स्क्रिप्ट पर चर्चा आधा नाटक तैयार कर देती है..
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner.
बात अब बहुत गंभीर हो गई थी। स्क्रिप्ट रीडिंग और सबके उस पर विचार, विचारों की नोटिंग का महत्त्व है ये सभी के समझ मे आ गया था। इतनी गंभीरता का काम है ये, इसका अंदाजा किसी को भी नहीं था। मंगलजी की बातों ने एक नया द्वार सोच का खोला था, जो व्यावहारिक भी था।
बात को विराम लगता देख प्रदीपजी ने उसे कंटिन्यू रखने की सोची और सीधे सवाल कर लिया, सर दो दिन की इस रीडिंग के बाद आगे क्या करना चाहिए। उसे बताएं ताकि सही प्रोसीजर का भी तो पता चले। नाटक करते रहना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसके करने के तरीकों के बारे में भी जानना है।
मंगलजी मुस्कुराए। उनको महसूस हुआ कि नाट्य प्रशिक्षण की प्रक्रिया शुरू हो गई। जब शिविर शुरू करेंगे तो यह बहुत काम आयेगी। वो भी उसी वजह से सब कुछ धीरे धीरे बता रहे थे ताकि उस समय वापस पहले सफे से शुरू न करना पड़े।
प्रदीपजी सही सवाल किया आपने। स्क्रिप्ट पढ़ी पहले दिन। दूसरे दिन उस पर सभी के विचार जाने और नोटिंग का काम शुरू हुआ। अब आता है तीसरा दिन, ये दिन भी बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इस दिन से ही मंचन की नींव पड़ती है। ये दिन इस वजह से बहुत गंभीरता का है।
चौहान साहब, विष्णुकांतजी, जगदीश जी, बुलाकी भोजक जी सहित सभी की उत्सुकता मंगलजी की बात के बाद बढ़ गई। वे भी तीसरे दिन के प्रोसीजर को समझने के लिए उतावले हो रहे थे और टकटकी लगाये मंगलजी की तरफ देख भी रहे थे। मंगलजी उनकी उत्सुकता समझ बोलना शुरू हुए।
तीसरे दिन की बैठक शुरू होते ही सबसे पहले वो सीनियर व्यक्ति उस नोटिंग के बारे में सब दोहराए जो कल की बातों से तैयार हुई थी। फिर सबसे पूछे कि कल और आज के बीच उनके विचार में कोई बदलाव हुआ है तो वो भी बता दो ताकि बात शुरू करने से पहले नोटिंग में उसे भी जोड़ा जा सके।
जाहिर है, 24 घन्टे में काफी लोग अपना दिमाग उस स्क्रिप्ट पर दौड़ाते हैं। उससे कुछ नई बातें भी उनके दिमाग मे आती है। वो बताना शुरू करते हैं, उसे भी नोटिंग में जोड़ते रहना चाहिए। सब तो नहीं, मगर अनेक लोग कुछ नई बात भी रखते हैं। ये बात महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि वो गहरे विचार के बाद सामने आई है।
ये बात सही है सर।
अब तीसरे दिन जिस सीनियर आदमी ने नोट्स लिए हैं वो अपनी राय के साथ सबकी बात समेटते हुए नाटक के बारे में पूरा बताए। जिसका पहला लक्ष्य कथानक हो। ये स्पष्ट करे कि यह नाटक कहना क्या चाहता है। इस नाटक को लिखने के पीछे नाटककार का ध्येय क्या है? उस ध्येय को पकड़ना जरूरी है, तभी समुहिक बात की सार्थकता रहती है। कोई भी नाटककार बिना किसी ध्येय के रचना लिखता नही है। नोट्स लेने वाला जब अपनी तरफ से कथ्य पर पूरी बात कह दे तो फिर चर्चा को ओपन कर देना चाहिए और सबसे राय लेनी चाहिए कि इस नाटक का कथानक वे क्या समझे हैं।
प्रदीपजी व चौहान साब ने इस पर हामी भरते हुए कहा कि इससे नाटक पर पकड़ और मजबूत होगी। बुलाकी भोजक जी, चांदजी ने भी इस बात की ताईद की।
जब कथानक पर सबकी राय आ जाये तो फिर एक कथा सूत्र की पहचान करनी आसान रहती है। ये जिम्मा टीम के वरिष्ठ साथियों का होता है। कोई भी नाटककार एक कथा सूत्र पकड़कर ही तो नाटक का ताना बाना अपनी कल्पना से बुनता है।
प्रदीपजी ने कहा, सही है सर। छोटे कथा सूत्र को ही विस्तार देकर नाटककार पूरा नाटक व उसके पात्र रचता है। इस काम में केवल कल्पना का ही सहारा होता है। कथा सूत्र केंद्र में रहता है और बाकी सब पात्र कल्पना से उसे बताने के लिए घड़े जाते हैं।
आपने बहुत सुंदर बात कही प्रदीपजी। मैं यही कहना चाहता था। उस कथा सूत्र को पकड़ना चाहिए आपसी संवाद में। वो पकड़ में आ जाता है तो समझ लो पूरा नाटक पकड़ में आ जाता है। जिस नाटक पर इस तरह की पकड़ हो जाये तो उसे खेलने में भी बहुत आसानी रहती है।
