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Bikaner Rangmanch : … और ग्लैमर का बुखार झाड़ दिया मंगलजी ने

अभिषेक आचार्य

मंगलजी की बात गंभीर थी कि रंगमंच पवित्र मंदिर है और इसमें आने से पहले अपने सभी जूते बाहर खोलकर आने है। ये बात सबके दिल को लगी और सब मौन होकर उस पर सोचने लगे। इस तरह से रंगमंच की परिभाषा सबने पहली बार सुनी थी। नहीं तो रटी रटाई बातें ही सुनने को मिलती रही थी। रंगमंच का ध्येय इतना पवित्र है, ये पहली बार सुनने को मिला। गंभीरता तो आनी ही थी, नई बात जो पता चली थी।

मौन को तोड़ा विष्णुकांत जी के सवाल ने “मेरी एक राजनीतिक विचारधारा है। जिसके लिए मैं समर्पित हूं। फिर उसका क्या होगा ?”

मंगल जी मुस्कुराते हुए बोले “मुझे पता है ये बात। मैं उस विचारधारा को छोड़ने की बात ही नहीं कर रहा। वो व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। जिसे बाधित करना तानाशाही होती है। नाटक कभी भी तानाशाही का पक्षधर नहीं। ये तो मानते हो बिल्कुल। ये तो सहकार की अभिव्यक्ति है। समाज से सरोकारित है। समाज व सहकार तो तानाशाही के विरोधी है।

मैं भी यही कहना चाहता हूं। आप अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक विचारधारा को जियें। शिद्दत से जियें। बस, उसका प्रभाव रंगमंच पर न पड़े, ये सावधानी जरूर बरतें। नाटक की अपनी एक विचारधारा है जो आपने खुद बताई। सहकार व समाज, उस पर राजनीतिक विचारधारा का प्रभाव न पड़े। मेरे दिमाग का बड़ा बोझ हल्का हो गया। आपने सारा तनाव कम कर दिया। मैं आपकी उलझन को पहचान गया था। अब तो कोई कन्फ्यूजन नहीं रहा। बिल्कुल नहीं।

अब बीच में प्रदीप भटनागर जी ने हस्तक्षेप किया “इससे केवल भाई का नहीं, सबका कन्फ्यूजन दूर हो गया। राजनीति अपनी जगह है, मगर नाटक में वो न आये। तभी सच्चा रंगमंच सम्भव है।”

सबने इस बात में हां भरी। फिर मंगलजी ने जानकारी मांगी। शिविर के लिए क्या तय किया।

प्रदीपजी बोले “वो तो होगा ही तय है। बाकी तैयारी के बारे में विष्णुकांत जी बतायेंगे।”

विष्णुकांत जी ने बताना शुरू किया “ये शिविर हम मोहता भवन के पिछवाड़े में आयोजित करेंगे। वहां पहले से ही कल्पना संगीत संस्थान चलती है। संगीतज्ञ अमरचंद जी पुरोहित उसे चलाते हैं। वे कई नाटकों में भी काम कर चुके हैं।

ये तो और भी अच्छी बात है। उनको भी हम शिविर से जोड़ेंगे। क्योंकि नाटक गीत, संगीत व नृत्य से ही पूर्णता पाता है। एक अकेला नाटक ही ऐसा है जिसे सभी कलाओं का समुच्चय कहा जाता है।

उन्होंने भी साथ रहने की सहमति दे दी है। वे सक्रिय रहेंगे पूरे शिविर में।

वाह, अच्छा काम है। कितने लोग हो जायेंगे शिविर में?

बीच में चौहान साहब ने जानकारी दी “कम से कम 50 लोगों से हमने संपर्क किया है। लगता है इसमें से 25 से 30 लोग तो शामिल हो ही जायेंगे। इतने तो बहुत है। एक शहर में इतने लोग होना बड़ी बात है।”

प्रदीपजी बोले “इसमें भी बड़ी बात ये है कि कम से कम 10 से अधिक लोग नये होंगे। जिन्होंने कभी नाटक ही नहीं किया। ये अच्छी बात है। पुराने हम लोग तो हैं ही। नयों का होना तो शुभ संकेत है। उनके दिमाग में कोई पूर्वाग्रह नहीं होता। न वे अपने को पुरानों की तरह सिद्ध मानते हैं। उनको तैयार करना सुगम रहता है।”

चाँदजी बीच में बोले “सर, हम भी अपने को नया मानकर ही शिविर में भागीदारी करेंगे। क्योंकि आपसे जो नई बातें सीखने को मिली है, उससे लगता है हमें भी अभी तक बहुत सीखना है।”

प्रदीपजी अपने अंदाज में बोले “पूरा तो कोई सीख ही नहीं सकता। हर नाटक कुछ नया सिखाता ही है। बस, सीखने की ईच्छा होनी चाहिए।
मंगलजी ये सुनकर मुस्कुराये। तभी चांदजी बीच में बोले। बीकानेर में सर एक दिक्कत है। वो क्या ?

