Skip to main content

चेत भाईड़ा चेत ! हाको करणों पड़सी !! राज ने जगावणों पड़सी !! मां करे है हेलो, जाग नींद सूं जाग!!

RNE, BIKANER .

विधानसभा चुनाव गये। राज्य में लोकसभा के भी वोट पड़ गये। किसी राजनीतिक दल, उम्मीदवार ने भाषा की बात नहीं की। मंदिर की बात की, धारा 370 की बात की, गारंटियों की झड़ी लगाई, वादे किये। मगर किसी ने भी भाषा या संस्कृति की बात नहीं की। यदि भाषा, संस्कृति ही नहीं रहेंगे तो इन सब वादों, गारंटियों का क्या फायदा। मातृभाषा के बिना उनका वजूद क्या ?


हम राजस्थानी के, मां के लाल भी झुनझुने सुनते रहे, उनकी आवाज पर मदमस्त होते रहे। किसी ने भी इन राज के हिस्सेदार बनने वालों से मातृभाषा राजस्थानी पर कोई बात ही नहीं की। सवाल नहीं दागे। गुस्सा नहीं किया। अपनी मां बोली को लेकर हम इतने उदासीन क्यों हो गये, एक बार इस पर भी सोचें। राज व उसके नेताओं के पीछे पूंछ हिलाकर उनकी आरती उतारने से मां की रक्षा नहीं होगी। मायड़ की लाज नहीं बचेगी।


हम बुरे क्यों बनें, ये सोचकर सब चुप रहे और चाहते रहे कि भगत सिंह दूसरे के घर मे पैदा हो। ताकि हम उसकी भी जय जयकार कर लें, नेताजी की भी कर लें ताकि इनाम – इकराम भी मिलता रहे। हम उसकी बिना पर अकड़ते रहें। हमें तो हम से मतलब है, मायड़ भाषा के लिए तो लोग लड़ेंगे। मिलेगी तब झंडा उठा श्रेय लेना हमको आता है।

ऐसे लोगों के कारण ही हमारी भाषा का आंदोलन अब तक सिरे नहीं चढ़ पाया। हम आंदोलन के प्रणेता, सैनिक, पथ प्रदर्शक आदि तो कहलाते रहना चाहते हैं पर राजनीति से सवाल करने से बचते रहते हैं। मान्यता आंदोलन के कागजी शेर बनकर हम अखबारों की खबर बनते रहें, हमसे किसी से टकराने की चाह न रखें। इस तरह के बहरूपिये राजस्थानी भाषा के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने वाले अधिक हो गये हैं। इन सबको अलग करके राजस्थानी के सच्चे सपूतों को अब आगे आना होगा। नहीं तो हम राज से इन दलालों के कारण सदा ठगे जाते रहेंगे।


हर राजस्थानी को तमिलनाडु की बात मन में उतारनी होगी। जब राज ने तमिल को पिछे धकेल हिंदी लागू करने की कोशिश की तो हर दल का नेता विरोध में खड़ा हो गया। यहां तक कि जिनका केंद्र में राज था, उस पार्टी के नेता भी अपने राज के खिलाफ खड़े हो गये। मजबूरी में तमिलनाडु के लोगों की मातृभाषा तमिल को वापस वही सम्मान देना पड़ा। क्या हम राजस्थानी ऐसा नहीं कर सकते, एक बार सोचें तो सही।

नेताओं की जी हजूरी, राज से लाभ की लालसा, पद पाने की लिप्सा, इनाम की भूख छोड़कर एक बार तो अपनी मातृभाषा राजस्थानी के प्रति वफादार बनें। अब समय आ गया। हमें जागना होगा, बोलना होगा, अड़ना होगा, तभी हमारी राजस्थानी को मान्यता मिलेगी। भाषा नहीं बची तो संस्कृति नहीं बचेगी और फिर हम भी नहीं बचेंगे। हे मायड़ के लाडेसरों, भाषा को बचाने का जतन सब पूर्वाग्रह छोड़कर करो। मां, मायड़ भाषा, राजस्थानी तुम्हें पुकार रही है। कर्ज तो अदा करो।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