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मंगत कथन : सीढ़ी का आविष्कार करने वाले ने भी नहीं सोचे होंगे इतने उपयोग!

अधिकतर लोग अपने परिजन के मरते ही उनके कान, नाक आदि तक के आभूषण झटक लेते हैं उनकी आत्मायें तो स्वर्ग में किसी रस्सी आदि के सहारे ही ऊपर चढ़ती होंगी या इधर-उधर धरती पर ही धक्के खाती रहती होंगी। मैं अपने मृत परिजनों के लिये इस कारण चिन्तित रहता हूँ कि मेरे पास देने के लिये सोने की सीढ़ी नहीं थी। वे यहीं-कहीं राहों में ही भटकते हुये मुझे कोस रहे होंगे।… ( डॉ मंगत बादल के इसी आलेख से )



जिस व्यक्ति ने भी सीढ़ी का आविष्कार किया, वह धन्य है। यदि वह आज जीवित होता तो अवश्य ही ‘नोबेल-प्राइज’ का हकदार होता। सीढ़ी बनाने वाला स्वयं यह नहीं जानता था कि वह मानवता का कितना बड़ा उपकार कर रहा है। वह कोई सीधा-सादा व्यक्ति ही रहा होगा जिसने सीढ़ी जैसी नायाब चीज का आविष्कार करके भी गुमनामियों में रहना पसन्द किया। यह खोज का विषय है कि सर्व प्रथम सीढ़ी का आविष्कार किसने किया। एक बात तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह व्यक्ति अमेरिकी तो नहीं हो सकता क्योंकि यदि वह अमेरिकी होता तो पहले सीढ़ी का पेटेंट करवाता फिर उसका विज्ञापन करता।

तब कहीं अपने आविष्कार को दूसरों तक पहुँचाने की सोचता। अमेरिका तो वैसे भी हल्दी और नीम तक को पेटेंट करवाकर लाभ कमाने की कोशिश में अन्तर राष्ट्रीय न्यायालय तक हो आया। एक अमेरिकी से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि यह मुफ्त में कोई ऐसा काम करेगा जिससे दूसरों को लाभ हो। वह कोई भारतीय नेता भी नहीं हो सकता क्योंकि यदि ऐसा होता तो यह आविष्कार पहले अखबारों की सुर्खियाँ बनता। फिर उसकी पीढ़ियाँ उसे भुनवातीं। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि यह आविष्कार जनता के सामने आ पाता या अन्य योजनाओं की भाँति कहीं फाइलों में पड़ा सड़ रहा होता। इसका प्रमाण यही है कि नेता आज भी यह नहीं बतलाते कि उनके निक्कमे बेटे-पोते कौनसी सीढ़ियों के माध्यम से सत्ता के शीर्ष पर जा विराजते हैं। इसीलये तो आम आदमी को कोई पार्टी अपना टिकट भी नहीं देती।

वैसे भी यदि भारतीय नेता उसका आविष्कारक होता तो वह भी सरकारी पुलों और इमारतों की तरह चरमराकर कभी की टूट चुकी होती जिससे जनता का उस पर से विश्वास ही उठ जाता। सीढ़ी का आविष्कारक कोई भी व्यक्ति रहा हो उसे न तो धन का लालच था और न ही इतिहास में दर्ज होने की लालसा। इसलिये उसे भारतीय भी कहा जा सकता है क्योंकि भारतीयों का इतिहास बोध बड़ा कमजोर है। उन्होंने इतिहास के नाम पर पुराणों की रचना की जिन्हें गपोड़ों से अधिक कुछ नहीं बताया जाता। अपने प्राचीन महाकाव्यों को ही हमारे लोग इतिहास मानकर चलते हैं। उनके लिये लड़ते-झगड़ते हैं और मरते हैं। जबकि नेता लोग इन्हें सीढ़ियों बनाकर सत्ता में जा विराजते हैं। इसके अतिरिक्त सत्ता में बने रहने के लिये भी वे सदैव सीढ़ियों का ही उपयोग करते रहते हैं। प्रत्येक नेता के पास अपनी-अपनी पसन्द की सीढ़ी होती है।