यहां के नाटक के मंचन की अच्छी खबरें न तो यहां के अखबारों में छपती है और न बाहर के अखबारों में। इस कारण कलाकारों को प्रोजेक्शन सही नहीं मिलता।

मंगलजी के चेहरे का भाव बदल गया। बोले, नाटक में हम नाम कमाने, पैसा कमाने या लोगों की तालियां बटोर प्रसिद्धि के लिए नहीं आते। इसमें हम अपनी ईच्छा से सामाजिक दायित्त्व समझकर आते हैं। आते हैं ना ?

बिल्कुल।

फिर प्रसिद्धि की ईच्छा क्यों। ग्लैमर का नाटक से कोई वास्ता नहीं। ग्लैमर की चाह रखने वालों को फिल्म या टीवी में जाना चाहिए। वो ग्लैमर की दुनिया है। जहां पैसा, नाम, वाहवाही, प्रसिद्धि आदि सब कुछ है। नाटक में तो प्रतिबद्धता है, समर्पण है, त्याग है। यहां कोई किसी को आने के लिए पीले चावल नहीं देता। न धमकाकर लाता है। जो आता है, अपनी मर्जी से आता है।

सबने सिर हिलाकर सहमति दी।

इसलिए मेरा आग्रह है कि यदि कोई ग्लैमर की चाह में हमारे नाट्य प्रशिक्षण शिविर में आना चाहता है तो उसे पहले से ही इंकार कर दें। ऐसे लोग जीवन में रंगमंच की सेवा का लगातार काम कर ही नहीं सकते। वे तो अपने लिए इस क्षेत्र में आते हैं। उनको समाज, कला से कोई लेना देना नहीं। प्लीज, जो मन में ग्लैमर का भाव रखता हो वो पहले ही अपने आप अलग हो जाये।

सब सन्न रह गये।

चाँदजी तब बोले “मेरा भाव ग्लैमर का नहीं था। मैं तो एक बात बता रहा था।

आप अच्छा नाटक करके दर्शक के दिल में स्थान बनाइये। वो दर्शक आपको अपने आप हर जगह ऊंचा स्थान दिलवायेगा। हमारा पैमाना दर्शक है, ग्लैमर नहीं। बस, ये ध्यान सदा ही रंगकर्मी को रखना चाहिए।”

प्रदीपजी बोले”सही बात है। हम नाटक दर्शक के लिए करते हैं। खबर या ग्लैमर के लिए नहीं। सब सहमत थे। चलो, काफी भारी बातें हो गई। अब एक बार फिर चाय तो हो जाये। प्रदीपजी आप अपनी मुट्ठी की गुलक घुमाइये। प्रदीपजी मुस्कुराते हुए उठ खड़े हुए। माहौल नॉर्मल हो गया।

ये सही है कि नाटक की पहली और आखिरी कसौटी दर्शक है। जिसका ध्यान हर रंगकर्मी को रखना चाहिए। हम नाटक उसी के लिए ही करते हैं। जो रंगकर्मी ग्लैमर के लिए इस फील्ड में आता है, वो अधिक दिन नहीं चल पाता। रंगकर्म का नुकसान कर वो चलता बनता है। जिनको टीवी या सिनेमा में जाना है तो उसके अपने माध्यम है। वहां जाना चाहिए। यहां आकर अपना व दूसरों का समय खराब नहीं करना चाहिए। नाटक तो पूरी तरह से समर्पण व प्रतिबद्धता चाहता है।


“उस दिन पहली बार रंगमंच के ध्येय पर गम्भीर बात हुई। नाटक में विचार की प्रधानता होनी जरूरी है मगर रंजन भी जरूरी है। क्योंकि हमारा लक्ष्य दर्शक होता है। इस कारण नाटक में वही आये जो प्रतिबद्धता रखता हो। अपना ग्लैमर का जिनको शौक हो वे दूसरे जरिये में जाये। आज भी स्थिति बुरी है। लोग दूसरे माध्यमो में जाने के लिए नाटक को सीढ़ी बनाते हैं, दरअसल वे नाटक का नुकसान करते हैं। इस वृति वालों को सच्चे रंगकर्मी हाथ जोड़ दें तो रंगमंच का भला होगा।”

प्रदीप भटनागर