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मंगत कथन : नेताजी इस्तीफा दो, नहीं तो हम समूहिक इस्तीफा देंगे!

RNE Special.

प्रत्येक युग की राजनीति और समाज की अपनी एक गति और दिशा होती है। वे उसी के अनुसार अपना मार्ग तय करते हैं। सब तरह से मंथन करने के बाद मैंने निष्कर्ष निकाला कि इस युग का आदर्श वाक्य यदि कोई हो सकता है तो वह है लाओ इस्तीफा दो! वैसे इस्तीफा शब्द अरबी भाषा का है किन्तु हिन्दी में आकर हिन्दुस्तान में खूब लोक-प्रियता प्राप्त की है। वैसे हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है परन्तु विदेशी मेहमान होने के कारण अंग्रेजी का हमने जिस प्रकार मान बढ़ाया है वह हम ही कर सकते हैं क्योंकि हमारे यहाँ अतिथि देवता होता है। हम अतिथि की पूजा करते हैं। पढ़े-लिखे लोगों की तो बात ही क्या करें यहाँ तो कम पड़े और अनपढ़ लोग भी अग्रेजी की टाँग पकड़ने से नहीं चूकते। मजे की बात तो यह है कि हिन्दी में त्याग-पत्र और अंग्रेजी में ‘रैजिग्नेशन’ शब्द होते हुये भी यहाँ ‘इस्तीफा’ शब्द बाजी मार गया। वैसे हम सदैव से दरियादिल रहे हैं। अपने भाइयों के लिये हमने चाहे अपने दिल सिकोड़ लिये किन्तु दूसरों का तो खुले हृदय से स्वागत किया। शक, हूण, मंगोल, तुर्क, मुगल, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज आदि न जाने कौन-कौन आये और इस मिट्टी में खप गये। इसी प्रकार इस शब्द ने भी भारतीय मानस में जगह बनाली। इसके बाद में राजनीति और प्रशासन में आ गया। यहाँ भी उसका खूब स्वागत हुआ।

राजनीति में आने के बाद इस्तीफा जब एक बार जम गया तो ग्राम पंचायतों से लेकर विधान सभाओं और संसद में भी बड़ल्ले से पहुँच गया। अब तो प्रत्येक क्षेत्र में अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज करवाने लगा। एक बार रेल दुर्घटना क्या हुई तत्कालीन रेल मन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुये अपना इस्तीफा प्रधानमन्त्री को सौंप दिया। फिर तो अनैतिक लोग भी नैतिकता नाम लेकर दूसरों पर इस्तीफा देने का दबाव देने लगे। उन्हें यह श्ब्द बड़ा रास आया। नैतिकता का नाम लेकर हंगामा मचाकर किसी से भी इस्तीफा मांगने लगे लाओ इस्तीफा दो! यदि नहीं दोगे तो हम इसी प्रकार अराजकता फैलाते रहेंगे।

सक्रिय राजनीति में इस्तीफा शब्द दबाव बनाने में खूब काम आ रहा है। किसी प्रदेश का मुख्यमन्त्री तो एक ही हो सकता है किन्तु कई विधायक जब मन्त्री बनने से वंचित रह जाते हैं तब वे असन्तुष्टों का अलग दल बना लेते हैं। मौका मिलते ही ये लोग मिलकर मुख्यमन्त्री पर आक्रमण करते हुये उससे इस्तीफा माँगने लगते हैं। लाओ इस्तीफा दो! इस्तीफा दो! नहीं दोगे तो हम आपको काम नहीं करने देंगे। ऐसे अवसर पर मुख्यमन्त्री यदि दबाव में नहीं आता तो ये लोग स्वयं सामूहिक इस्तीफा देकर अपना दबाव बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इधर विपक्ष तो पहले ही अपने हथियारों को धार दे रहा था। उनके सुर में सुर मिलाकर इस्तीफा माँगने लगता है- लाओ इस्तीफा दो। इस्तीफा दो! अब हाइकमान को मध्यस्थ बनकर समझौता करवाना पड़ता है तथा इस्तीफा माँगने वालों का मन्त्रिमण्डल के पुनर्गठन के अवसर पर उन्हें देश सेवा का अवसर प्रदान कर दिया जाता है। वैसे हैरानी की बात है कि नकारात्मक अर्थ देनेवाला यह शब्द उचित अवसर पर कितना कारगर हो सकता है। तभी तो हकीम सुकमान ने कहा था कि इस संसार में व्यर्थ कुछ भी नहीं है। जो व्यर्थ होता है उसे प्रकृति स्वतः नष्ट कर देती है।

