मंगत कथन : नेता का गिरना गंभीर नहीं, गिरे पर हँसना राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध..
RNE Special
गिरना…
उस दिन समाचार-पत्र में खबर छपी थी कि नेता जी गिर पड़े। जनता के लिये यह बड़ी सनसनीखेज और संवेदनशील खबर थी। समाचार पत्र में ही सवाल उठाया गया था कि इस की जाँच होनी चाहिये। उनका यूं अचानक गिर जाना प्रजातंत्र के लिये अशुभ है। बाद में पता चला कि केवल नेता जी ही नहीं बल्कि पूरा मंच ही भरभरा कर गिर पड़ा था। यूं मंच का गिरना और भी अधिक चिन्ता की बात थी। यह भी मालूम हुआ कि इससे पहले वे अपने दल के पन्द्रह-बीस साथियों सहित पिछले कई दिनों से एक फाइव स्टार होटल में ठहरे हुये थे। इसका यह मतलब हुआ कि नेताजी अकेले नहीं गिरे थे, कई लोगों को साथ लेकर गिरे थे।
पूरी भीड़ उन का गिरना देख रही थी जिसे बाद में दूरदर्शन के माध्यम से पूरे देश ने देखा। इस प्रकार उनका गिरना प्रादेशिक न रहकर अखिल भारतीय हो गया था। कई ऐसे लोग भी थे जो उन्हें गिरता देखकर हँस रहे थे। यह खतरनाक था। ऐसे लोगों को देश-द्रोही घोषित किया जाना चाहिये। नेताजी का गिरना देखकर किसी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे का हँसना कितनी अपमानजनक बात है प्रजातंत्र के लिये। बाद में रिपार्ट जारी की गई कि उनका गिरना कोई साधारण घटना नहीं थी बल्कि एक महान परम्परा से जुड़ाव था।
प्राचीन युग में तो ऋषियों-मुनिजनों को गिराने के लिये इन्द्र को विशेष प्रयत्न करने पड़ते थे। उनके लिये किसी प्रकार से अप्सराओं आदि का प्रबन्ध करना पड़ता था। आधुनिक काल में गिरने का रूप चाहे बदल गया हो किन्तु इस के मूल में तो पहले भी कुर्सी थी और आज भी कुर्सी है। राजनीति में यह परम्परा आज भी कहीं खुले में तो कहीं गुप्त रूप से चली आ रही है। जब भांडा फूटता है तो समाचार-पत्रों को कई दिनों का मसाला मिल जाता है। मैं उन राजनेताओं को साधुवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने गिरने की हमारी भारतीय पुरातन परम्परा को जीवित रखा। उन की भाँति पूर्व में भी कई नेता एक साथ यूं ही गिर चुके हैं। एक बार हरियाणा में तो पूरे का पूरा दल रातों-रात गिर गया था। विरोधी टापते रह गये। जिन्हें राज और ताज मिलना था उन पर गाज गिर गई। अब की बार जब नेताजी गिरे तो उससे कुछ दिन पहले वे मंत्री पद को सुशोभित कर रहे थे। एक दिन उनके त्याग-पत्र की खबर आई। ये भी सुनने में आया कि उन्होंने त्याग-पत्र दिया नहीं बल्कि उन से माँगा गया था बहरहाल इस समय उनके गिरने का जिक्र चल रहा है। चौखलाया हुआ विपक्ष इस प्रक्रिया को ‘खरीद-फरोख्त’ कह रहा है जब कि यह विशुद्ध ‘गिरना’ प्रक्रिया ही है।
