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जानिये.. आज का शिक्षक पुराने गुरु की तरह क्यों नहीं नजर आता?

rudranewsexpress.in परिवार की ओर से शिक्षक दिवस पर सभी गुरूजनों को प्रणाम, बधाई। बदलते समय में विसंगतियों से जूझ रहे शिक्षक और शिक्षा के लिये आज से Rudra News Express सप्ताह में एक दिन करेगा शिक्षकों की बात-शिक्षाविद प्रमोद चमोली के साथ। इसके लिये खास तौर पर शुरू किया गया है कॉलम ‘गुरु-वार’ शिक्षकों सहित सभी से इस पर विचार, सुझाव, प्रतिक्रियाएं, आमंत्रित हैं। आप अपनी बात इस नंबर पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।



RNE Special Desk

शिक्षक और समाज : तब और अब

  • आज का शिक्षक पुराने आचार्य या गुरू की तरह क्यों नहीं नजर आता?
  • सरकार ने शिक्षा को अपने हिसाब से चलाया, असमंजस में गुरुजी !

इसमे कोई दोराय नहीं हो सकती कि पुराने समय में समाज में गुरु या आचार्य के प्रतिष्ठित शिक्षक को एक गौरवपूर्ण दर्जा प्राप्त था। इस सन्दर्भ में यह विचारणीय हो जाता है कि आज का शिक्षक क्या गुरु और आचार्य की परम्परा को पोषित कर रहा है? इस पर सभी का उत्तर ‘नहीं’ ही होगा। यह सही भी है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि जब भी शिक्षा और शिक्षक की चर्चा होती है तो सत्ता और समाज शिक्षकों के बारे में उस पुरानी भावुक यादों से बाहर नहीं आ पाता। इसी परिपेक्ष्य में शिक्षक को देखने से उनमें कई खामियां दिखाई देने लगती है। नतीजा समाज में किसी भी विपरीत प्रभाव का सारा दोष शिक्षक पर मढ़ दिया जाता है। इस तरह एक प्रसिद्ध जुमला प्रत्येक के मुँह से सुना जा सकता है कि “समाज में शिक्षकों का स्थान सर्वोपरि था और है लेकिन आज का शिक्षक उस स्थान तक नहीं पहुँच सकता।”

बहरहाल जो भी हो यहाँ इस आलेख का मतलब शिक्षक की उस पुरानी छवि को स्थापित करना नहीं है। ना ही आज के शिक्षक की वकालत कर उसकी प्रतिष्ठा को प्रतिस्थापित करना है। परन्तु यहाँ इस आलेख के माध्यम से यह जानने का जरूर प्रयास है कि आज का शिक्षक पुराने आचार्य या गुरु की तरह क्यों नहीं नजर आता? आज उसकी स्थिति क्या है? और समाज की उससे अपेक्षाएँ क्या हैं?

इसलिए गुरुकुल बने श्रेष्ठ शिक्षा संस्थान : 

इसे समझने के लिए शिक्षा के इतिहास की ओर जाना होगा। प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन किया करते थे। उनकी विद्या अर्जन का समस्त जिम्मा समाज ने गुरु  और आचार्य को सौंप रखा था। उन्हें विद्यार्थी से हिसाब से पाठ्यक्रम निर्धारित करने की स्वतंत्रता थी। वे विद्यार्थी की योग्यता के आधार पर उसकी समस्त पढ़ाई-लिखाई का ढांचा तैयार कर उसके योग्य शिक्षा दिया करते थे। इसी सब के कारण समाज की उनमें अटूट आस्था थी कि वे जो भी करेंगे अपने विद्यार्थी के हित में करेंगे। इसमें सबसे मुख्य बात यह है कि यहां शिक्षा पर सत्ता का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं था।

बौद्ध और मुस्लिम प्रभाव : 

बौद्धकाल में शिक्षा के उद्देश्य वैदिक काल के समान ही थे। इस काल में शिक्षा देने का कार्य व्यक्तिगत रूप से संस्थागत रूप में स्थापित हुआ। लेकिन इस काल में शिक्षा पर सत्ता का कोई स्पष्ट हस्तक्षेप नहीं था। मुस्लिम काल आते-आते शिक्षा पर राज्य का हस्तक्षेप बढ़ता गया और शिक्षा मकतबों और मदरसों में होने लगी जहाँ पर उस समय की राजभाषा फारसी का ज्ञान करवाया जाता था।

.. और आ गया मैकाले :

