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हे राजस्थानियों ! जिस मायड़ भाषा में लछेदार बातें कर माननीय वोट मांग रहे हैं उस भाषा का हक तो मांगों

RNE, BIKANER .

चुनावी सभाओं में इन दिनों हर बड़ा नेता राजस्थानी के मूल शब्दों का उपयोग कर न केवल अपना प्रचार कर रहा है, अपितु पॉपुलर भी हो रहा है। चुनाव की शायद ही कोई सभा हो जिसमें नेता और उम्मीदवार मायड़ भाषा राजस्थानी न बोल रहे हों और अपने लिए हाथ जोड़कर वोट न मांग रहे हो।


कांग्रेस के अध्यक्ष गोविंद डोटासरा तो हर चुनावी सभा में राजस्थानी में ही भाषण दे रहें है, भाषा के कारण पॉपुलर भी खूब हो रहे हैं। मीटिंग में बैठी जनता भी उनके खड़े होते ही राजस्थानी में बोलने की मांग कर देती है। क्या उनको ये बात समझ नहीं आती कि लोग राजस्थानी की मांग कर रहे हैं और उनको भी यही भाषा बोलनी पड़ रही है। राजस्थानी मुहावरों के कारण वे पूरे प्रदेश में इन दिनों स्टार प्रचारक बने हुवै हैं। कहीं मोरिया बोला रहे हैं तो कहीं कटका निकालने की बात कर रहे हैं, ये मुहावरे हिंदी में नहीं मायड़ भाषा राजस्थानी में है। वे राज में शिक्षा मंत्री भी रहे पर मातृभाषा दिवस को राजस्थानी भाषा दिवस के रूप में नहीं मनवा सके।


भाजपा के नेता व केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल, कैलाश चौधरी, गजेंद्र सिंह शेखावत भी बीकानेर, बाड़मेर व जोधपुर में राजस्थानी में ही बोल रहे हैं और खुद को जिताने की अपील कर रहे हैं। अर्जुनराम जी गांवों में पूरा भाषण, भजन व मोदी फेर आसी गीत भी राजस्थानी में ही गा रहे हैं। नागौर में भाजपा की ज्योति मिर्धा हो या जयपुर में कांग्रेस के प्रताप सिंह खाचरियावास, मायड़ भाषा को ही अंगीकार किये हुवै हैं।
लोकसभा चुनाव में अधिक ग्रामीण क्षेत्र है और वहां कोई हिंदी बोले तो लोग सुनते भी नहीं। राजस्थानी को ही। चाव से सुनते और समझते हैं। चूरू में तो कांग्रेस उम्मीदवार राहुल कस्वां ने अपना पूरा चुनाव ही राजस्थानी में बोलकर खड़ा किया है। हिंदी बोलने वाले नेताओं को भी सभाओं में ‘ राम राम सा ‘ से ही अपने भाषण की शुरुआत करनी पड़ती है। कोटा में उम्मीदवार हाड़ौती बोल रहे हैं जो राजस्थानी ही है। उदयपुर में बागड़ी, मेवाड़ी बोल रहे हैं, वो भी राजस्थानी ही है।
पर माननीयों को केवल चुनाव के समय ही ये मायड़ भाषा क्यों याद आती है। जीतने के बाद इसकी पैरवी विधानसभा व लोकसभा में क्यों नहीं करते। यदि 25 सांसद अपनी मां बोली के लिए एक होकर किसी भी केंद्रीय सरकार के सामने बात रखेंगे तो सरकार ना नहीं कर सकती। उसे संवैधानिक मान्यता देगी ही। इसी तरह विधायक बनने के लिए जिन 200 ने मायड़ भाषा में वोट मांगे वे एक हो जायें तो फिर राज्य में राजस्थानी को दूसरी राजभाषा बनने से कौन रोक सकता है।


मगर ऐसा हो क्यों नहीं रहा। एक दो विधायक या इतने ही सांसद कभी कभार ही भाषा की बात क्यों करते हैं। क्या दक्षिण के राज्यों से वे सीख नहीं लेते जो अपनी मातृभाषा के लिए दलीय सीमा तोड़कर भी एक हो जाते हैं। हमारे माननीय कब ये बात समझेंगे। अभी माननीय शहर शहर, गांव गांव घूमकर इसी मायड़ भाषा मे अपने लिए समर्थन मांग रहे हैं। उनको सबक देना चाहिए कि जब आप जिस भाषा में राजनीति कर रहे हैं उस भाषा के साथ हो रही राजनीति के प्रतिरोध में क्यों नहीं खड़े हो रहे हैं। अभी हमारा समय है, इनको सुना सकते हैं, सुनाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए, यदि आपको अपनी मां से, मां बोली से और मायड़ भाषा राजस्थानी से प्रेम, लगाव व स्नेह है तो।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