माननीय कैसे झुठलाते है राजस्थानी साहित्य को, भाषा की समृद्धता को, गरिमामय संस्कृति को
RNE, BIKANER .
ये समय माननीयों के सुनने का है। हमारे सामने वोट के लिए हाथ फैलाने का। ये ही तो वक़्त है जब हम उनसे रु ब रु बात कर सकते हैं, बात ही नहीं सवाल भी कर सकते हैं। नहीं तो बात की तो कल्पना ही नहीं रु ब रु भी नहीं हो सकते। पांच साल बाद फिर अवसर मिलेगा, उसके बीच तो हम इन माननीयों को मन की बात कह भी नहीं सकते। इनके मन की सिर्फ सहनी ही पड़ती है।
हम यदि इस समय अपनी मां, मायड़ भाषा के लिए इनसे सवाल करने की स्थिति में नहीं आते हैं तो हमारे होने का महत्त्व ही क्या है। याद कीजिये, दक्षिण के भाषाई आंदोलनों को। वे अपनी भाषा के लिए कितना समर्पण रखते हैं और उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते। उनकी भाषा पर यदि कोई प्रतिकूल टिप्पणी करता है तो उनको लगता है जैसे उन्हें गाली दी गई है। वे तुरंत उसके सामने लड़ने को खड़े हो जाते हैं।
दक्षिणमें तो अनेक राजनीतिक दलों के जन्म की वजह भी भाषा है। हम हर उस एर गैर की कैसे सुनते हैं जो कह जाता है कि राजस्थानी कोई भाषा ही नहीं है। हमें ये कहने की किसी की हिम्मत कैसे हो जाती है। हम एक दो नहीं, 12 करोड़ राजस्थानी हैं। फिर भी चुप क्यों रह जाते हैं। भाषा से बड़ा हमारे लिए कोई राजनीतिक दल नहीं हो सकता। क्योंकि भाषा है तो हम है। हम है तो हमारी संस्कृति है। इस गौरवमयी भाषा और उसकी संस्कृति को हम गुमनाम करने की कोशिश को सहन नहीं करेंगे। दुनिया मे इस बात के अनेक उदाहरण है कि जब किसी को समाप्त करना हो तो सबसे पहले उससे उसकी भाषा छीनी जाती है। फिर संस्कृति तो अपने आप ही खत्म हो जाती है। इसीलिए सोचना चाहिए कि हम अपनी राजस्थानी के साथ इस तरह की उपेक्षा क्यों सहन कर रहे हैं।
अब समय है, उसमें हमें इन माननीयों को समझाना चाहिए कि हमारा साहित्य भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ है। उसका भंडार भी विपुल है। भाषा वो समृद्ध होती है जिसकी बोलियां अधिक होती है। भाषा समुद्र है और बोलियां नदियां। इस बात को समझाना होगा। यदि माननीय हमारे साहित्य, संस्कृति व भाषा को नहीं समझ रहे तो हमें उनको जबरदस्ती समझाना होगा। इस समय सुनना ही पड़ेगा उनको।
दक्षिण की भाषाओं का मान तभी बढ़ा जब लोगों ने इस बात को समझा कि भाषा की लड़ाई साहित्यकारों की नहीं, सबकी है। राजस्थानियों को भी ये समझना पड़ेगा कि भाषा की मान्यता का लाभ युवाओं को मिलेगा, हर घर को मिलेगा। भाषा ही तो अन्य राज्यों में रोजगार का आधार है। मान्यता होगी तभी तो राज्य के युवाओं को राज्य में नोकरी मिलेगी। लोगों के लिए राज्य चारागाह नहीं बनेगा। नही तो हमारे युवा ताकते रहेंगे और बाहरी लोग राज्य में आकर हरी घास चरते रहेंगे। जनता को भी अपनी इस दशा के बारे में जानना चाहिए। फिर माननीयों के सामने खड़े होकर सवाल करने चाहिए। अभी वक्त है, चूके तो चौरासी। जय जय राजस्थानी।
— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