दरअसल उन्हें जब पार्टी की ओर से टिकट नहीं मिला तो वे पार्टी के खिलाफ बगावत करके निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़े थे। उनका विचार था कि वे चुनाव जीतने के बाद जो पार्टी सत्ता में आयेगी उस से सैटिंग कर लेंगे। अपने पिछले कार्यकाल में भी वे इस तरह कई लोगों को साथ लेकर गिरने की कोशिश कर चुके थे जिसमें सरकार को गिराना ही उनका मन्तव्य था लेकिन ऐन वक्त पर उनके साथियों ने धोखा दे दिया और सरकार गिरने से बच गई। अल्प मत वाली सरकार होने के कारण हाई कमान कुछ नहीं बोले पर उन्हें उनकी गिरने और गिराने की कोशिशें पसन्द नहीं थीं। उन्होंने पार्टी और हाई कमान की अवमानना की थी इसलिये ही इस बार हाई कमान ने उन्हें टिकट न देकर अपने साले को दे दिया। राजनीति में भाई-भतीजों की अपेक्षा साले अधिक विश्वसनीय सिद्ध हुये हैं। वैसे राजनीति में कुर्सी के अतिरिक्त कोई रिश्ता मायने नहीं रखता। साले को टिकट देने का एक कारण यह भी था कि वे खुद पर भाई-भतीजावाद का आरोप नहीं लगवाना चाहते थे और साले का रिश्ता इस नियम के अन्तर्गत आता भी नहीं। कुछ लोगों का मानना था कि उन पर यह घरेलू दबाव था क्योंकि कहा भी गया है- सारी खुदाई एक तरफ….!
अपने नेताजी की मान्यता है कि गिरना एक स्वाभाविक घटना है। वैसे भी राजनीति में इसे कोई गंभीरता से लेता भी नहीं है क्योंकि यहाँ गिरना उतना ही सच है जितना जिस प्राणी ने जन्म लिया है उस की मृत्यु। जो चढ़ता है वही तो गिरता है। उसे रोका नहीं जा सकता। एक अन्तिम विन्दु तक पहुँच कर स्वयं टपक पड़ना उसी प्रकार घटित होता है जैसे प्रकृति में पेड़ की टहनी पर पक जाने के बाद फल। यह गिरने का सैद्धान्तिक पक्ष है लेकिन राजनीति में तो नेताओं को कई बार जन हित में भी गिरना पड़ता है यह दीगर बात है कि इस में उन का खुद का हित तो निहित होता ही है। गिरने का महत्त्व इसी बात में है कि गिरने वाला कहाँ गिरा है?
चतुराई से और सोच-समझ कर गिरने वाले कई तो सीधे मंत्री की कुर्सी पर गिरते हैं। हाथी जिंदा लाख का, मरा हुआ सवा लाख का। राजनेता कभी हवा मे तलवार नहीं भांजता। आकलन गलत हो जाये यह दूसरी बात है। गिरने में कुशल लोग मौका देखकर ही गिरते हैं। एक बनिये को किसी ने कहा कि उसका बेटा घी के भरे घड़े सहित बाजार में गिर पड़ा। आपका बड़ा नुकसान हो गया। इस पर बनिये ने बड़े आत्म विश्वास से जवाब दिया कि कोई बात नहीं, बनिए का बेटा है कुछ लेकर ही उठेगा। सामने वाला हैरान हो गया। बाद में पता चला कि जिस जगह घड़ा पटका गया वहाँ हीरा पड़ा था। उसे उठाने के लिये ही यह प्रक्रिया की गई थी। कई चार