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खतरे के समीकरण : किसको, किससे, कब खतरा हो जाए, कब बढ़ जाए, कब टल जाए जानिये इसके खास फार्मूले !

आज हमारे समक्ष जो आदर्श बने बैठे हैं वे कैसे हैं उनके विषय में मुझे अधिक बतलाने की आवश्यकता नहीं, न्यूनाधिक सभी जानते हैं। यहाँ मुझे आदरणीय भगवती चरण वर्मा की ‘दो बाँके’ कहानी के किसान पात्र का संवाद याद आता है, ‘मुल्ला ! अच्छो स्वांग करयो ।’… (डॉ मंगत बादल के इसी आलेख से)



जिन दिनों चीन अपने देश की उन्नति के लिये नये-नये तरीके विकसित कर रहा था और अमरीका अपना पुराना रुतबा बनाये रखने के लिये अपनी विदेश नीति में परिवर्तन कर रहा था। उन दिनों अन्तर राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग आदि की चर्चायें भी आम थीं। साथ ही कोई देश शुक्र ग्रह पर तो कोई मंगल ग्रह पर अपना उपग्रह भेज रहा था। उन दिनों हमारे देश में भी आरक्षण और मन्दिर निर्माण के मुद्दों पर गरमा-गरम बहसें हो रही थीं। ठीक उन्हीं दिनों हमारे यहाँ के नेताओं, अभिनेताओं, क्रेताओं, विक्रेताओं, धुरन्धरों, पुरन्दरों, चौकीदारों और समाज के ठेकेदारों ने एक शब्द को नई व्याख्या दी। वह शब्द था खतरा ! इस खतरे के चलते न तो कोई किसी को अपनी जाति बतला सकता था और न ही अपना मजहब।

कहते हैं जाति या धर्म का नाम बोलने मात्र से खतरा गहन से गहनतर होता जाता था। इस शब्द को नेताओं ने अपनी कुर्सी चले जाने के डर के कारण ढाल बनाया तो अभिनेताओं ने उनकी फिल्में लगातार पिटने पर। क्रेताओं-विक्रेताओं ने मंदी और महंगाई का रोना रोकर तथा चौकीदारों, अलम्बरदारों और ठेकेदारों आदि सभी ने अपनी-अपनी चोरियाँ छिपाने के लिये इस शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग करना शुरु कर दिया।

कुर्सी चले जाने के बाद जब नेता को जनता के बीच में आना पड़ता है तो उन्हें अपने सिर पर कोई अज्ञात खतरा मंडराता महसूस होने लगता है जबकि वास्तविकता यह है कि अपने लिये पुनः कुर्सी का जुगाड़ करने के लिये उन्हें जनता की सहानुभूति चाहिये। जब तक कुर्सी प्राप्त नहीं हो जाती तब तक यह खतरा बराबर मंडराता रहता है। अभिनेता को अपनी गिरती साख बचाने के लिये सुर्खियों में रहना जरूरी होता है इसलिये उसे भी खतरे की ही ओट लेनी पड़ती है। इस खतरे का आरोप गोलमोल बातें करके इस भाँति किसी पर लगाया जाता है कि विवाद के कारण उसका नाम कई दिनों तक मीडिया में उछलता है। लोग कयास भी लगाते हैं कि उसे किससे खतरा हो सकता है। किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बाद में जब मानहानि के दावे की धमकी आती है तो माफियाँ माँग ली जाती हैं अथवा बयान को तोड़-मरोड़ कर छापने का कहकर ठीकरा मीडिया के सिर पर फोड़ दिया जाता है।

इस खतरे के चलते किसी के चरित्र पर ‘मी टू’ का अरोप लगाकर उसकी तौहीन करने की कोशिश भी की जा सकती है। यहाँ ‘बदनाम हुये तो क्या नाम न होगा’ का सिद्धान्त काम करता है। ये दूध धुले लोग यह भी जानते हैं कि जनता की स्मरण-शक्ति बड़ी कमजोर है। वे कल इन सब बातों को भूल भी जायेंगे। यदि यह मामला सच भी हो तो उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जब किसी पर ‘मी टू’ का कीचड़ उछलता है तो सामने वाला हैरान होकर पूछता है- यू टू ! अर्थात तुम भी ! इस को लेकर जम कर बयानबाजी हुई। बहुतों के चेहरों पर कालिख पुती। दो दिन हंगामा हुआ फिर टांय-टांय फिस्स ! सब ने भीतर ही भीतर खूब मजे लिये। कौन किसको कहता और क्या कहता ? इस हमाम में सभी नंगे हैं।आज जब कोई भाषण देते हुये कहता है कि अमुक के पद चिह्नों पर चलें तो सुनकर मुझे हँसी आती है कि उन के जिन मार्गों पर पाँव पड़े हैं वे कितने पवित्र और अनुकरणीय हैं। आज हमारे समक्ष जो आदर्श बने बैठे हैं वे कैसे हैं उनके विषय में मुझे अधिक बतलाने की आवश्यकता नहीं, न्यूनाधिक सभी जानते हैं। यहाँ मुझे आदरणीय भगवती चरण वर्मा की ‘दो बाँके’ कहानी के किसान पात्र का संवाद याद आता है, ‘मुल्ला ! अच्छो स्वांग करयो ।’

