जोड़ा गया, इसको भी कमाई का साधन बनाने का स्वभाव शुरू हो गया।
बीकानेर तो है ही सांस्कृतिक नगरी:
बीकानेर की पहचान ही सांस्कृतिक नगरी के रूप में है। इस शहर को छोटी काशी भी कहा जाता है। धर्म, साहित्य व संस्कृति की यहां त्रिवेणी बहती है। इस शहर की लोक कलाएं भी देश भर में विख्यात है।
ये वो शहर है जिसने लोक नाट्य रम्मत व फड़ को जन्म दिया। भक्ति संगीत में यहां की अलग विशिष्ट पहचान है। कच्छी घोड़ी नृत्य यहां की खासियत है। ऐसे कई नृत्य व लोक कलाएं इस शहर की है।
साहित्य के क्षेत्र में तो यह शहर उत्तर भारत का प्रमुख शहर है। डॉ छगन मोहता, श्रीगोपाल आचार्य, हरीश भादानी, नंदकिशोर आचार्य, यादवेंद्र शर्मा ' चन्द्र ', दीन मोहम्मद मस्तान, उस्मान आरिफ, श्रीलाल नथमल जोशी, मुरलीधर व्यास ' राजस्थानी ' आदि। ये फेहरिस्त तो इतनी बड़ी है कि नाम याद रखने भी मुश्किल है। कुल मिलाकर यह एक सांस्कृतिक नगरी है।
उत्तर भारत की राजधानी:
बीकानेर को रंगमंच के क्षेत्र में तो उत्तर भारत की राजधानी कहा जाता है, यह बात नेमिचन्द्र जैन ने कही है। इस शहर में नाटक की विपुल गतिविधियां होती है। यहां के रंगकर्मी पूरे देश मे प्रदर्शन करते है।
रंगमंच के किराये अधिक क्यों ?
बीकानेर विकास प्राधिकरण के पास पुराने रंगमंच ' टाउन हॉल ' का प्रबंधन है। उसके किराये में भी विरोधाभास है। रजिस्टर्ड संस्थाओ के लिए कम और अन्य कला संस्थाओं के लिए काफी अधिक। अच्छे आयोजन करने वालों को या तो रजिस्टर्ड संस्थाओं को उधारी पर लेना पड़ता है या फिर अधिक किराया देना पड़ता है। एक समय था जब रंगकर्मियों को न्यूनतम किराए पर टाउन हॉल मिलता था और सुविधाएं भी पूरी मिलती थी। अब किराया बढ़ गया, सुविधाएं घट गई। ये कला और संस्कृति की उपेक्षा है।
रवींद्र रंगमंच और भी महंगा !!
रंगकर्मियों ने एक लंबा संघर्ष करके रवींद्र रंगमंच बनवाया। अब यही रंगमंच उनकी पहुंच से दूर हो गया है। यहां अकादमी से सम्बद्ध संस्थाओं से कम किराया लिया जाता है और बाकी संस्थाओं इतना अधिक की वे हिम्मत भी नहीं कर पाते। इसका प्रबंधन भी बीकानेर विकास प्राधिकरण के पास ही है। इसके किराए का भी मूल्यांकन होना चाहिए व उसे कम किया जाना चाहिए।
ओपन एयर थियेटर मैनेज नहीं:
रवींद्र रंगमंच के पीछे ओपन एयर थियेटर बनाया गया मगर उसे विकास प्राधिकरण ने मैनेज ही नहीं किया। बदहाल है उसकी स्थिति। इसे भी सही रखकर कलाकारों को उपलब्ध कराना चाहिए। नहीं तो ये काम का ही नहीं रहेगा।
जनप्रतिनिधि सहयोग करें:
शहर की कला एवं संस्कृति की रक्षा के लिए जन प्रतिनिधियों को अब आगे आना चाहिए। उनको अपने फंड से रंगमंचों का विकास करना चाहिए और सरकार तथा प्रशासन पर दबाव बनाकर इन रंगमंचों का किराया कम कराना चाहिए।
रुद्रा के ये है सवाल !!!
- क्या रंगमंच सरकार व प्रशासन की कमाई के साधन है ?
- इनका रखरखाव विकास प्राधिकरण करीने से क्यों नहीं करता ?
- रवींद्र रंगमंच के लिए एक समिति बनी हुई है। उसको अधिकार है। क्या उसकी कभी बैठक हुई?
- संभागीय आयुक्त व जिला कलेक्टर महोदय कलाओं के लिए हस्तक्षेप क्यों नहीं करते ?
- जन प्रतिनधि अपने सांसद व विधायक कोटे से रंगमंचों को कभी विकसित क्यों नहीं करते ?