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इंडिया रेस्टोरेंट थी मंचन के पोस्टमार्टम की जगह, खुलकर होती थी बात

अभिषेक आचार्य

आरएनई, बीकानेर। 

मंगल सक्सेना के साथ नाट्य प्रशिक्षण शिविर करने का जुनून जिन लोगों में था वे अब हर समय उसके बारे में ही सोचने लगे। रात की इंडिया रेस्टोरेंट की बैठकों में भी चर्चा का विषय यही रहता। शिविर को लेकर सभी उत्साहित थे। एक दिन चाय की होटल पर विष्णुकांत जी, प्रदीप भटनागर जी, जगदीश जी सहित सभी रंगकर्मी बैठे थे तो तय हुआ कि पहले मंगल जी को तो स्थान के बारे में बताया जाये। उनसे तो मुलाकात की जाये। सबकी उनसे मिलने की सहमति बनी। इसका माध्यम किसे बनायें, ये बड़ा सवाल था। सबको पता था कि मोहन शर्मा जी उनके साथ रहते हैं। उनको कहीं लाने ले जाने का काम वही करते हैं। उनसे बात करने का पहले तय हुआ।
मोहन जी को उसी समय कहा गया तो उन्होंने देर ही नहीं लगाई। कहा अभी आ जाता हूं। ये उनकी गहरी रंग निष्ठा का ही परिचय था। मोहन जी थोड़ी देर में आ भी गये। उनसे थोड़ी देर चर्चा हुई। मोहता भवन के पीछे के हिस्से को सही माना गया। फिर मंगल जी से बात करने पर चर्चा हुई। मोहन जी का कहना था कि उनका घर हेड पोस्ट आफिस के पीछे ही है, चलकर मिल लेते हैं। घर जायें या न जायें, इस पर कुछ देर बात हुई। जब कुछ निष्कर्ष नहीं निकला तो मोहन जी ने सुझाव दिया। या तो फिर दिन में कामेश जी के मिलन रेस्टोरेंट में मिल लेते हैं, नहीं तो फिर रात को इंडिया रेस्टोरेंट पर उनको ले आता हूं।
बात इंडिया रेस्टोरेंट की तय हुई। रंगकर्मियों का उस समय यही रेस्टोरेंट अड्डा था एक तरह से। सभी रात को यहीं बैठते थे और विशद रंग चर्चा करते थे। देर रात तक रंगकर्मियों की महफिल यहीं लगती थी। ये कलाकारों के अलावा इनके परिजनों व अन्य लोगों को भी पता था। इंडिया रेस्टोरेंट वाला भी इनसे प्रसन्न था। इनके आने से पहले ही बाहर तीन चार बेंच लगा देता था ताकि सबको बैठने में कलाकारों को परेशानी न हो। बीकानेर रंग इतिहास की अनेक बड़ी घटनाओं का गवाह है इंडिया रेस्टोरेंट। बीकानेर रंगमंच का इतिहास इसके जिक्र के बिना अधूरा है। शायद ही कोई रंगकर्मी होगा जो यहां कभी न बैठा हो।
टाउन हॉल या रेलवे ऑडिटोरियम से नाटक देखने के बाद सारे रंगकर्मी इसी रेस्टोरेंट पर आते थे और मंचन के हर पहलू पर बेबाक बात करते थे। एक तरह से पोस्टमार्टम करते थे। अनेक नाटकों का क्रूरतम पोस्टमार्टम इस रेस्टोरेंट के टेबलों पर हुआ है। अभिनय की बारीकियों पर बात होती थी। निर्देशन कौशल पर टिप्पणी होती थी। अब चूंकि सभी को लाइट, मेकअप व कॉस्ट्यूम का भी नॉलेज था तो उस पर भी रंगकर्मी चर्चा करते थे। हर कमी को खोलकर रख देते थे। मगर ऐसा भी नहीं है कि केवल कमियों पर चर्चा होती थी। प्रस्तुति की अच्छी बातों को भी रेखांकित किया जाता था। खुले मन से तारीफ की जाती थी। प्रदीप जी व विष्णुकांत जी कम और अंतिम में बोलने वाले रहा करते थे, और हमेशा ऐसे पॉइंट लेकर आते थे जो एक घन्टे की चर्चा में किसी ने भी रेखांकित न किये हों। इन दोनों के पास नाटक के अध्ययन का गहरा अनुभव था।
थोड़ी देर बाद मंचन करने वाला दल भी इसी जगह पहुंच जाता। दिल खोलकर बधाई दी जाती। सब मिलकर चाय पीते। उस समय भी नाटक पर चर्चा होती। प्रदीप जी, विष्णुकांत जी, चांद रजनीकर आदि नये कलाकारों की जमकर तारीफ करते थे तो चौहान साब कम्पोजिशन व मूवमेंट पर मंचन करने वाली टीम को बताते थे। बुलाकी शर्मा मेकअप पर तो मनोहर जी प्रकाश प्रभाव व सेट पर अपने अनुभव से मंचन करने वालों को जानकारी देते थे। इस तरह के सौहार्द्र की कल्पना शायद ही देश मे कहीं रंगकर्मी करते हों। अब तो बीकानेर में भी ये स्थितियां नहीं रही। सुनने का धैर्य न कलाकारों में है न निर्देशक में। कहने वाले भी अब साहस नहीं करते। झूठी वाहवाही सुनने वाले अधिक हो गये।

वर्जन :

प्रदीप भटनागर

नाटक मंचन के बाद वो दर्शकों का हो जाता है इसलिए उस पर की जाने वाली हर टिप्पणी को सुनने का मादा हर रंगकर्मी में होना चाहिए। सुनने से उसे कुछ सीखने का ही अवसर मिलता है। पूर्वाग्रह रख टिप्पणी न तो की जानी चाहिए और न सुनी जानी चाहिए। असली समीक्षा वो नहीं जो अखबार में आती है। उसमें तो वही आता है जो पक्ष का व्यक्ति लिखकर देता है। असली समीक्षा तो रंगकर्मी ही करते हैं। क्योंकि वो नाटक की हर बारीकी को जानते हैं। ये स्वस्थ परंपरा अभी के रंगकर्म में नहीं है। इसे फिर से डवलप किया जाना चाहिए। उसका लाभ रंगकर्मियों के साथ रंगमंच को मिलेगा।