वे एक सीढ़ी तभी छोड़ते है जब उससे उम्दा दूसरी सीढ़ी उनके हाथ लग जाती है। सीढ़ी यह उपकरण है जो व्यक्ति को नीचे से ऊपर शिखर तक पहुँचाने में सक्षम है। नीचे से ऊपर ले जाना सीढ़ी का सकारात्मक पक्ष है जबकि ऊपर से नीचे लाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी को नीचे उतारने का काम नेतागण सीढ़ी द्वारा नहीं बल्कि उसे धक्का देकर करते हैं। जो मनुष्य सीढ़ियों का सही प्रयोग करना सीख लेता है वह कभी मात नहीं खाता। वह व्यक्ति इस लोक में सिद्ध पुरुष कहलाता है। इसके लिये साधक को कठिन साधना करनी पड़ती है क्योंकि सीढ़ियों से नीचे उतरने पर उसके प्रतिद्वन्दियों का यही प्रयत्न रहता है कि वह पुनः ऊपर न चढ़ने पाये। वे उसे येन-केन-प्रकारेण रसातल की ओर धकेलने के लिये आतुर रहते हैं। ऐसे में थोड़ी सी भी असावधानी व्यक्ति के पतन का कारण बन जाती है। जिनके रथ कभी अहर्निश चलते रहते थे वे आज बेअर्थ गुमनामियों के अन्धेरे में कहाँ खो गये हैं कोई नहीं जानता। राजनीति के चतुर खिलाड़ी एवं समर्थ पुरुष ऊपर पहुँचे हुओं को भी नीचे गिराने की कला जानते हैं तथा वे समय-समय पर आम जन के लिये दुर्लभ इस कला का प्रदर्शन भी करते ही रहते हैं ताकि साख बनी रहे। उनकी मान्यता है कि यदि वे ऐसा न करें तो उन्हें कौन बाप मानेगा ? जिस प्रकार ईश्वर का कोई रूप नहीं होता। वह निराकार भी होता है और साकार भी। उनके दोनों ही रूपों की बाबा लोग सीढ़ी बनाकर फायदा उठाते हैं। वे भक्तगणों को समझाते हैं कि भगवान निराकार हैं। वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। वह इन्द्रियातीत है। वह श्रद्धा और आस्था का विषय है। वे हवा में तीर चलाते रहते हैं और भक्तों को ऐसे चक्कर में डाल देते हैं कि भक्तगण तुलसी के शब्दों में ‘जैसे श्वान कांच मन्दिर में भ्रम-भ्रम भूकि मरयो।’ की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। चढ़ावा देकर वे मन में प्रसन्न हो जाते हैं कि अब बाथा सब ठीक कर देंगे। कोई उनसे पूछने वाला हो कि यदि भगवान इन्द्रियातीत हैं तो आपको कैसे पता चला कि भगवान हैं। आपने उसे कैसे जाना? यह तो बता ही सकते है। उनके पास सिवाय इसके कोई जवाच नहीं होगा कि आप कुतर्क करते हैं। आपकी श्रद्धा भगवान में नहीं है। आप नास्तिक हैं। इस वागूजाल को ही उच्च कोटि का अध्यात्मिक उपदेश मानकर भक्तगण बाया के समक्ष आत्म समर्पण कर देते हैं। इन भक्तों की अन्तिम नियति यही होती है।

