Actor Politician: नेताओं को मात दे रहे अभिनेता!
नमन जोशी

RNE Special.
भारतीय लोकतंत्र कि पिच पर अब केवल खादी धारी नेता ही नहीं, बल्कि बड़े पर्दे के चमकते सितारे भी अपनी किस्मत आजमा रहे है। दक्षिण भारत से शुरू हुआ यह सिलसिला अब उत्तर भारत में भी अपनी छाप छोड्ने लगा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या अभिनेता राजनीति मे आकर 'लोकतंत्र को मजबूती प्रदान कर रहे या पार्टियों के लिए सिर्फ एक वोट बैंक ही बनकर रह गए है। क्या यह सितारे राजनीति मे एक नया पहलू लाएंगे या सिर्फ भीड़ आकर्षण का केन्द्र बनकर रह जाएंगे। कई बार अभिनेताओं पर यह आरोप लगते है कि वह चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र से गायब हो जाते हैं। कुछ हि सितारे जो बड़े पर्दे पर अपनी चमक से दर्शको को लुभाते है वह धरातल पर आकर अपनी चमक कायम रख पाते हैं। भारतीय राजनीति में फिल्मी सितारो दबदबे कि शुरुआतू दक्षिण भारत से हुई।
एम० जी रामचंद्रन एन.टी रामाराव से जे. जयललिता ने यह साबित किया, कि सिनेमा की लोकप्रियता को राजनीतिक शक्ति में कैसे बदला जा सकता है। इन सितारों ने केवल चुनाव हि नही जीते बल्कि दशको तक मुख्यमंत्री के रूप में जनता के दिलो पर भी राज किया। एच. एन बहुगुणा जिन्हे चाणक्य माने जाने वाले नेता को अमिताब बच्चन ने अपनी पहली चुनावी पारी मे सन् 1984 मे लगभग 1,87,000 से अधिक वोटो के भारी अन्तर से हराया था। यह भारतीय चुनावी इतिहास की सबसे चर्चित जीत मानी जाती है। इलाहाबाद सीट पर सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने उ.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कद्दावर नेता को हराकर यह साबित कर कर दिया कि जिन नेताओं को जनता पर अपनी छाप छोड़ने- तथा जाने। जाने में कई सालो लगाने पड़ते हैं वह कार्य हर घर जाने जाने वाले अभिनेता पल भर में कर लेते है। इसीका एक और उदाहरण है स्मृति ईरानी कि अमेठी में जीत। हालांकि स्मृति इरानी ने अपने करियर कि शुरुआत छोटे परदे से कि थी लेकिन अमेठी में उनकी जीत ऐतिहासिक रही। उन्होने गांधी परिवार के गढ़ कहले कहे जाने वाले अमेठी मे सुप्रसिद्ध नेता राहुल गांधी को सिर्फ हराया हि नही बल्कि लगभगा 55,000 वोट के अंतर से भी वह आगे रही! अमेठी को कांग्रेस कि सबसे सुरक्षित सीट माना जाता था। जहाँ स्मृति ने लंबी मेहनत के बाद अपनी जीत दर्ज की वर्तमान में भी राजनीति का मंच फिल्मी सितारो से सजा हुआ है। कंगना रनौत, हेमा मालिनी और रवि किशन नाम संसद में सक्रिय है। दक्षिण में पवन कल्याण की हालिया सफलता और थलपति विजय द्वारा अपनी नई पार्टी "तमिलगा वेत्री कड़गम' की घोषणा ने इस बहस को को फिरसे गरमा दिया दिया है। है। कमल हासन रजनीकांत जैसे दिग्गजों ने भी इस मैदान मे हलचल पैदा कि है। हालांकि सितारों का आना ग्लैमर लाता है, लेकिन उन्हें कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है । अक्सर उनपर यह आरोप लगाया जाता है कि अभिनेताओं को जमीनी मुद्दो कि गहरी समझ नहीं होती तथा संसद और कि विधानसभा के सत्रों मे सेलिब्रिटी नेताओं कि उपस्थिति काफी कम दर्ज है। आलोचको का यह मानना राजनीति एक पूर्णकालिक सेवा है न कि साइड बिजनेस । एक बड़े अभिनेता की एक झलक पाने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। जिससे पार्टी कि रैलियों को भारी जनसमर्थन मिलता है।
क्या आने वाले दौर मे यूट्यूबर्स और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर भी राजनीति में दिखाई देंगो एलवीश यादव जैसी हस्तिया भी कई मोको पर भाजपा का समर्थन करते दिखाई दिए है क्या अभिनेता के बाद अब "इन्फ्लुएंसर पॉलिटिक्स" का भी दौर शुरु होगा? अंततः, भारतीय राजनीति मे सितारो और सोशल मिडिया इन्फ्लुएंसर की बढ़ती भागीदारी, यह साफ करती है कि अब चुनाव केवल विचारधाराओं की जंग नहीं, बल्कि लोकप्रियता व पहचान कि भी लड़ाई बन चुकी है। लेकिन लोकतंत्र की असली सफलता इसबात मे नही कि कोई चेहरा कितना मशहूर है बल्कि इसमें है कि चुनाव जीतने के बाद वह जनता के मुद्दों के प्रति कितना जवाबदेह है। मतदाताओं को भी 'रील' और 'रियल के अंतर को समझना होगा। संसद की कुर्सी केवल तालियो कि गूंज से नहीं बल्कि ठोस नीति-निर्माण और जमीनी संघर्ष से ही सार्थक सिद्ध हो सकती है।