तो सोच-विचार कर गिरने से भी गिरने वाले का कैरियर संकट में पड़ जाता है। इस खतरे के बावजूद वे परवाह नहीं करते और गिरते रहते हैं इसलिये उनके साहस की प्रशंसा की जानी चाहिये। राजनीति में गिरना सिक्के का दूसरा पहलू कहलाता है। ऐसा भी हुआ है कि कोई नेता जब एक बार गिरने लगता है तो लगातार गिरते ही चला जाता है। यहाँ गिरते हुओं को कोई थामता नहीं बल्कि जोर से धक्का देता है ताकि गिरने वाला सीधा रसातल में चला जाये। यहाँ दूसरों को कब्र में धकेल कर उसी पर वृक्षारोपण समारोह का सफल आयोजन किया जाता है।
कविवर रहीम ने नवन-नवन (झुकने) में अन्तर बतलाते हुये कहा है-
नवन-नवन बहु आंतरा, नवन-नवन बहु बानि।
रहिमन ये तीनों नवें, चीता चोर कमानि ।।
जिस प्रकार चीता शिकार करने से पूर्व चोर, चोरी करने से पूर्व तथा धनुष तीर छोड़ने से पहले झुकता है। इन तीनों के झुकने में बुनियादी अन्तर है। उसी प्रकार गुरु चरणों में शिष्य का गिरना, भगवान के चरणों में भक्त और हाई कमान के चरणों में नेता जी के गिरने में अन्तर है। चुनाव के दिनों में नेता मतदाता के सामने झुकता है तथा पैरों में भी गिरता है। दोनों ही वक्त की नजाकत समझते हैं इसलिये इन प्रक्रियाओं को इतना महत्त्व भी नहीं दिया जाता। यह वोट मांगने की एक मुद्रा मात्र कही जा सकती है।
विद्वानों का विचार है कि गिरना वैसे तो कई प्रकार का हो सकता है जैसे प्रवृत्तियों के अनुसार, जाति और मजहब के अनुसार, आवश्यकता के अनुसार आदि किन्तु मुख्यतः दो प्रकार का ही माना जाता है- अनजाने में गिरना और जान-बूझकर गिरना। अनजाने में गिरना ही स्वाभाविक गिरना होता है क्योंकि इसमें गिरने वाले को स्वयं भी पता नहीं होता कि वह कब कहाँ और कैसे गिरेगा ? इसे कुदरत का कहर या भाग्य की विडम्बना भी कहा जा सकता है। जान-बूझकर गिरना बड़ा ही कलात्मक होता है। ऐसा करने वाला ऊँचे दरजे का साथक और कलाकार होता है। वह बिजली की तरह गिरता है तथा इस त्वरा के साथ उठता है कि विरोधी पक्ष को संभलने का मौका ही नहीं मिलता। यह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उस की बोलती बन्द हो जाती है कि कल तक जो उनके पक्ष में सर्वाधिक बोलता था यही आज ताल ठोक कर उन्हें ललकार रहा है। यहाँ कुछ लोग नैतिकता का सवाल उठाते देखे जा सकते हैं। ये अधिकतर ऐसे लोग ही होते हैं जो गिरने की इस दौड़ में मात खा जाते हैं। मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि राजनीति में निष्ठा केवल कुर्सी के प्रति ही होती है किसी दल अथवा व्यक्ति के प्रति नहीं। इसीलिये यहाँ समय-समय पर यदि निष्ठायें बदलती रहती है तो आश्चर्य की क्या बात है !