हमारे देश में खतरा है उन राज नेताओं को, जो येन केन प्रकारेण आजीवन अपने पद पर बने रहना चाहते हैं तथा उन की मृत्यु के बाद उन के ही बेटी-बेटे उस पद को सुशोभित करें, ऐसा चाहते हैं। इस के लिये उन्हें जो भी छल-छद्म करने पड़ें उन्हें वे करते हैं। खतरा उन राज नेताओं को भी है जो पदच्युत हो चुके हैं और उसे पुनः प्राप्त करना चाहते हैं। वे कभी धर्म या मजहब पर, कभी जाति या वर्ग पर, कभी मन्दिर या मस्जिद पर खतरा बतलाकर गद्दी हथियाना चाहते हैं। जो लोग गद्दी पर जमे रहना चाहते हैं तथा जो गद्दी हथियाना चाहते हैं उन में एक बात आम है कि दोनों को ही जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। केवल अपना उल्लू सीधा करना है। इसीलिये उन्हें खतरा है। जब तक वे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते तब तक उन पर ये खतरा यूं ही मंडराता रहेगा। सोचने की बात है कि जब इन पर खुद पर संकट आता है तभी इन्हें धर्म, मजहब, मन्दिर, मस्जिद आदि क्यों याद आते हैं ? जनता कई बार उस समय खतरे के नाम पर झाँसे में आ जाती है जब उन्हें विदेशी आक्रमण का खतरा दिखाया जाता है। राजनेता जब विदेशी हमले का खतरा बताते हैं तो मुझे लोक में प्रचलित एक मुहावरा याद आता है- भेड़ को कुत्ता दिखलाना क्योंकि राजनेताओं के समक्ष जनता की हैसियत भेड़ से ज्यादा है भी नहीं। ऊन उतारने के बाद उसे पाँच साल भटकने के लिये छोड़ दिया जाता है।

खतरा है यहाँ बड़े-बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों को, जो कर चोरी करते हैं। बैंकों से बड़े-बड़े ऋण लेते हैं और विदेशों में भाग जाते हैं या डकार जाते हैं। उन बड़े-बड़े अधिकारियों पर भी खतरा मंडराता रहता है जो मोटा कमीशन ले-लेकर या रिश्वतें खा-खाकर अपनी आगामी सात पीढ़ियों के लिये धन जमा कर चुके हैं। जिन लोगों को यह भी पता नहीं कि उन के पास कितना धन जमा है, वे सचमुच खतरे में हैं। स्वदेशी का प्रचार करके जनता में देश भक्ति जगाकर अपना माल बेचने वाले दूसरों के माल को तो खोटा ही बतायेंगे। वे तो विदेशी माल खरीदने वाले को गद्दार ही कहेंगे। स्वदेशी का प्रचार करने वाले विदेशी माल को देश में आने ही क्यों देते हैं ? न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। सरकारें जब बड़े-बड़े व्यापारिक समझौते करती हैं तो क्या इसलिये कि कोई उस माल को खरीदे ही नहीं। फिर आपका माल विदेशों में कौन खरीदेगा ? क्या यह खतरा नहीं है ? गुड़ खाकर गन्ने से

परहेज। खतरे का यह नाटक कब तक चलेगा ?