इस्तीफा शब्द इतना अर्थ लाभ एवं उन्नति प्रदायी हो सकता है ऐसा पूर्व में राजनीतिक मनीषियों ने कभी सोचा भी नहीं होगा। जब सरकार चलाने वाले मुखिया को लगता है कि उसके खेमें से कई घोड़े उनका तबेला छोड़कर बाहर जाने को आतुर हैं तो वह बाड़ाबंदी करने लगता है। यदि दो-चार घोड़े गुपचुप कहीं भाग भी निकलते हैं तो वह दूसरे खेमे से उठवा लेता है। उन्हें मान-सम्मान देते हुये एक अच्छी कीमत अंदाकी जाती है। इस क्रिया कलाप को हॉर्स ट्रेडिंग नाम दिया गया है। आज भी पॉवर मापने का पैमाना हॉर्स (पॉवर) ही है। राजनीति में जिसके पास जितने अधिक घोड़े होते हैं यह उतना अधिक पॉवरफुल होता है। इसमें नाराज होने की बात नहीं क्योंकि इन्हीं घोड़ों के माध्यम से कोई सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हो सकता है। शायद कभी इसीलिये कहा जाता था गज धन, गौ धन, वाजि धन और रतन धन खानि। यह उक्ति आज भी लागू है किन्तु घोड़े बदल गये हैं। ये घोड़े स्वयं अपना मूल्य लगाते हैं। खरीदार भी खुश है क्योंकि वह भी अन्ततः एक घोड़ा ही है। वह अनुभवी है इसलिये यह जानता है कि ये पता नहीं कितनी बार बिकेंगे किन्तु जब तक विकेंगे इतना कमा लेंगे कि पिछले और आगामी चुनाव के खर्च सहित पाँच-सात पीढ़ियों के लिये काफी होगा। यही खरीद-फरोख्त राजनीति को सक्रिय बनाये रखती है। राजनीति में यदि इस प्रकार घोड़ों की खरीद नहीं होती तो यह नीरस और ऊया देने वाली होती। कोई इधर झाँकने भी न आता। प्रत्येक घोड़ा मूल्यवान होता है चाहे नकद हो या मन्त्री पद के रूप में। कोई इधर देश सेवा करने नहीं आता। राजनीति एक व्यापार है जिसे शातिर लोग देश सेवा की आड़ में करते हैं और आम लोग देखते हैं।

‘इस्तीफा दो’ शब्द का आतंक महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों तक फैला हुआ है। कोई नहीं दे तो जबरन लिखवा लिया जाता है। कहीं बलात्कार हो गया अथवा हत्या हो गई तो विपक्ष सरकार से इस्तीफे की माँग करने लगता है। जनता हड़ताल करके, धरना लगाकर अधिकारियों से इस्तीफा माँगने लगती है। आजकल तो किसी के आत्महत्या करने पर भी धरना देकर मुआवजा और सरकारी नौकरी माँगने का रिवाज चल पड़ा है। अपने कारनामों के कारण पुलिस और प्रशासन भी दबाव में होता है। वे सोचते हैं इस वक्त मलाईदार ‘पोस्टिंग’ है। इनके आन्दोलन से कोई लफड़ा हो गया तो कई भेद खुल जायेंगे क्योंकि पुलिस और प्रशासन में सभी के दामन पर कोई न कोई कालिख का छींटा पड़ा ही होता है। इसलिये वे सरकार को सिफारिश कर देते हैं। मैं रोजाना समाचार पत्रों में देखता हूँ कि एक बार कहीं ऐसी घटना हो जाती है तो इसके बाद ऐसी ही घटनाओं का सिलसिला कई दिनों तक चलता रहता है। दरअसल अब जनता का विश्वास पुलिस और प्रशासन से उठ गया है। वह जान गई है कि ये दूध धुले नहीं हैं तो हम क्यों न बहती गंगा में हाथ धोयें ?

‘लाओ इस्तीफा दो।’ ने कोरोना काल में पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। जब लॉक डाउन हो गया तो निजी कम्पनियों के मालिक अपने कर्मचारियों को बुलाकर कहने लगे, ‘आज से कार्यालय बन्द। सरकारी ऑर्डर है। आप अपने-अपने घर जाइये। अब ‘वर्क फ्रॉम होम’ करवायेंगे। हाँ जाने से पहले अपना इस्तीफा दे दीजिये। जो नहीं देगा उससे ‘वर्क फ्रॉम होम’ भी नहीं करवाया जायेगा। वेतन अब से आथा मिलेगा। मजबूर कर्मचारी करते भी क्या इस प्रकार कम्पनियों ने तो खूब मुनाफा कमाया किन्तु कर्मचारी सड़क पर आगये। लाखों कर्मचारी घरों में सिर छिपाकर बैठ गये। दाने-दाने को मोहताज हो गये। ऐसे अनेक किस्से आप ने भी लॉक डाउन के समय पड़े होंगे। लोगों ने आत्म हत्यायें तक करलीं।