ईश्वर की ही भाँति सीढ़ी भी साकार और निराकार होती है। उसका कोई विशेष रंग या रूप नहीं होता। परिस्थितियों के अनुसार उसके रूप-रंग परिवर्तित होते रहते हैं जैसे कि वह ईंट, पत्थर, लोहे के अतिरिक्त किसी अन्य धातु की भी हो सकती है। रस्सी या लकड़ी की हो सकती है। विद्युत द्वारा स्वचालित सीढ़ियाँ या लिफ्ट भी विज्ञान द्वारा प्रदत्त मनुष्य को एक बड़ा उपहार है किन्तु किसी के कन्धों को सीढ़ी बनाकर उनका उपयोग किया जाना सर्व कालिक श्रेष्ठ कहा जाता है। यह तो उपभोक्ता की दक्षता पर निर्भर है कि यह कन्धों की सीढ़ी का ईंट-पत्थर की तरह प्रयोग करे या स्वचालित सीढ़ियों अथवा लिफ्ट में बदल ले। राजनीति में कंधों वाली सीढ़ी का ही सर्वाधिक उपयोग होता है। प्रत्येक राजनेता इसी ताक में रहता है कि वह किसके कंधों को सीढ़ी बनाये जो उसके लिये हर समय उपयोगी सिद्ध हो।

वैसे जनता के कंथों की सीढ़ी सर्व सुलभ होती है। इसका प्रयोग करना जिसे आ जाता है अवसर मिलते ही तत्काल उसके माध्यम से ऊपर चढ़ जाता है। राजनीति में ‘नाम’ की सीढ़ी का प्रयोग भी खूब किया जाता है। वह चाहे हाईकमान का नाम हो अथवा किसी मरहूम नेता का। वे उसका उपयोग करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं। उसकी लोकप्रियता को भुनवाकर सत्ता के शिखर पर पहुँचते हैं फिर उसे अनुपयोगी समझकर कवाड़ में फेंक देते हैं ताकि वक्त जरूरत पुनः काम में ले सकें। हमारे देश में ‘गाँधी-मार्का’ सीढ़ियाँ इसका उदाहरण हैं। आजकल जाति और ‘धर्म मार्का’ सीडियों का भी खूच प्रचलन है। प्रत्येक पार्टी टिकट वितरण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखती है कि जिस जाति की जहाँ अधिकता होती है वहाँ उसी जाति का प्रत्याशी चुनाव लड़े। जय हो भारतीय धर्म निरपेक्षता और प्रजातंत्र की !

हमारे यहाँ व्यक्ति के मरणोपरान्त उसके परिजनों द्वारा स्वर्ण-निर्मित सीढ़ी का ब्राह्मणों को दान देना भी उत्तम बतलाया गया है। हमारे देश में किसी की आत्मा को सीचे स्वर्ग पहुँचाने का प्रबन्धन ब्राह्मणों के ही पास है। वे कहना है कि इस सीड़ी से मृतक की आत्मा सरलता पूर्वक स्वर्ग पहुँच जाती है। मुझे यह सुनकर बड़ी चिन्ता हुई कि मरने के बाद भी आदमी को कई प्रकार के लफड़ों से निपटना पड़ता है। जिनके परिजन अन्तिम संस्कार हेतु ईंधन या कफन जुटाने में भी असमर्थ हैं वे सोने की सीढ़ी कैसे जुटायें? अधिकतर लोग अपने परिजन के मरते ही उनके कान, नाक आदि तक के आभूषण झटक लेते हैं उनकी आत्मायें तो स्वर्ग में किसी रस्सी आदि के सहारे ही ऊपर चढ़ती होंगी या इधर-उधर धरती पर ही धक्के खाती रहती होंगी। मैं अपने मृत परिजनों के लिये इस कारण चिन्तित रहता हूँ कि मेरे पास देने के लिये सोने की सीढ़ी नहीं थी। वे यहीं-कहीं राहों में ही भटकते हुये मुझे कोस रहे होंगे। ब्राह्मण लोग कहते हैं कि शास्त्रों में लिखी बातें कभी झूठी नहीं होती। उन पर विश्वास करना चाहिये। मैं कैसे विश्वास करूँ क्योंकि शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि मृतक की आत्मा को लेने यमदूत अथवा स्वयं यमराज आते हैं और उसे ले जाकर धर्मराज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इन विरोधी बातों को पढ़कर मैं असमंजस में हूँ कि इनमें कौनसी सही है ? शास्त्रों की रचना करने वालों ने तो सब कुछ देखा ही होगा तभी तो वे तसल्ली से सारी बातें बतलाते हैं। क्या स्वर्ग का प्रशासन भी हमारे प्रशासन की भाँति ही है। लोग कब से मर रहे हैं और वह धरती से वहाँ तक एक सीढ़ी भी नहीं बनवा सका।