आगे फिर क्या करना चाहिए।
इस पर आप बताओ कि क्या करना चाहिए। विष्णुकांतजी जी आप क्या कहना चाहेंगे।
सर नाटक हो साहित्य की कोई भी रचना, उसमें कथानक ही महत्त्वपूर्ण होता है। उसका परीक्षण करना चाहिए कि वह हमारे दर्शक के योग्य है या नहीं। समाज के लिए उपयोगी है या नहीं। यदि व्यक्ति व समाज के लिए उपयोगी नहीं है तो उस पर चर्चा ही बंद कर देनी चाहिए। दूसरे नाटक की तलाश करनी चाहिए।
मंगलजी मुस्कुराते हुए बोले– बात तो आपने सही कही है। सभी कलाओं का सरोकार तो समाज से ही होता है। यदि कोई लेखक समाज से सरोकारित न होकर लिखता है तो उसे साहित्यिक रचना मानना ही नहीं चाहिए। इस कारण उस नाटक की पहली चर्चा यही करनी चाहिए कि ये हमारे समाज, दर्शक के लिए उपयोगी है क्या। इस पर सबकी राय जाननी चाहिए। मैं बारबार कह रहा हूं कि ये वे विषय हैं जिन पर हरेक की राय जाननी जरूरी है। खुलकर हरेक को बोलने का अवसर देना चाहिए। ताकि सबको लगे कि मंचन के लिए चयनित किये गए नाटक में उनकी भी हिस्सेदारी है। उन पर नाटक जबरदस्ती से थोंपा नहीं गया है। तभी तो उसका नाटक से एक तरह का भावनात्मक रिश्ता बनेगा।
आपकी बात सही है।
जब अधिकतर की राय ये हो कि ये नाटक हमारे यहां के लिए कथानक की दृष्टि से उपयोगी नहीं है। रेलिवेन्ट नहीं है तो फिर उस पर चर्चा को बंद कर देना चाहिए। वक़्त बर्बाद नहीं करना चाहिए।
यदि अधिकतर की राय हो कि यह नाटक हमारे शहर के लिए उपयोगी है तो बात को आगे बढ़ाना चाहिए। जिसकी राय विपरीत हो उसे तर्क से समझाना चाहिए कि इस दृष्टि से उपयोगी है। उसकी सहमति तार्किक आधार पर प्राप्त करनी चाहिए। वो हां भरे, तर्क के आधार पर, ये जरूरी है। जब सबकी राय तर्क के बाद एक बन जाये और सभी इस बात पर सहमति दे दे कि हमें यह नाटक मंचित करना चाहिये। तभी बात को आगे बढ़ाना चाहिए।
प्रदीपजी का सवाल था कि जब सबकी राय कथानक को लेकर एक बन जाये, उसके बाद क्या करें। उसी दिन से काम शुरू कर दें।
नहीं। उस दिन सब मिलकर ये तय करें कि इस नाटक का निर्देशन किसे दिया जाये। क्योंकि ये महत्ती काम होता है। जाहिर है, जिसके पास नाटक के सिद्धांत की जानकारी हो। जिसने पाठ के बाद नाटक को समझा हो, उसे ही यह जिम्मा दिया जाना चाहिए। टीम में इस तरह के व्यक्ति एक – दो से तो अधिक होते नहीं। निर्लिप्त भाव से एक को निर्देशक का दायित्त्व दिया जाये। उस दिन निर्देशक तय करने तक का काम हो। इसमें भी एक बात ध्यान रहे कि दो लोगों को जो इस फील्ड की समझ रखते हों, उनका सहायक बनाया जाये। ये भविष्य के निर्देशकों की तैयारी के लिए कदम उठाना जरूरी है।
चौहान साहब, प्रदीपजी, बुलाकी भोजक जी, चांदजी आदि का सवाल था कि इस दिन आगे क्या किया जाये।
उस दिन इससे आगे कोई काम नहीं करना है। स्क्रिप्ट निर्देशक को सौंप दी जाये ताकि वो उस पर अपना वर्क आरम्भ कर सके। उस दिन की बैठक इस निर्णय के बाद समाप्त कर देनी चाहिए।
सब सहमत दिखे और सोचने लगे कि चौथे दिन की क्या योजना होगी।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
स्क्रिप्ट पर इतनी कसरत उस दौर में होती थी। एक एक पात्र के बारे में हर कलाकार को समझ रहती थी। वो पूरे नाटक पर उसकी पकड़ बना देता था। आज की तरह नहीं है कि निर्देशक आया और बताया कि ये नाटक हमें करना है। इस नाटक का ये कथानक है और कल से हम काम शुरू कर देंगे। स्क्रिप्ट चयन को लेकर जितनी गम्भीरता की जरूरत होती है, उसका पालन ही नहीं होता। जबकि किसी भी नाट्य मंचन की ये नींव है, यदि नींव कमजोर रही तो अच्छे नाटक की कल्पना कैसे होगी। दूसरी बात, बड़े नाम देखकर नाटक करने की ललक जो आज है वो भी खत्म होनी चाहिए। स्क्रिप्ट महत्त्वपूर्ण है, नाम नहीं। स्क्रिप्ट पर अभी के रंगकर्मी ध्यान देना शुरू हो जायें तो बीकानेर रंगमंच के स्वर्णिम दिन फिर लौट सकते हैं।