इस्तीफे का ऐसा व्यापक और बुरा प्रभाव पहले कभी देखने में नहीं आया।

कुछ कम्पनियों और संस्थान तो अपने कर्मचारियों को नियुक्त करते समय ही उनसे इस्तीफा लिखवाकर अपने पास रख लेते हैं ताकि वक्त जरूरत काम आ सके। ऐसे में कर्मचारी अपने हितों के लिये भी नहीं लड़ सकते। इसी कारण बड़ी-बड़ी कम्पनियों के कर्मचारियों को दबाव और भय के वातावरण में काम करना पड़ता है। मालिक को जब कर्मचारी की कार्य शैली पसन्द नहीं आती अथवा कोई निजी व्यक्ति आ जाता है तो यह इस्तीफा काम आता है। इस्तीफा राजनीति में जहाँ दबाव का काम करता है वहीं प्रशासन में भय का संचार करता है।

पुरानी कहावत है- यथा राजा तथा प्रजा। यह आज हमारे देश पर पूर्णतः चरितार्थ हो रही है। आम आदमी जब देखता है कि कल तक ठीक-ठाक जीवन व्यतीत करने वाला एक व्यक्ति जब सरपंच, वार्ड-पंच अथवा पालिकाध्यक्ष बनने के बाद अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा उठा लेता है कि जमीन आसमान का अन्तर आगया है। घर में कार आ जाती है। बंगला बन जाता है। अब वह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि इसके पास इतना पैसा कहाँ से आगया? उत्तर मिलता है- लोगों के गलत कामों की अनुशंसा की है। जबकि उसने वोट तो जन सेवा के लिये माँगे थे। इतना कोई वेतन भत्ता भी नहीं मिलता की रातों-रात धनवान हो जाये। पुलिस और प्रशासन तो आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबा है। ये लोग जन प्रतिनिधियों के कमाऊ-पूत बनकर रह गये हैं। सब के महीने बंधे हुये हैं। भ्रष्टाचार के मामले वर्षों तक लम्बित पड़े रहते हैं। बिल्ली जब दूध की रखवाली के लिये बिठा दी तो किसे दोष दिया जाये ? हमारे जन प्रतिनिधि तो स्वयं को किसी स्टेट के शासक से कम नहीं समझतें। कल तक गलियों में धक्के खानेवालों को जब जैड सुरक्षा मुहैया करवाई जाती है तो सार्वजनिक सम्पत्ति के भण्डार में कहाँ-कहाँ सेथ लगती है कौन बताये? लोग तर्क देते हैं कि वह आपके ही वोटों से बना है। यह बात किसी नेता को कहकर देख लीजिये। उसका जवाब होगा, ‘अपने मत की ‘भूगळी’ बना लीजिये। क्या करे जनता! शेर, चीते और भेड़ियों में से ही चुनाव करना है। कहावत गलत सिद्ध हो गई कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

दरअसल कोई हवा ही ऐसी बह रही है कि हम सब में एक हरामीपन जाग गया है। पुराने जमाने में लोग किसी के घर खाना खाने के बाद उसे धोखा देने की सोच भी नहीं सकते थे। उसकी नैतिकता उसके आड़े आ जाती थी। आज जब किसी जन प्रतिनिधि को कोई व्यक्ति जन-धन पर ऐश करते देखता है तो उसकी नैतिकता कहीं गायब हो जाती है। वह भी अपनी औकात के अनुसार अपने जमीर का सौदा करने को तैयार रहता है। बुरी बातें मनुष्य को बड़ी जल्दी आकर्षित करती हैं। वैसे नैतिकता आज केवल शब्द-कोश में ही रह गई है क्योंकि नये जमाने के पाठ्यक्रम में नैतिकता, भ्रातृभाव, ईमानदारी आदि सबक ही नहीं हैं। घर में बच्चा जो कुछ देखता है वही समाज में भी पाता है तो उसे नैतिकता या दूसरे शब्द त्याज्य लगते हैं। ऐसे में जब उसे लाभ का का कोई अवसर मिलता है तो वह यह कहते हुये क्यों हिचकिचायेगा ‘हे नैतिकता! ले पकड़ मेरा इस्तीफा।’