ब्रिटिश काल के प्रथम चरण में तो अर्थात कम्पनी के शासन काल में शिक्षा में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जिससे भारत में शिक्षा की स्थिति चरमरा गई। तभी मैकाले के प्रवेश से भारत में प्रथम बार सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का प्रारम्भ हुआ। जिसका उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेजीदा बनाकर अपने कार्यों में उपयोग लेने का मात्र था। यहां से शिक्षा में राज्य के स्पष्ट हस्तक्षेप की शुरूआत प्रारम्भ हो गई थी। विद्यालयों की व्यवस्था, स्वरूप, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें निर्धारित कर दी गई। नियम बना दिये गये। जिनका पालन शिक्षकों को कड़ाई से करना पड़ता था। सरकारी अधिकारी इस बात पर जोर देते थे कि विद्यालयों में कार्य राज्य के आदेशों व योजनाओं के अनुरूप है या नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षक को गुरू की भूमिका प्राप्त स्वायतता का पटाक्षेप हो गया और वह ज्ञान के संवाहक के स्थान पर वेतनभोगी शिक्षक हो गया जिसका सारा ध्यान अपनी नौकरी को बचाने में ही लगा रहता था।

आजाद भारत में अंग्रेजी शासन वाली व्यवस्था :

आजादी के बाद भारत में सार्वजनिक शिक्षा का कमोबेश ब्रिटिश कालीन मॉडल ही प्रभावी रहा। सत्ता के द्वारा निर्धारित मानदंडों का पालन करना और सत्ता द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें, शिक्षण विधियों को विद्यार्थियों तक प्रेषित करना। यानी यहां तक आते-आते शिक्षकों की ज्ञान संपदा को एक पीढी से दूसरी पीढ़ी तक संवाहित करने के हुंस भी समाप्त हो चुकी थी। आजादी के बाद शिक्षा पर बने लगभग समस्त आयोगों और कमेटियों ने शिक्षकों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उनके व्यावसायिक उन्नयन हेतु अपने सुझाव दिये हैं। इन पर कितना अमल हुआ यह हम आज के  शिक्षक, शिक्षा संस्थानों को देखकर आसानी से लगा सकते हैं।

सबके लिए शिक्षा : 

शिक्षा के राज्याधीन होने के साथ ही शिक्षा का विकास और सार्वजनीनकरण हुआ। आज प्रत्येक विद्यार्थी को बिना भेदभाव के शिक्षा देना राज्य की जिम्मेवारी है। शासन अपने आंकड़ों में यह दिखा भी देता है। लेकिन विद्यालयों की मैदानी स्थितियाँ किसी से छिपी नहीं हैं। अध्यापकों व विद्यालय के लिए जरूरी अन्य मानवीय संसाधनों की व्यापक कमी कमोबेश पूरे भारत में ही है। ऐसे में राज्य जब शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल होता है तो उसके पास सबसे सस्ता विकल्प शिक्षक की जबाबदेही तय करने का बचता है। इसमें कोई शंका भी नहीं की जानी चाहिए कि शिक्षा के लिए शिक्षक जबाबदेह है पर राज्य के द्वारा विद्यालय की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात।

शिक्षक छूटता गया : 

शिक्षकों की जबाबदेही हेतु उनका व्यावयसायिक उन्नयन किया जाना आवश्यक है। राज्य शिक्षक की सही भूमिका और उसके विकास हेतु किये जाने वाले प्रबन्धों के प्रति उदासीन नजर आता है। नतीजा वह शिक्षा पर किये जाने वाले निवेश( जो की आवश्यकता से कहीं कम है) का अधिकतम उपयोग उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होने के कारण अपनी समस्त असफलताओं का ठीकरा शिक्षक के माथे पर फोड़ता है।

शिक्षा के टारगेट और ठीकरा गुरुजी पर : 

शिक्षा में लगी मशीनरी आंकड़ो पर अपने आप को विफल पाकर शिक्षक की जबाबदेही के नाम पर उस नियंत्रण लगाती है। कहीं -कहीं तो ये नियंत्रण इतने व्यापक हो जाते हैं कि किस समय क्या पढ़ाना है, किस का कांलांश कब होगा? इत्यादि भी उच्चाधिकारियों (प्रशासनिक अधिकारियो जो शिक्षाविद् नहीं) द्वारा आदेश जारी कर लागू कर दिये जाते हैं। कभी-कभी तो लिंक भेजकर यह भी बता दिया जाता है कि अमुख अध्याय इस समय पढ़ाया जाना है और इसी लिंक के माध्यम से पढ़ाया जाना है। ऐसे में शिक्षक क्या सम्पूर्ण विद्यालय जो कि एक स्वतंत्र ईकाई की तरह माना जाता है कि स्वतंत्रता का हनन हो जाता है।

आखिर मैं क्या हूँ !

