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संजय के सुरों में कविता का स्वर्णिम दौर लौटने की दस्तक

  • अजीज आजाद लिटरेरी सोसाइटी फिर मंच पर लाई बीकानेरी कविता

मधु आचार्य “आशावादी”

RNE, BIKANER . 

इतिहास अपने को दोहराता है। ये उक्ति कहने वाले ने यूं ही नहीं कही थी। ये ध्रुव सत्य है। इसका जिंदा प्रमाण था हंसा गेस्ट हाउस का 3 अगस्त की शाम 5.30 बजे का ‘ संजय के वातायन ‘ आयोजन। बीकानेर में एक बार फिर कविता, जी हां कविता, केवल मंचीय कविता नहीं, एक बार फिर अपनी पूरी आब में जिंदा होकर श्रोताओं व दर्शकों के समक्ष आ खड़ी हुई।

याद आता है 37 साल पहले का वो दिन जब मरहूम शायर अज़ीज आज़ाद साहब ने आनंद निकेतन जैसे पवित्र स्थान पर काव्य पाठ किया था। अवसर था उनकी एक पुस्तक के लोकार्पण का। हरीश भादानी, गौरीशंकर आचार्य ‘ अरुण ‘ , बुलाकी दास ‘ बावरा ‘, मोहम्मद सदीक, धनंजय वर्मा, अज़ीज आज़ाद, आनंद वी आचार्य ने मंच की कविता को छिछले चुटुकलों, केवल तरन्नुम, लटकों झटकों से आजादी दिलवा सच्ची कविता की प्रतिस्थापना की थी।

उसके बाद तो बीकानेर के गौरवमयी काव्य इतिहास को पहले टीवी व और बाद में मोबाइल ने पूरी तरह लील लिया। रही सही कसर कविता के नाम पर दुकानदारी सजाने वालों ने पूरी कर दी। स्व मंगल सक्सेना की उक्ति याद आती है जब उन्होंने भरी भीड़ के मध्य कहा था कि अब तो लगता है लोगों को कविता की ‘ डिसेंट्री ‘ हो गई है। जब मन करता है कविता लिख मारते हैं और उनके सुलभ शौचालय बना हुआ है सोशल मीडिया, उसके फेसबुक व व्हाट्सएप प्लेटफॉर्म। अब कवि बनना कोई नहीं चाहता, केवल अखबार की खबरों में दिखना भर चाहता है। न शब्द का संस्कार, न काव्य परंपरा का भान, न लय का अहसास मगर वरिष्ठ कवि का तगमा, वो भी अखबार की खबरों में। मंच की समृद्ध परंपरा इन बाजारू व तिकडमी साहित्य फ़रोशों के मध्य सिसक सिसक कर रोने लगी। श्रोता भी दुखी, किसकी कविता सुने, याद रहने वाली कोई पंक्ति ही नहीं मिलती।

इस माहौल के बीच 3 अगस्त को एक ऐतिहासिक व मानीखेज काम किया अज़ीज आज़ाद लिटरेचर सोसायटी ने ‘ संजय के वातायन ‘ कार्यक्रम आयोजित कर। अपने समय के सच्चे, बड़े और सार्थक कवि संजय आचार्य ‘ वरुण ‘ का काव्य पाठ आयोजित कर। जिससे लगा कि 37 साल बाद कविता फिर से जिंदा होकर श्रोताओं के मध्य पहुंच गई और सीना ठोककर कहा, मैं जिंदा हूं, मुझे कोई नहीं मार सकता।

 ‘ आसानी से मिल जाता हूं

   दरवाजे सा खुल जाता हूं

   अंधियारा मिट जाये सारा

   मैं दीपक बन जल जाता हूं ‘

संजय आचार्य की ये रचना केवल मंच की कविता नहीं, मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना करने वाली बड़ी रचना है। जो आज के पत्थर दिल व्यक्ति को इंसान बनने की सीख देती है।

डेढ़ घन्टे संजय ने हिंदी, उर्दू, राजस्थानी की जितनी भी कविताएं सुनाई वे एक लय के कारण सुनने वाले के दिल में उतर रही थी। हर कविता सुनने वाले को सुखद अहसास तो करा ही रही थी, साथ ही उसके दिमाग में कई सवाल भी खड़े कर रही थी। जब कविता सवाल खड़े करे, तब वो अपना धर्म निभा रही होती है। संजय अपने कवि धर्म का पूरा पालन करने वाले कवि हैं।

 

संजय को पता है, वो क्या लिख रहा है और क्या सुना रहा है। ये ही तो शब्द के प्रति साधना का द्योतक है। नहीं तो आजकल कई लोग ऐसी कविताएं लिखते हैं, जिनमें क्या लिखा है, उनको खुद पता नहीं होता। संजय आचार्य ‘ वरुण ‘ के जरिये कविता ने एक बार फिर अपनी आभा को प्रकट किया है। ये आभा कईयों को भिगोये है, मगर उनकी आभा तभी प्रकट हो सकती है जब अज़ीज आज़ाद लिटरेचर सोसायटी उनको भी इस तरह सामने लाये। नहीं तो कईयों की आभा अखबारी खबरों वाले आयोजनों, क्षणिक सुखों में दबकर दम तोड़ देगी। जितना फर्ज सोसायटी को निभाना है, उतना ही फर्ज आभा वाले कवियों को भी निभाना पड़ेगा। उनको भी तय करना पड़ेगा कि वे क्षणिक सुख को अंगीकार करना चाहते हैं या कवि धर्म का पालन कर अपने ऋषि होने का प्रमाण देना चाहते हैं।

कल का आयोजन इस तरह के कई विचार कवियों, श्रोताओं, बुद्धिजीवियों को देने वाला था। इस कारण सार्थक था। सोसायटी व इरशाद अज़ीज ने सुने पड़े तालाब में संजय आचार्य ‘ वरुण ‘ जरिये एक कंकर फेंका है। अब पानी अपनी तासीर में क्या बदलाव करता है, ये समय बतायेगा। हां, अच्छी राह में रोड़ें भी आयेंगे, फितरती कांटे भी बिछायेंगे, उनसे घबराना नहीं है, सफाई करते हुए मंज़िल की तरफ होले होले कदम बढ़ाना है। संजय आचार्य व अज़ीज आज़ाद लिटरेचर सोसायटी (आल्स) को शुभकामनाएं, एक सार्थक विचार निष्पादित करने के लिए।