हमारे यहाँ सीढ़ी बहुत लोकप्रिय उपकरण है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं और अपने बेटों-पोतों के लिये सीढ़ियाँ छोड़कर जाना चाहता है ताकि वे सुखी रह सकें। इसके लिये दौड़ जारी है। प्रारम्भ में तो यह केवल राजनेताओं की ही पहली पसन्द थी किन्तु ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ तो आज इसके लिये होड़ मची हुई है। विधायिका, कार्य पालिका और न्याय पालिका तीनों के लोग सीढ़ियों की जुगाड़ में लगे रहते हैं। अब तो अनपढ़ और अँगूठा छाप लोग भी सीढ़ियों के माध्यम से राजनीति में जमे रहते हैं। बाद में अपने बेटों-पोतों को भी वहीं ‘सैट’ कर देते हैं। चुनाव के दिनों में जिस व्यक्ति को सत्ता दल की सीढ़ी (टिकट) प्राप्त हो जाती है वह व्यक्ति चुनाव जीतने के बाद सत्ता सुख भोगता है। प्रशासनिक अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर अपनी-अपनी औलादों के लिये सीढ़ियाँ खरीदने हेतु लोगों को दोनों हाथों से लूटते हैं। वे इतनी सम्पत्ति जमा कर लेते हैं कि यदि आँखें मूंद कर भी खर्च करें तो उनके जीवन में खत्म नहीं होगी किन्तु फिर भी लोगों का जी नहीं भरता। ऐसे लोग कई बार भ्रष्टाचार निरोध विभाग अथवा आयकर विभाग वालों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। यह दीगर विषय है कि वे फंसते हैं या उन्हें फंसाया जाता है किन्तु इसके बाद तो उनकी अधिकतर जिन्दगी जेल या न्यायालयों में चक्कर काटते-काटते ही बीतती है। हों। इस बीच यदि कोई मजबूत और टिकाऊ सीढ़ी उनके हाथ लग जाये तो बेदाग छूट भी सकते हैं। फंसाने वाले टापते ही रह जाते हैं। मजबूत और टिकाऊ सीड़ी खरीदने के लिये लोगों को पशुओं का चारा खाने में भी परहेज नहीं है। हमारे स्वनाम धन्य नेतागण, इंजीनियर आदि तो सड़क और सरकारी इमारतें तक डकार जाते हैं। अपनी औलाद के लिये एक अदद सीढ़ी खरीदने के लिये डॉक्टर निजी अस्पतालों में असाध्य रोगों के अमीर मरीजों को ठीक करने का आश्वासन देकर भर्ती कर लेते हैं। बाद में मृत्यु पर्यन्त उन से वसूली करते रहते हैं। इंजीनियर ऐसे पुल और भवन बनवा देते हैं जो मानक के अनुसार नहीं होते। अधिकारीगण लोगों के काम इसी कारण अटकाये रखते हैं। यह सब कुछ जानते हुये भी जीवित मक्खी निगल लेते हैं क्योंकि उन्हें अपने या अपनी सन्तानों के लिये सीढ़ी चाहिये। वे भूल जाते हैं कि एक दिन उन्हें भी मरना है। उस दिन बेईमानी का यह धन कुछ काम नहीं आयेगा। लोग तुम्हारे धन पर उसी प्रकार लड़ेंगे जिस प्रकार कुत्ते रोटी के टुकड़ों पर लड़ते हैं। कई माँ-बाप जब अपने बच्चों के लिये सीढ़ियाँ खरीदने की जुगाड़ में होते हैं तो औलाद उनकी सारी सम्पत्ति को ठिकाने लगाने की योजना बना चुकी होती है। हमारे यहाँ तो यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि तीसरी पीढ़ी कुनबे का नाम डुबोने वाली होती है। आपको यदि मेरी बात पर सन्देह है तो हाथ कंगन को आरसी क्या ! आप एक सर्वेक्षण करके देख सकते हैं। आप को स्वयं पता चल जायेगा।