राजनीति में आने वाला कोई संत नहीं होता। हाँ संत होने का ढोंग अवश्य करता है। राजनीति में गिरने या टपकने का भी एक मौसम होता है। पतझड़ में जैसे पेड़ों से पत्ते और शीतकाल में पहाड़ों पर जैसे बर्फ गिरती है वैसे ही चुनाव के दिनों के आसपास या सरकारों के बदलते समय नेताओं के गिरने का मौसम होता है। वे इसे अपनी भाषा में ‘हृदय परिवर्तन’, ‘आत्मा की आवाज’ या ‘घर लौटने’ की संज्ञा देते रहते हैं। वर्षों तक जो व्यक्ति पार्टी को अपनी माँ और हाई कमान को अपना सगा बाप बतलाता रहा है वही अपने हृदय परिवर्तन पर ऐसा रंग बदलता है कि उसे देख कर गिरगिट भी शरमा जाता है। वे इस समय ऐसे गिरते हैं जैसे अचानक ओले या वर्फ गिरने पर तापक्रम। ‘गिरना’ एक क्रिया पद है जो निरन्तर गति की ओर इंगित करता है। मतलब भूतकाल में ‘गिरना’ था, वर्तमान में गिरना जारी है और भविष्य में चलता रहेगा। गिरना रोका नहीं जा सकता। गिरता कौन नहीं है। प्रकृति में तो गिरने का अनवरत क्रम जारी है। अन्तरिक्ष से दिन-रात अनगिनत निहारिकायें गिर रही हैं। धरती का जल स्तर गिर रहा है। पहाड़ों से झरने गिर रहे हैं। नदियों में गन्दगी गिर रही है। नदियाँ समुद्र में गिर रही हैं। समुद्रों में कचरा गिर रहा है। पहाड़ों पर बर्फ गिर रही है। पेड़ों से पत्ते गिर रहे हैं। सिर से बाल गिरते हैं। ठेकेदारों के बनाये पुल और सरकारी इमारतें गिर रही हैं। चलते-चलते बसें और रेल गाड़ियाँ गिर रही हैं। मनुष्यों का चरित्र गिर रहा है। दीन ईमान गिर रहा है। गरीबों का स्वास्थ्य गिर रहा है। विश्व विद्यालयों, महा विद्यालयों, विद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिर रहा है। कहाँ तक गिनाऊँ नौजवानों में साहस तक गिरता जा रहा है। फिर यदि नेता जी गिरते हैं तो क्या बड़ी बात है !
इस गिरने ने भाषा को कई सुन्दर मुहावरे दिये हैं। यदि ‘गिरना’ नहीं होता तो कोई आकाश से गिरकर खजूर में कैसे अटकता? या फिर कुएँ से निकल कर खाई में कैसे गिरता ? जनता पर महंगाई की गाज कैसे गिरती ? लोग केवल ऊँचाइयों से ही नहीं गिरते बल्कि नजरों से भी गिरते हैं जो फिर कभी उठ भी नहीं सकते। कई तो खुद गिरते-गिरते दूसरों को भी भ्रष्ट कर देते हैं जैसे दूध में मक्खी का गिरना। यदि कोई गिरता ही नहीं तो गिरते को थामने वाला महान कैसे बनता। सिद्धान्त तो यही है कि प्रत्येक ऊपर जाने वाली वस्तु को घरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है। जब उस वस्तु के ऊपर लगा बल अपना काम नहीं करता तो वह नीचे गिर पड़ती है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु की अपनी आकर्षण शक्ति होती है जो दूसरों को अपनी ओर खींचती है। जैसे पुरुष और नारी पारस्परिक आकर्षण शक्ति के कारण एक-दूसरे की ओर खिंचते हैं। बाद में यही शक्ति पुरुष के लिये अक्सर ‘ब्लैक होल’ भी सिद्ध होती है। लालची धन की ओर खिंचता है। इसी कशमकश में वे गिरते रहते हैं। वैसे ऊपर उठना भी तो गिरने का ही विलोम है। सिद्धान्ततः यह कहा जा सकता है कि कुर्सी जब नेताजी को अपनी ओर खींचती है तो तब उनका अपना बल काम नहीं करता और वे गिर पड़ते हैं वैसे शाह ए सवार ही गिरते हैं मैदान ए जंग में। इस गिरने को शर्मनाक कैसे कहा जाये जिससे मंत्री की कुर्सी प्राप्त होती है। नेता हमेशा चर्चा में रहना चाहता है। अच्छे या बुरे से कोई मतलब नहीं है। इसलिये गिरना उनके हित में है तथा मनोवांछित परिणाम है। फिर यदि सेब नहीं गिरता तो न्यूटन गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज कैसे करते? अब भी यदि कोई कहता है कि गिरना बुरा है तो यह अज्ञानी है ऐसा कहने वाला व्यक्ति न तो विज्ञान के सिद्धान्त को जानता है न ही दुनियादारी को और राजनीति तो बिलकुल नहीं। ऐसा व्यक्ति कुछ कहे भी तो उस की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये।