कांग्रेस आलाकमान नेतृत्त्व में बदलाव को लेकर असमंजस में, जिला अध्यक्षों के बाद अब प्रदेश स्तर पर कवायद
निकाय - पंचायत चुनावों तक टल सकता है निर्णय
मधु आचार्य ' आशावादी '

RNE Special.
राजस्थान में कांग्रेस ने जिला अध्यक्षों की नियुक्ति तो कर दी, मगर प्रदेश नेतृत्त्व को लेकर अभी तक कुछ भी नहीं कर पाई है। जबकि पहले यह कहा गया था कि जिलाध्यक्षों की नियुक्ति के बाद प्रदेश संगठन पर काम होगा। उसकी शुरुआत भी नहीं हो पाई है।

अभी तक भी पहले के निर्णय के अनुसार निष्क्रिय पदाधिकारियों को हटाया नहीं गया है। न भाजपा के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखने वाले नेताओं पर कोई कार्यवाही हुई है। न प्रदेश पदाधिकारी नये बनाये गए है। जबकि आलाकमान को ये काम बहुत पहले करना था। कांग्रेस नेतृत्त्व ने जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में भी बहुत देरी की थी, उसी तरह की देरी अब प्रदेश संगठन में तब्दीली के काम में हो रही है।
सचिन के तेवरों की अपनी कहानी:

सचिन पायलट को पार्टी का महासचिव, छत्तीसगढ़ का प्रभारी व सीडब्ल्यूसी मेंम्बर बनाने के बाद से उनके तेवर कुछ अलग ही तरह के है। वे पार्टी के स्टार प्रचारक भी बन चुके है और पिछले काफी दिनों से प्रियंका गांधी व राहुल गांधी के भी निकट है। अधिकतर समय दिल्ली में रहकर कांग्रेस कार्यालय में बैठते है। उनको प्रदेश की कांग्रेस का नेतृत्त्व देने की बातें भी काफी समय से चल रही है। वहीं राज्य के कई विधायक व सांसद अब पाला बदलकर उनके साथ हो गए है, इससे उनकी ताकत भी बढ़ी है।
डोटासरा के धारदार फटकारे:

पीसीसी चीफ बने तब गोविंद डोटासरा को पूर्व सीए अशोक गहलोत का साथी माना जाता था। पहले विधानसभा व फिर लोकसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बाद डोटासरा ने एक टीम जुटा ली और जमकर फटकारे लगाने लगे। उनका गमछा व तेजल डांस राजनीति में कहर ढाने लगा। नये बने जिलाध्यक्षों में भी उनके समर्थक ज्यादा है। अब वे भी राज्य में कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा अपने साथ लेकर सार्वजनिक जीवन में थापित है।
गहलोत की कूटनीति के सब कायल:

पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 3 बार राज्य के सीएम रहे है और उनको राजनीति का जादूगर कहा जाता है। वे अपनी कूटनीति के कारण हर वक्त कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में रहते है। मगर जब से उन्होंने कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से मना किया, जब उन्होंने सीएम रहते आलाकमान को वापस लौटाया, तब से उनकी दिल्ली में पकड़ कमजोर हुई है। अब केंद्रीय नेतृत्त्व के निकट वे कम दिखते है और उनको सोनिया, राहुल के साथ भी मुलाकात करते कम देखा जा रहा है। मगर वे राज्य में इन दिनों अपनी सक्रियता को ज्यादा बढ़ाये हुए है, यही उनकी कूटनीति है।
आलाकमान असमंजस में:
आलाकमान इन तीनों नेताओं के वर्चस्व को देखते हुए तय ही नहीं कर रहा है कि अभी से अगले विधानसभा चुनाव के लिए नेतृत्त्व सामने लाये या नहीं। एक भी नेता को हाशिये पर लाया गया तो स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएगी। नेता प्रतिपक्ष के रूप में टीकाराम जुली की अच्छी परफॉर्मेंस से आलाकमान प्रभावित है, उनको भी अब अलग नहीं किया जा सकता। राजनीति के समीकरण उलझे हुए प्रतीत हो रहे है।
निकाय - पंचायत चुनाव भी वजह:
राज्य में अब आने वाले समय में स्थानीय निकायों व पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव है। इस वजह से भी पार्टी अपने हाथ बदलाव को लेकर खिंचे हुए है। एक भी नेता को नाराज किया तो इन चुनावों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, ये स्पष्ट है। इस वजह से लगता है कि इन चुनावों तक शायद आलाकमान अपने को चुप रखे।

