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लिपि विशेषज्ञ अंजना शर्मा की खास रिपोर्ट: हस्तलिखित ग्रंथो में आद्यशंकराचार्य के दर्शन

RNE BIKANER

बीकानेर में मौजूद हैं आदि शंकराचार्य के हाथ से लिखे ग्रंथ

  • अंजना शर्मा

आज भगवान आदि शंकराचार्य की जयंती हैं। संपूर्ण देश में मठ स्थापना के साथ पान्थिक या साम्प्रदायिक कटुता कम करने वाले आदि शंकराचार्य ने अपने जीवनकाल में संभवतया सैकड़ों ग्रंथों की रचना की। गर्व और खुशी की बात यह है कि उनके हाथ के लिखे कुछ ग्रंथ इस वक्त भी मौजूद हैं और वे भी राजस्थान के बीकानेर शहर में।

बीकानेर शहर में एक खास संग्रहालय हैं “अभय जैन ग्रंथालय”। इस ग्रंथालय में लगभग डेढ़ लाख पांडुलिपियां संरक्षित हैं। हैरानी की बात यह है कि अब तक सूचीबद्ध हुई हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में 40 आदि शंकराचार्य के हाथ से लिखी हुई हैं।

बीकानेर के इस ग्रंथागार में मौजूद हैं डेढ़ लाख पांडुलिपियाँ, इनमें शंकराचार्य के हाथ से लिखी पांडुलिपियाँ भी शामिल।

अच्छी बात यह है कि इन पांडुलिपियों का अब नेशनल पांडुलिपि मिशन में डिजिटलाइजेशन करवाया जा रहा है। अब तक इस ग्रंथागार में आदि शंकराचार्य की जो हस्तलिखित पांडुलिपियां सामने आई हैं उनमें शंकाराचार्य रचित विष्णुसहस्रनाम, ब्रह्मसूत्रभाष्य टीका रत्नप्रभाकर, शारीरिक मीमांसा, अपरोक्षानुभूति आदि हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है भी है कि इनमें से अधिकांश ग्रंथ संवत 1843 से 1873 के बीच संकलित हैं। अभी संवत 2080 चल रहा है। ऐसे में लगभग 2000 साल से भी अधिक पुरानी आदि शंकराचार्य के हाथ से लिखित ये पांडुलिपियाँ अब मानवीय सभ्यता की बड़ी धरोहर बन गई हैं। लिपि-संस्कृत विद्वान एवं आदि शंकराचार्य के हस्तलिखित ग्रन्थों पर खास काम करने वाली शंकरपुरस्कारभाजिता पुरातत्वविद् अंजना शर्मा ने आदि शंकराचार्य के व्यक्तित्व-कृतित्व से जुड़ी कुछ विशेष बातें उद्घृत की है। प्रस्तुत है Rudra News Express के पाठकों के लिए इसके प्रमुख अंश :

जन्म और दीक्षा :

वैशाख शुक्ल पंचमी को आदिशंकराचार्य का जन्म कल कालडी ग्राम केरल में हुआ। अद्वैत दर्शन के प्रवर्तक आचार्य श्री ने आचार्य गोविंद भागवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की तथा 13 वर्ष की उम्र में प्रस्थानत्रय पर भाष्य किया।

राजस्थान से जुड़ाव :

राजस्थान में आज भी आचार्य शंकर के हस्तलिखित ग्रंथो का विभिन्न ग्रंथागारो में संग्रह उपलब्ध होता है जो आचार्य शंकर के प्राचीन ग्रंथो में पाठ भेद की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। राजस्थान में अद्वैत दर्शन की धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है, इसके अधिकृत विद्वान समय-समय पर इस धरा पर जन्म लेते रहे हैं। आज भी अद्वैत दर्शन की परंपरा का निर्वाहन किया जा रहा है।

देशभर में मठ स्थापना :

आचार्य शंकर ने संपूर्ण देश मे मठ स्थापना के साथ ही एक और महान् कार्य किया, जिससे पान्थिक या साम्प्रदायिक कटुता कम हो मई। उस काल में मन्त्र-तन्त्र का पर्याप्त प्रचार हुआ था। वैदिक यातुर्मार्ग का यह एक नया अवतार था।