सीढ़ियों की खरीद-फरोख्त जारी है। लोग इस चक्कर में खुद बिक रहे हैं। ईमान बेच रहे हैं। पुराने जमाने में लोग खुद चाहे विक जाते थे किन्तु ईमान नहीं बेचते थे। आजकल तो यही इन्तजार रहता है कि कोई ईमान का खरीददार मिले तो झट से बेच डालें। राजनीति में आजकल सीढ़ियों की बोली भी लगने लगी है। विजयी विधायक सत्ता चाहने वाले दल को अपनी सीढ़ी बेचकर धन या पद अथवा दोनों ही प्राप्त कर सकता है। आमतौर पर तो ऐसा होता है कि सीढ़ी खरीदनेवाला जब ऊपर चढ़ जाता है तो वह धक्का देकर उसे नीचे गिरा देता है ताकि उसके माध्यम से कोई दूसरा ऊपर चढ़कर उसे न गिरा सके। राजनीति में इसे भय-मुक्त होना कहते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जिसका समर्थन लिया है उसे अपनी पार्टी में ही मिला लिया जाता है जिससे वह बाहर भी जाना चाहे तो एकदम नहीं जा सकता। कभी-कभी यह भी होता है कि शाम को सरकार गारंटी देती है कि वह पूरे पाँच साल चलेगी लेकिन रात को कोई सीढ़ी गिरा देता है। सीढ़ियों के अभाव में सरकार औंधे मुँह गिर पड़ती है। विपक्षी दल सहभोज की तैयारी में लग जाते हैं। जनता तमाशा देखकर हैरान होती रहती है। सीढ़ियों से गिरा हुआ व्यक्ति हो या सरकार उसे उठने में समय लगता है किन्तु कई बार तो उठ भी नहीं सकता और इतिहास के अंधेरों में खो जाता है। वैसे राजनीति में नेताओं की स्थिति केंकड़ों की तरह होती है। जब एक ऊपर चढ़ने की कोशिश करता है तो दूसरा उसकी टाँग खींचकर नीचे गिरा देता है। इस तरह यह चलता रहता है।

जनता के कन्चों की सीड़ी सर्वाधिक टिकाऊ, सुलभ और करामाती मानी जाती है। यह ‘यूज एण्ड थ्रो’ होती है। उसका प्रयोग करके प्रयोगकर्ता उसे भूल जाता है। यदि इसका ठीक तरह से उपयोग किया जाये तो यह बड़ी भरोसेमंद साबित हो सकती है। नौकरी में तरक्की के लिये, व्यापार बढ़ाने के लिये पहले सीढ़ियों का प्रयोग करना और बाद में उनको गिरा देना अनवरत चलता रहता है। रामायण में चर्चा आती है कि जब रावण का अन्तिम समय आ पहुँचा तो श्री राम ने लक्ष्मण से कहा कि वह उससे कुछ राजनीति की शिक्षा ग्रहण करलें। चर्चा के दौरान रावण ने बतलाया कि वह कुछ अच्छे काम करना चाहता था। उनमें एक काम धरती से स्वर्ग तक सीढ़ियों का निर्माण करवाना भी था। इसका यही मतलब हुआ कि सीढ़ियों का प्रचलन उस युग में भी था। स्वयं रावण ने सीता को सीढ़ी बनाकर वैकुण्ठ यात्रा सम्पन्न की थी। किंवदन्ती भी है कि वह धरती से स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनवाना चाहता था। इससे पता चलता है कि सीढ़ियाँ प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को कहाँ तक गिरना पड़ सकता है। रावण तो खैर विद्वान था। यह जानता था कि उसके गिरने में ही उसका हित निहित है लेकिन आम आदमी ?