अब शिक्षक की स्वतंत्रता की बात तो सोची भी नही जा सकती। यही कारण है कि आज का शिक्षक इस अन्तर्द्वन्द्व में है कि आखिर वह है क्या? प्राचीन आदर्शों के समान एक आचार्य है या शिक्षक है या एक वेतनभोगी कार्मिक या आजकल शिक्षकों के लिए प्रचलित नए शब्द फैसिलिएटर अथवा फैकल्टी है।

दरअसल इसी उहापोह में समाज भी है। वह शिक्षक से प्राचीन गुरुकुल जैसे आचार्य होने की कल्पना करता है। वह उसका आचार और व्यवहार उनकी तरह चाहता हैं। इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज का आज भी शिक्षकों पर गहन विश्वास है। लेकिन अपने शिक्षकों से आदर्श की अपेक्षा करने वाला समाज यह भूल जाता है कि यह शिक्षक उसी समाज से आता है , जिसमें तमाम तरह की विसंगतियाँ हैं।

क्या विद्यार्थी ग्राहक है ?

एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि बाजारवाद के लाभ-हानि की गणित के प्रभाव से समाज कैसे बचा रह सकता है? इसने चारों तरफ से हमारी परम्पराओं को लगभग समाप्त कर दिया है। आज जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति सुविधाकांक्षी हो सत्ता की तरफ ताकता रहता है। ऐसे में वह विद्यालयों में एक ग्राहक की भूमिका में जाता है। वह चाहता है कि केवल उसका बच्चा ही श्रेष्ठ हो अन्य सब उससे पीछे रहें।

इसलिए इतनी बात : 

उपर्युक्त समस्त विवेचन से निष्कर्ष रूप में यह कह सकते है कि शिक्षक और समाज के बीच विश्वास की बुनियाद समाप्त तो नहीं पर कुछ कमजोर जरूर हुई। दरअसल समाज उससे अपेक्षा तो प्राचीन गुरुओं और आदर्शों जैसी कर रहा है लेकिन व्यवस्था और समाज बच्चों की शिक्षा के लिए उस पर भरोसा नहीं कर पा रही है। ऐसे में यह तो स्पष्ट है कि आज का शिक्षक न तो ऐसी स्थिति में और शासन संचालित विद्यालयों को वह गुरूकुल की भांति चला भी नहीं सकता।

“गुरुजी” तो खुद को ही बनना होगा : 

इसमें इतना जरूर है कि समाज को अन्य कर्मचारियों से उम्मीद है कि नहीं ये तो ज्ञात नहीं पर वह शिक्षक की तरफ आशा की दृष्टि से देखता है। “शिक्षक और समाज में तब और अब” के इस अन्तर्द्वन्द्व को समाप्त करने का रास्ता समाज और शिक्षक के बीच से ही निकल सकता है। समाज को आज शिक्षकों के बारे में बनी नकारात्मक धारणा पर पुनर्विचार करना होगा। शिक्षकों के साथ बैठकर उन्हें अपने विश्वास में लेना होगा। शिक्षक को उसका यथोचित सम्मान दे उसके खोए हुए विश्वास को पुनः लौटाना होगा। साथ ही शिक्षकों को भी यह समझना होगा कि शिक्षण कार्य मात्र पेशा नही है पेशे से अधिक है। यह एक ऐसा कार्य है जिसमें शिक्षकों का साध्य प्राणवान बालक जो अपने भीतर सैकड़ो कल्पनाएं लिए हुए है। साथ ही इस प्राणवान बालक के माता-पिता की अपेक्षा भी जुड़ी है। शिक्षक को अपने तमाम अन्तर्द्वन्द्वों से निकल शासन की तरफ ताकने की बजाय स्वयं के बल पर ज्ञानवान और कार्यकुशल होना होगा।



डा.प्रमोद चमोली के बारे में:

शिक्षण में नवाचार के कारण राजस्थान में अपनी खास पहचान रखने वाले डा.प्रमोद चमोली राजस्थान के माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत रहे हैं। राजस्थान शिक्षा विभाग की प्राथमिक कक्षाओं में सतत शिक्षा कार्यक्रम के लिये स्तर ‘ए’ के पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकों के लेखक समूह के सदस्य रहे हैं। विज्ञान, पत्रिका एवं जनसंचार में डिप्लोमा कर चुके डा.चमोली ने हिन्दी साहित्य व शिक्षा में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी साहित्य में पीएचडी कर चुके हैं।
डॉ. चमोली का बड़ा साहित्यिक योगदान भी है। ‘सेल्फियाएं हुए हैं सब’ व्यंग्य संग्रह और ‘चेतु की चेतना’ बालकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके है। डायरी विधा पर “कुछ पढ़ते, कुछ लिखते” पुस्तक आ चुकी है। जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम रहे हैं। बीकानेर नगर विकास न्यास के मैथिलीशरण गुप्त साहित्य सम्मान कई पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले हैं। rudranewsexpress.in के आग्रह पर सप्ताह में एक दिन शिक्षा और शिक्षकों पर केंद्रित व्यावहारिक, अनुसंधानपरक और तथ्यात्मक आलेख लिखने की जिम्मेदारी उठाई है।


राधास्वामी सत्संग भवन के सामने, गली नं.-2, अम्बेडकर कॉलौनी, पुरानी शिवबाड़ी रोड, बीकानेर 334003