मंगलजी की वह बात आज तक कान में गूंज रही "नाटक पवित्र मंदिर, जूते बाहर उतारें"
Oct 29, 2024, 14:51 IST
- अभिषेक आचार्य
मंगल जी ने माहौल को हल्का किया। प्रदीप ने तुरंत बंद मुट्ठी सबके आगे करनी शुरू कर दी। मंगलजी ने भी मुट्ठी में कुछ डाला। अन्य भी अपनी ईच्छानुसार मुट्ठी में कुछ डाल रहे थे। प्रदीप जी बोलते जा रहे थे जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका ज्यादा भला।
प्रदीप जी के इस मजाकिया अंदाज पर मंगलजी सहित सभी मुस्कुरा रहे थे। कुछ तो ठहाका भी लगा रहे थे। बंद मुट्ठी खुली तो इस बार कुछ ज्यादा ही धन निकला। सबके चेहरे खिलखिला उठे। करोड़पति भूजिये ज्यादा आने थे, ये तय हो गया। आर्डर हुआ और ट्रे भरकर मोटे भूजिये आ गये। बुलाकी भोजक जी ने अलग प्लेट में मंगलजी को देना चाहा तो उन्होंने रोक दिया नहीं। सबके साथ ही खाऊंगा। अलग नहीं मैं। नाटक भी तो सामूहिकता का दूसरा नाम है। तभी तो इसे कलेक्टिव आर्ट कहते हैं। एक अकेला नाटक नहीं कर सकता। एक पात्रीय नाटक होते हैं, मगर उनका मंचन तभी सम्भव है जब लाइट, साउंड, मेकअप, मंच सज्जा वाले साथ हो। सामूहिकता ही नाटक की पहली अनिवार्यता है। तो भाई लोगों, मुझे सामूहिकता से अलग क्यों करते हो।
हंसी की इस बात में उन्होंने बहुत बड़ी और गहरी बात कह दी। नाटक की पहली प्राथमिकता को सहज में सबको बता दिया। इस बात को पंचम वेद में भी लिखा हुआ है, मगर कभी रंगकर्मी इसकी गम्भीरता को नहीं समझे। आज मंगलजी ने मजाक मजाक में इसे सहजता से समझा दिया। प्रदीप जी से रहा नहीं गया। वे बोले "सर, आपने तो लगता है नाटक का प्रशिक्षण यहीं से शुरू कर दिया। पहला लेशन तो जैसे आरम्भ ही हो गया।"
मंगलजी मुस्कुराते हुए बोले "प्रदीप जी, जीवन का हर पल, हर इंसान हमें कुछ सिखाता जरूर है। बशर्ते हम कुछ सीखना चाहें और सीखने की दृष्टि रखें।" कमाल की बात कही उन्होंने। जो न केवल नाटक अपितु जीवन के लिए भी बहुत काम की बात थी। तभी तो दार्शनिक लोग कहते हैं, जीवन का हर पल अनमोल होता है। उसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। बाद में सामूहिकता की मंगल जी ने एक एक्सरसाइज भी प्रशिक्षण के दौरान कराई। 6 -6 कलाकारों के दो समूह बनाये। एक व्यक्ति को बीच मे खड़ा किया और बाकी को उसे उछालने का कहा। ऊपर से जब वो नीचे आये तो बाकी 6 उसे तुरंत लपकते। ये समूह के भरोसे की एक्सरसाइज थी, जिसका जिक्र करोड़पति भूजिये खाने के वक़्त हुआ था।
खेर, सबको भूख लगी थी तो एक साथ भूजियों की ट्रे पर टूट पड़े। ठोड़ी देर में ट्रे साफ हो गई। सबके चेहरे पर तृप्ति का भाव था। ठोड़ी देर में मेघी चाय ले आया और सब उसकी चुस्कियां लेने लगे। मोटे भूजिये और साथ में आधी चाय, ये रंगकर्मियों की लाइफ लाइन है। जो अब भी बदस्तूर बनी हुई है। चाय खत्म होने के बाद फिर गम्भीर चर्चा आरम्भ हुई। बात मंगलजी ने शुरू की।
नाटक एक पवित्र कार्य है, इसे भगवान, अल्लाह की उपासना माना जाता है। क्योंकि ईश्वर हरेक को ये करने की प्रतिभा नहीं देता। ये तो मानते हो ना ? कुछ देर बाद सवाल का जवाब चौहान साब ने दिया "आपकी बात सही है। ईश्वर ही किसी को कलाकार बनाता है। कोई जबरदस्ती करके कलाकार नहीं बन सकता।" अब बुलाकी भोजक बोले, "नाटक के लिए समर्पित भाव चाहिए, जो हरेक के पास नहीं होता।"
अब बारी विष्णुकांत जी की थी। "समाज के लिए कुछ काम वही कर सकता है जो मन में एक सामाजिक विचार रखता हो। विचार के बिना कोई कलाकार दूसरे आदमियों से अलग हो ही नहीं सकता।" कईयों के बाद प्रदीपजी बोले, "मैने पंचम वेद तो नहीं पढ़ा। मगर उस पर नटरंग में जयदेव तनेजा का एक आलेख पढ़ा था। उसमें इस ग्रन्थ का जिक्र करते हुए लिखा गया था कि नाट्यकर्म ऋषि कर्म है।" मंगलजी मुस्कुराये, "ये सही बात है। हर रंगकर्मी को अपने क्षेत्र के बारे में, नाट्य कृतियां लगातार पढ़ते रहना चाहिए। इससे कलाकार, निर्देशक, रंगकर्मी समृद्ध होता है।"