प्रमुख ग्रंथ : भवानी स्तोत्र, श्रीचक्र बीजाक्षर, सौन्दर्यलहरी

शङ्कराचार्य जी ने तन्त्र की प्रमुख देवता भगवती शक्तिरूपिणी भवानी का स्तोत्र लिखा। तान्त्रिकों के श्रीचक्र बीजाक्षर आदि विषयों का गम्भीर अध्ययन करके उन्होंने ‘सौन्दर्यलहरी’ स्तोत्र लिखा। इसमें देवी भगवती के अद्भुत, अलौकिक कार्यकलापों का वर्णन है, तदुपरान्त उसका मानवी शरीर में जो निवास है, उसका भी परामर्श तान्त्रिक परिभाषा के अनुसार किया है। तन्त्र, अद्वैत, शक्तिपूजा इन सबका सङ्गम सौन्दर्यलहरी स्तोत्र में हुआ है। षोडशीमन्त्र, बीजाक्षरजप, योगिनीस्थान, भिन्न नाडियाँ, इन सबका रससिद्ध वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। इस स्तोत्ररन का भारत युगपुरुष आद्य शङ्कराचार्य में सभी जगह लोग नित्यपाठ करते हैं। इस तरह तन्त्र के प्रमुख सिद्धान्तों को अपनाकर उन्होंने उनको भी अपने वेदान्त में समा लिया।

वेदान्त की ओर : बह्मात्म्यैक्य का पाठ

श्रीशङ्कराचार्य जी ने अपनी असामान्य बुद्धि, वाक्पटुता, अगाधज्ञान तथा प्रचण्ड वैराग्य से पूरे भारतवर्ष को वेदान्त की ओर आकृष्ट किया। अनेक विरोधी सम्प्रदायों को परास्त कर उन्होंने सभी समाज को बह्मात्म्यैक्य का पाठ सिखाया। उनका अपना ऐसा जीवन कुछ भी नहीं था। अहंता, ममता, रागद्वेष सभी को वे जीत चुके थे।

माया के पार सत्य तक जाने की प्रेरणा :

उन पर कभी-कभी आरोप किया जाता है कि उन्होंने संसार के प्रति औदासीन्य पैदा किया और लोगों को निष्क्रिय बनाया। पर सूक्ष्मता से देखा जाय, तो पता चलेगा कि उन्होंने परब्रह्म की अवस्था में संसार का अस्तित्व नहीं माना है, व्यावहारिक सत्ता में तो जगत् को माना ही है। माया का अर्थ केवल अभावरूपिणी क्षणिकता नहीं है, वह भी एक शक्ति है। फिर भी उसके पार जाकर सत्य तक जाना चाहिये। उसके लिए उन्होंने कर्म या भक्ति का अङ्गीकार किया।

‘निगमकल्पतरोर्गलितं :

सिद्धान्तों को इतना विशाल आयाम देकर सङ्कुचितता से व्यापकतम तत्त्व का अन्वेषण का प्रचार उन्होंने आमरण किया। उनके सिद्धान्तों का पश्चाद्वतीं भागवत पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह ‘निगमकल्पतरोर्गलितं फलम्’ है। पर उस फल के लिए एक ‘रसाल’ तैयार किया श्रीशङ्कराचार्यजी ने। इस कल्पतरु का निर्माण कर सभी परवर्ती दर्शनों एवं उपासनामार्गो पर अमिट प्रभाव छोड़ देने वाले शङ्कराचार्य सचमुच एक युगपुरुष थे।

लेखिका अंजना शर्मा के बारे में :

पदमश्री नारायणदास रमानन्ददर्शन अध्ययन शोध संस्थान की निदेशक अंजना शर्मा को शंकराचार्य के साहित्य पर विशेष काम के लिए उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ से विशिष्ट सम्मान मिला है। ज्योतिष दर्शनाचार्य, शंकरपुरस्कारभाजिता पुरातत्वविद्, अभिलेख व लिपि विशेषज्ञ, प्रबन्धक देवस्थान विभाग के रूप में सेवाएँ दी हैं। दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय की विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य रह चुकी हैं।