
भारतीय समाज को नया दर्शन दिया था कबीर ने, बिना पंथ, मानव पंथ को तरजीह, उस समय के बागी कवि थे कबीर, बेख़ौफ़ बोलते थे
नगेन्द्र नारायण किराड़ू
RNE Network.
आज समाज और व्यक्ति जिस तरह की विसंगतियों से घिरा है, उसमें बरबस ही कबीर की याद आती है। कबीर संत थे, फकीर थे, मस्तमौला थे, कवि थे। वे अपने समय के सबसे बड़े एक्टिविस्ट थे। उनसे बड़ा विद्रोही कवि हिंदी साहित्य में हुआ ही नहीं। आज कबीर जयंती है, कबीर को याद कर हर समझदार चाहता है कि कम से कम एक बार, एक बार तो कबीर इस युग में भी आ जाये। अपनी वाणी से वो फिर से समाज को जगाए।
15 वीं सदी के कवि:
कबीरदास या कबीर 15 वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उनका जन्म 1398 में काशी में माना जाता है। कबीर ने उस समय की उस छोटी सी जगह से ऐसी आवाज उठाई कि आज तक लोगों के कानों में गूंज रही है।
बड़ा महत्ती है कबीर का कर्म:
कबीर अंधविश्वास , व्यक्ति पूजा पाखंड और ढोंग के विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में जाति और धर्मों के बंधनों को गिराने का काम किया।
वे भोजपुरी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानधर्मी उपशाखा के महानतम कवि थे। इनकी रचनाओं ने उत्तर और मध्य भारत के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाएं सिक्खों के गुरुग्रंथ, आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गई।
कबीर का विश्वास:
कबीर एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों , कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की। उनके खिलाफ जमकर बोले। कबीर को सामाजिक बुराईयों से बेहद नाराजगी थी, गुस्सा था। उन्होंने सामाजिक बुराइयो की जमकर निंदा की। कड़ी आलोचना बिना परवाह की।
सबके थे चहेते थे कबीर:
कबीर पंथ निरपेक्ष या यूं कहें कि अपने ही बनाये अलग पंथ के व्यक्ति थे। उनके जीवनकाल में वे जो कहते, बोलते, उसका अनुसरण हिन्दू और मुसलमान समान रूप से करते।
यूं बना कबीर पंथ:
कबीर की वाणी और बोल सच की हिमायती वाली थी। वे न तो धर्म सत्ता से डरते थे न समाज सत्ता से। बेबाक होकर इनकी बुराइयो पर बोलते थे। तभी तो कबीर पंथ नामक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं का अनुयायी बना। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा।
कबीर के कुछ बेजोड़ दोहे:
कबीर, हाड चाम लहू ना मेरे, जाने कोई सतनाम उपासी
तारन तरन अभय पद दाता, मैं हूं कबीर अविनाशी
इस दोहे में कबीर कहते है मेरा शरीर हड्डी व मांस का बना नहीं है। जिसको मेरे द्वारा दिया गया सदनाम व सारनाम प्राप्त है, वह मेरे इस भेद को जानता है। मैं सबका मोक्षदायक हूं, तथा मैं ही अविनाशी परमात्मा हूं।
कबीर, पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार, ताते तो चाकी भली, पीस खाये संसार:
कबीर कहते है किसी भी देवी देवता की आप पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते है जो कि शास्त्र विरुद्ध साधना है। जो कि हमें कुछ नहीं दे सकती। इनकी पूजा से अच्छा चक्की की पूजा कर लो, जिससे हमें खाने के लिए आटा तो मिलता है।
कबीर इस तरह आज भी प्रासंगिक है। उनको समझना व्यक्ति व समाज को समझना है।