यहाँ खतरे में किसान नहीं हैं जो दिन-रात, सरदी-गरमी की परवाह न करके चौबीसों घंटे खेतों में खटते रहते हैं। इसके बाद जब फसल लेकर बाजार में आते हैं तो उसे उनकी मेहनत मिलना तो दूर लागत भी पल्ले नहीं पड़ती और वे कर्ज में डूबते जाते हैं। उन्हें बिलकुल खतरा नहीं है कि अधिक वर्षा होगी तो उनकी फसलें डूब जायेंगी। बाढ़ में उनके घर बह जायेंगे। वे उजड़ गये तो कहाँ रहेंगे ? यह खतरा उन्हें नहीं सताता। यदि बरसात नहीं हुई तो उनकी फसलें जल जायेंगी और भयंकर सूखा पड़ जायेगा। टिड्डियाँ उनकी फसलों को तबाह कर देंगी और उनके बाल-बच्चे भूख से तड़प-तड़प कर मर जायेंगे। फिर भी उन्हें कोई खतरा नहीं है क्योंकि उनके पास विकल्प है। विकल्प है- आत्महत्या ! उसके लिये ज्यादा साज-ओ-सामान की जरूरत नहीं होती। कोई पाँच-सात फुट की रस्सी ही तो चाहिये। वैसे देश में रेल गाड़ियाँ भी बहुत चलती हैं। गाड़ी लेट होने से थोड़ी देर के लिये मौत टल भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है। आजकल तो जहर भी सस्ता है। कीट चाहे न मरें पर आदमी के लिये तो काफी है। वैसे यदि आजाद देश का किसान कीटनाशक पीकर कीड़े-मकौड़ों की तरह मर भी जायेगा तो उस की स्थिति पर रोने वाला है भी कौन? किसान की मौत पर सोचने के लिये न सियासत के पास समय है और न अफसरशाही के पास।

यहाँ खतरे से बाहर हैं उन नौजवानों के माता-पिता जिन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई से अपने बच्चों को पढ़ाया है या पढ़ा रहे हैं। इसलिये कि वे उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे किन्तु वे बेरोजगार हैं। नौकरियाँ मिल नहीं रही हैं। हालांकि वे हीन भावना से ग्रसित हैं फिर भी खतरे से बाहर हैं क्योंकि उनके पास भी आत्महत्या का विकल्प है। जब तनाव और जिल्लत की जिन्दगी से तंग आ जायेंगे तो वे विकल्प चुनने के लिये स्वतंत्र हैं। फिर उन्हें क्या खतरा हो सकता है! यहाँ खतरा झोंपड़-पट्टी में कीड़े-मकोड़ों की तरह रहने वाले स्वतंत्र भारत के उन नागरिकों को भी नहीं है क्योंकि भयंकर बीमारियाँ और भुखमरी भी जब उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं तो चुनाव के दिनों में दो वक्त मुफ्त दारु पिलाने वालों द्वारा दिखाये गये बनावटी खतरे इनका क्या बिगाड़ सकते हैं। हाँ ! इनमें किसी भी सत्ता को बदलने की ताकत है इसलिये ये किसी से क्यों डरेंगे ? उन गरीब और मजलूम लोगों को कोई खतरा नहीं है जो विभिन्न मौसमों की मार से न डरकर किसी सड़क या फुटपाथ के किनारे सो जाते हैं और सुबह लाश में परिवर्तित हो जाते हैं। वे कभी किसी को नहीं कहते कि उन्हें कोई खतरा है। वैसे मृत्यु तो शाश्वत है उसे खतरे में कैसे गिना जा सकता है। ऐसी मौतों को लेकर जब कहीं शोर मचता है तो जो खतरा पैदा होता है वह कुर्सी को बचाने और प्राप्त करने का होता है वरना मौतें तो हर दिन और हर घड़ी होती हैं और होती रहेंगी।

लेह, लद्दाख और सियाचिन जैसी बर्फीली सीमाओं के प्रहरियों को जहाँ मरने-मारने के लिये किसी हथियार की आवश्यकता ही नहीं बल्कि मौसम से थोड़ी सी ही लापरवाही हो जाने पर जीवन छोटा पड़ जाता है। इसके बावजूद वे चौबीसों घंटे हाथों में हथियार थामे अपनी ड्यूटी पर मुस्तैदी से डटे रहते हैं ताकि हम आराम से सो सकें। वे सैनिक भी खतरे से बाहर हैं जिनकी हत्या करने की ताक में मानवता के दुश्मन आठों पहर ताक में बैठे रहते हैं। उन जांबाजों को खतरा इसलिये भी नहीं है क्योंकि एक सैनिक अपने मृत्यु-पत्र पर हस्ताक्षर करके ही नियुक्ति-पत्र हस्तगत करता है। यहाँ खतरा केवल अघाये हुये और भरे हुये पेट वाले लोगों को ही है। अन्त में यही कहना चाहूँगा कि इस देश में नेताओं और उन तथाकथित लोगों पर जो ‘हमें खतरा है !’ कहकर जनता का भावनात्मक शोषण करते हैं, जिस दिन सचमुच खतरा मंडराने लग जायेगा तो वे सुधर भी जायेंगे और जनता के लिये काम भी करेंगे।